जुगनुओं की मानिन्द चमक भर जाती हैं मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी आँखें, रोज़ रोज़ नए नए हसीन रंग भर जाती हैं मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी आँखें, बस इसी पशोपेस में रहता हूँ कि तुम्हें देखूँ या देखता रहूं तुम्हारी आँखें, तुम्हारी पूरी शख्सियत के वजूद का आइना बन जाती हैं तुम्हारी आँखें| आँखें फेर लेती हो जब तुम तो सज़ा की मानिंद लगती हैं तुम्हारी आँखें, आँखें तिरछी करती हो तुम तो कहर की मानिंद लगती हैं तुम्हारी आँखें, आँखें झुकाकर उठा लेती हो तुम तो हमें खतावार बताती हैं तुम्हारी आँखें, आँखें उठाकर झुका देती हो तुम तो इक अदा बन जाती हैं तुम्हारी आँखें| आँखें झुका लेती हो जब तुम तो हया-औ-सादगी दर्शाती हैं तुम्हारी आँखें, आँखें मिलाती हो जब तुम तो जीने की वजह बन जाती हैं तुम्हारी आँखें, आँखों के झुकाने और उठाने में ही हज़ारों रंग दिखा जाती हैं तुम्हारी आँखें, आँखें उठा लेती हो जब तुम तो खुदा की रज़ा बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|
Monday, November 14, 2011
नज़म - तुम्हारी आँखें
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नज़म - मजार
ता-उम्र ग़ुरूर से ऊंचा रहा सर झुक गया आ के मजार में, बुलंद थे जो अर्श पर आ गए वो फ़र्श की सतह पे मजार में, उम्र भर चलने फिरने के बाद आए कब्र तक वोह कांधों पर - ले लिया एहसान लोगों का चंद कदम आने को मजार में। माना कि बहुत एहतराम से लोग आते हैं किसी के मजार में, पर सुबह ही सुबह वो फूल क्यों चढ़ा जाते हैं आ के मजार में, मनों मिट्टी के नीचे तो पहले ही से दबा हुआ होता है आदमी - उसे और क्यों दबा जाते हैं फूलों की चादर चढ़ा के मजार में। हमने माना कि खिराज-ए-अकीदत को जाते हैं लोग मजार में, शाम होते ही चिराग़ क्यों जला के जाते हैं ये लोग मजार में, क्या वो यह नहीं जानते कि तमाम ज़िंदगी की नींदें खो कर - तब जाके वो सुकूं की नींद सो पाता है इंसां अपने मजार में।
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नज़म - बाद मुद्दत के
बाद मुद्दत के आज उनसे मुलाकात जब हो गई, ज़ुबां थम सी गई और निगाह बस जम सी गई, देखा जो उन्हें मैंने तो फिर देखता ही रह गया - लब तो सिल से गए, धड़कनें कुछ रुक सी गई। यूं लगा कि मेरी वीरां ज़िंदगी में बहार सी आ गई, यूं लगा कि इन खामोश तारों में झंकार सी आ गई, छलकती आंखों से जो मैंने पी तो पीता ही रह गया - यूं लगा कि लबों पे ये तिशनगी बेशुमार ही आ गई। बेनूर मेरी ज़िंदगी पुरनूर हो गई रौशनी सी छा गई, माहौल सुरमय हो गया, हरसु इक खुमारी सी छा गई, मुकद्दर यूं बदलेगा, मंत्रमुग्ध हो मैं सोचता ही रह गया - मेरे घर में मुझे ऐसा लगा कि खुदा की खुदाई छा गई।
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Saturday, October 8, 2011
नज़म - मुकद्दमा-ए-कत्ल
कत्ल तुमने हमारा किया, तुम कातिल और मक्तूल हम हो गए, दुन्यावी अदालत में तो गवाहों के बयानात पर बरी तुम हो गए, मग़र दावा-ए-कत्ल नालिश हुआ तुम पे जब खुदा की अदालत में - यूं तो हम साफ़ मुकर गए पर ग़लत बयानी के मुजरिम हम हो गए। दायर हुआ हमपर मुकद्दमा झूठ बोलने का तो मुजरिम हम हो गए, खुदा की शतरंजी चाल तो देखो, गवाह की हैसियत से पेश तुम हो गए, सैय्याद अपने जाल में खुद आ गया, सच बोलो तो गुनाह-ए-कत्ल साबित - और झूठ बोल के बच निकलो तो झूठ बोलने के भी गुनहगार तुम हो गए। कर लो हासिल इबरत इसी वाक्या से तो हर मंज़िल से पार तुम हो गए, ऊपर क्या देखते हो, यहीं पर बहिश्त को पाने के हकदार भी तुम हो गए, खुदा मिल जाएगा यहीं पर, राह-ए-बहिश्त को ढूंढने को क्यों निकले हो तुम - प्रेम से जियो और औरों को भी जीने दो, हर मुश्किल से आज़ाद तुम हो गए।
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नज़म - हकीकत-ए-हाज़िरा
"कैसे हैं आप" लोग अमूमन यह सवाल हमसे करते हैं, "बस वक्त गुज़ार रहे हैं", यही हम अमूमन कह देते हैं, कुछ अजीब सा हो गया है वक्त गुज़ारने का सिलसिला - दिन गुज़र जाते हैं रोज़गार में, रातें नहीं काट पाते हैं। कहने को तूल-ए-ज़िंदगी के सिर्फ़ चार ही दिन बताते हैं, पर ये चार दिन भी काटने में सालों साल गुज़र जाते हैं, ज़िंदगी रोज़मर्रा के ढर्रे पर कुछ ऐसे निकल जाती है कि - कुछ तो मर मर के जीते हैं, कुछ जीते जी मर जाते हैं। यदि नहीं पीते हैं तो खौफ़-ए-हकीकत-ए-हाज़िरा सताते हैं, और अगर पीते हैं तो ग़म-ए-ज़िंदगी ज़हन पर छा जाते हैं, पीने और ना पीने की भी अजीब सी कशमकश है ज़िंदगी में - पीकर तो हम होश में रहते हैं और बिन पिए बहक जाते हैं।
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Wednesday, October 5, 2011
नज़म - खवाबों की बुनाई
आओ हम दोनों मिल कर आज कुछ कहते हैं और कुछ सुनते हैं, कुछ हम सुनाएं, सुनो आप और कुछ हम आप की सुनते है, इसी सुनने सुनाने में जो गुज़र जाए वही वक्त बेहतर होता है - चलो बातों के धागों को आगे बढ़ाकर ख्वाब कुछ हम बुनते हैं। कितने हसीन होते हैं ये ख्वाब जो हम दोनों मिलकर बुनते हैं, पर आपको तो खबर ही नहीं कि लोग क्या क्या बातें करते हैं, खैर, छोड़ो उनकी बातें, उनके पास तो और कोई काम ही नहीं होता - भूलकर ज़िंदगी की भाग दौड़ को कुछ कदम संग संग चलते हैं। तमाम उम्र यह जो हम जीते हैं, ख्वाब देखते हैं और बातें करते हैं, एक दूजे से हम लड़ते हैं और झगड़ते हैं, प्यार मोहब्बत करते है, सभी कारगुज़ारी में एक ही बात है जो काबिल-ए-ग़ौर है, ता-ज़िंदगी - यही दौलत हम कमाते हैं एवं यही मिल्कियत हासिल करते हैं।
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नज़म - वोह और हम
पहले तो ज़ख़्म-ए-दिल देते हैं वोह, फिर हंस देते हैं, और उन्हीं ज़ख़्मों को कुरेदते हैं और फिर हंस देते हैं, अपने ज़ख़्म हरे रखते हैं हम ताकि उनकी तवज्जो रहे - हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं। पहले जुमलों के तीर छोड़ते हैं वोह, फिर हंस देते हैं, उन तीरों को बा-असर देखते हैं और फिर हंस देते हैं, यह जुमले-बाज़ी ऐसे कुछ मुकाम पे पहुंच जाती है कि - हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं। प्यार के सिलसिले को जीतते हैं वोह, फिर हंस देते हैं, हमारी हार में अपनी जीत देखके वोह फिर हंस देते हैं, वजह शायद एहसास-ए-गुनाह-ए-बेनियाज़ी हो उनका कि - हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।
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नज़म - कैंचियां
मेरठ की एक महिला का वहां आना हुआ जहां हम काम करते हैं, हमने मज़ाक मज़ाक में ही उनसे कह दिया कि लोगों से सुनते हैं, कि आपके मेरठ शहर की कैंचियां तो बहुत दूर दूर तक मशहूर हैं - दर्जी तो दर्जी, जेबकतरे तक भी वही कैंचियां ही इस्तेमाल करते हैं। वोह मुस्कुराकर बोली, "जी जनाब, हम भी तो यही बात सुनते हैं, और इसमें ग़लत भी क्या है जो वोह उन्हीं का इस्तेमाल करते हैं, आख़िर क्यों इस्तेमाल ना करें वोह अपने ही शहर की कैंचियों को - शहर की कैचिय़ां बेहतर हैं सो वोह उन्हीं का ही इस्तेमाल करते हैं। दर्जियों और जेबकतरों की बात को छोड़िए, लोग तो ऐसा भी कहते हैं, कि हम महिलाएं भी दिन रात इन कैंचियों का ही इस्तेमाल करते हैं, असल में हम महिलाएं तो इन कैचियों के चलते फिरते इश्तेहार ही हैं - हम तो अपनी ज़ुबान का इन कैचियों की तरह ही इस्तेमाल करते हैं"।
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कविता - कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट (या रौंग)
काफ़ी समय पहले एक साहब हमारे साथ बैंक में काम करते थे, नाम तो था शांतिप्रिय पर छवि "एंगरी यंग मैन" वाली रखते थे, जवान थे और हर ग्राहक से बिना किसी बात झगड़ा कर बैठते थे - "कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट" बैंक मैनेजर अमूमन उन्हें समझाते थे। "कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट" सुन सुनकर बेचारे घुटकर रह जाते थे, एक दिन अचानक उन्होंने त्यागपत्र दे दिया पर बहुत खुश दिख रहे थे, शायद कोई बेहतर और अच्छे वेतन वाली नौकरी उनको मिल गई थी - जाते जाते वोह अपने नाम के अनुरूप सबसे खुश होकर मिल रहे थे। कल एयरपोर्ट पर अचानक वो मिल गए, हमें बहुत तपाक से मिले थे, हमने उनका हालचाल पूछा और पूछा आजकल वो कहां काम करते थे, हंसकर बोले आजकल वो वहां हैं जहां "कस्टमर हमेशा रौंग ही होता है" – मुझे हैरान देखकर बोले, "आजकल वो पोलीस विभाग में काम करते थे"।
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नज़म - शहर-ए-खमोशां
चैन की नींद जो सो रहा था मैं ओढ़े कफ़न मैं अपने मजार में, शोर जो कुछ सुना मैंने तो बैठ गया उठ के मैं अपने मजार में, शोर-औ-गुल और शहर-ए-खामोशां में, आखिर माजरा क्या है यह - तकरीर हो रही थी, कायम रहे अमन और चैन शहर-ए-मजार में। तमाम उम्र चैन से तुमने सोने ना दिया अपनी खोखली तकरीरों से, और ना ही अब सोने दे रहे हो कब्र में अपनी खोखली तकरीरों से, तुम नेता हो तो संसद में जाओ और करो तकरीरें जितनी चाहो तुम - क्या दे सकोगे शहर-ए-खामोशां में हमें अपनी खोखली तकरीरों से। फ़क्त आदमखोर ही आदमखोर बसते हैं तुम्हारे इस फ़रेबी जहां में, हर एक बस्ती के गोशे गोशे को छानकर देख लिया फ़रेबी जहां में, इनकी सफ़ेदपोशी पर न जाओ, स्याह दिलों में भी झांक कर देखो - इसीलिए आशियाना बनाए बैठे हैं कब्रिस्तान में इस फ़रेबी जहां में।
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गज़ल - गज़ल
तूफ़ान से रहम की गुज़ारिश करते हो तुम, बहुत नादान हो तुम, यह क्या करते हो तुम, जीने के लिए तूफ़ां का मुकाबिला करो ना - क्यों अपने मरने का सामान करते हो तुम। यूं तो मोहब्बत के नाम पर आहें भरते हो तुम, इज़हार-ए-मोहब्बत से फिर क्यों डरते हो तुम, और इज़हार-ए-हाल-ए-दिल में यह देरी क्यों - आज ही करो ना, कल पर क्यों रखते हो तुम। उम्र-ए-हयात कुछ ऐसे बसर करते हो तुम, जैसे हर्फ़-ए-ज़ीस्त पर सही करते हो तुम, यह जानते हुए कि पल की खबर नहीं है - सामान सौ बरस का मुहैय्या करते हो तुम।
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Tuesday, June 21, 2011
गज़ल - गज़ल
नींद छीन लेते हो आंखों से और फिर तुम ख्वाबों की बात करते हो, एक बूंद भी मय की मयस्सर नहीं, तुम शराबों की बात करते हो, निभाना दस्तूर-ए-दुनियां को भी शामिल कर लो अपनी ज़िंदगी में - हस्बा-ए-मामूल है आपसी मिलना, तुम हिजाबों की बात करते हो। एक ही आफ़ताब से रौशनी है, तुम किन आफ़ताबों की बात करते हो, महताब इक मेरे घर में भी है, तुम कौन से महताबों की बात करते हो, अपने बुज़ुर्गों की हर रिवायत जज़्ब है मेरे खून के इक इक कतरे में - यह आज तुम किन अलहदा रिवायतों वाली किताबों की बात करते हो। उनके इंकार में इकरार भी शामिल है, क्यों फिर जवाबों की बात करते हो, हकीकत-ए-ज़माना को दरगुज़र कर के क्यों तुम निसाबों की बात करते हो, मौजूद है ज़माने भर की तमाम खुशियां जब तुम्हारे मौजूदा मुकाम में ही - हर शय हसीन है तुम्हारे इर्द गिर्द ही क्यों फिर सराबों की बात करते हो। [मयस्सर = Available] हस्बा-ए-मामूल = Day to day routine] [हिजाब = Veil] [ज़र्रा = Sand particles] [आफ़ताब = Sun] [महताब = Moon] [रिवायत = Rituals] [दरगुज़र = Forget] [निसाब = History] [सराब = Mirage]
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Saturday, June 11, 2011
नज़म - मुम्बई ब्लास्ट्स
कल यहां ऐसा एक कोहराम मचा कि हवाएं बिलखने लगी, मौत ने ऐसा किया कुछ तांडव कि ज़िंदगी सिसकने लगी, लाशों के टुकड़े उड़े और उड़कर यूं बिखरे इस फ़ज़ा में कि - माहौल रोया खून के आंसु और इंसानियत तड़पने लगी। मुल्क को क्या तुमसे यही तव्वको है कि वहशत नाचने लगे, मुल्क ने क्या तुमको यही दिया है कि हैवानियत हंसने लगे, जाहिलो, जिस थाली में तुम खाते हो, उसी में छेद करते हो - मुल्क का मुस्तकबिल क्या होगा जो जूतियों में दाल बंटने लगे। उठो ग़ैरतमंद इंसानो, जवाब दो कि हैवानियत तड़पने लगे, उठो नौजवानों, मुकाबिला करो डटकर कि वहशत सिसकने लगे, कह दो इन दरिंदों को कि खुद भी जिएं औरों को भी जीने दें - वगरना यूं मुंह की खाएंगे ये कि इनकी रूह भी कांपने लगे।
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नज़म - साकी-औ-रिंद
साक़िया, मैकदे के एक पहुंचे हुए रिंद का तूने तो ग़ुरूर ही तोड़ दिया, बेसुध होकर कहीं गिर ना जाए, तूने उसका जाम खाली ही छोड़ दिया। इस ज़माने में पैमां टूटते हुए तो हम रोज़ाना ही देखते आए हैं लेकिन, आज तो, यकीनन, तूने हद्द ही मुका दी, उसका पैमाना ही तोड़ दिया। तुझे इससे फर्क भी क्या पड़ता है, चार जाएंगे, चार और चले आएंगे, तेरी महफ़िल तो सूनी ना होगी मग़र तूने तो उससे मुहं ही मोड़ लिया। कितना ग़लत ग़ुमान रखता आया था, साक़िया, तुझपर तेरा यह रिंद, चश्म-ए-साक़ी से ही पीता रहा था, तूने तो उसका दिल ही तोड़ दिया। किस किस की बातें सुनता और किस किस की जुबां पर ताले लगाता, कल तक जो जाता था तेरी बजम से, आज उसने जहां ही छोड़ दिया।
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कविता - गुनाह-औ-सवाब
आते हैं गुलज़ार में और ढूंढ़ते लगते हैं वोह मुझे ख़ार में औ गुलाब में, नासमझ हैं, एक बार झांक कर देख तो लेते अपने दिल की किताब में। दर हक़ीक़त मैं भी एक बंदा हूं खुदा का, उसका कोई मोजज़ा नहीं हूं मैं, जाते हैं सहरा में और ढूंढ़ने लगते हैं वोह मुझे सेहरा के फ़रेबी सराब में। सोते सोते भीनि भीनि सी एक मुस्कान उभर ही आती है उनके लबों पर, हाल-ए-दिल लाख छुपाएं मग़र हक़ीक़त खुल ही जाती है उनके ख्वाब में। हकीकत-ए-हाल-औ-दिल-ए-मुज़्तरिबी अपनी जब बयां करता हूं मैं उनसे, वोह चाहे कुछ ना कहें, उनकी खामोशी चुगलखोर बन जाती है जवाब में। खुदा की गफ़्फ़ारी पे यकीन है पर उनको चाहने का गुनाह कर ही लेता हूं, पर लज्ज़त-ए-गुनाह में वोह जन्नती मज़ा कहां नसीब है जो है सवाब में। क़यामत का तो एक दिन मुअय्यन है रोज़-ए-जज़ा में देखो क्या मिलता हैं, मानाकि गुनाहों की फ़ैहरिस्त लम्बी है पर कुछ तो सवाब भी हैं हिसाब में।
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Wednesday, May 25, 2011
नज़म - इश्क-औ-मोहब्बत
ज़िंदगी में सच्चाई की राह पर चलके ही मंज़िलों को हमने पाया है, ज़िंदगी में टेहड़े मेहड़े रास्तों पर भी आसान सफ़र हमने सुझाया है। इस शिद्दत से तुमको चाहा है, अपने सिर आंखों पर हमने बिठाया है, अपना खुदा तुमको माना है, प्रस्तिश के लिए शीश हमने झुकाया है। पत्थर के मानिंद सख्त सही लेकिन हममें दरिया जैसी रवानी भी है, हमारे साथ चलकर तो देखो, चट्टानों में भी रास्ता हमने बनाया है। तन्हाइयां नाखुश रही हैं हमेशा और कोसों दूर हमसे भागती रही हैं, इस कदर खुश मिजाज़ हैं हम, जंगल में भी मंगल हमने सजाया है। ज़मीं-औ-आसमां, चांद-औ-तारे, सब का बस हमसे एक ही पैग़ाम है, कायम रहे इश्क मोहब्बत, इश्क मोहब्बत को खुदा हमने मनाया है।
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नज़म - आप-औ-हम
हमारी ज़िंदगी के हासिल में जब कभी भी आते हो आप, हमारे लिए बहारों और जन्नत के पैग़ाम ही लाते हो आप। आपकी चूड़ियों की खनक से तो बाखुदा हम खूब वाकिफ़ हैं, चूड़ियों अपनी को छनका के हमें सराबोर कर जाते हो आप। आपके प्रेम भरे गीतों की रसीली तान तो हमें मधुर लगती है, अपने प्यारे गीतों से हमारे कानों में रस घोल जाते हो आप। तपती दोपहर में सूर्य की गर्म धूप से जब हम छटपटा उठते हैं, तो अपनी परेशां ज़ुल्फ़ों की नर्म छांव हमपर डाल जाते हो आप। आप ही बताओ आपकी आंखों से छलके नशे से कैसे बचें हम, अपनी नशीली आंखों से नशा तो बारहा छलकाए जाते हो आप।
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नज़म - तड़प
भूख और प्यास की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है, हालात की मुश्किल दुखद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। बहुत आसां होता है किसी पर तानाज़न होना, किसी पर तज़करा करना, गैरों की खुशहाली से हसद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। अपनी बढ़तरी स्थापित करने को औरों को एहसास-ए-कमतरी मत दो, आल्लाह-ज़र्फ़ी की ललक जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। लड़ना हकूक के लिए जायज़ है मग़र जम्हूरियत में यह फ़रमान भी है, हासिल-ए-हक की तलब जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। हिंदु, मुस्लिम, सिख या ईसाई, किसी भी दीन से हो, क्या फ़र्क पढ़ता है, भगवान को पाने की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।
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नज़म - माशरा
शेर तो बहुत कहते हो, जोड़कर उनको खूबसूरत नज़म इक बना, छोटे छोटे तिनकों को चुन और उनसे खूबसूरत घोंसला इक बना। बहुत आसान होता है ईंट-औ-पत्थर को जोड़ मकान एक बना देना, मकान को रहने लायक बना के आबाद कर खूबसूरत घर इक बना। फ़क्त इधर उधर इक्का दुक्का घर या मकान बनाने से क्या हासिल, बस्तियां बसा और उन्हें एक तरतीब देकर खूबसूरत शहर इक बना। शहर में लोग बस जाएं तो एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी से अंजान क्यों, मिलने जुलने की उनमें आदत डाल, आपसी मेल जोल भी इक बना। जब इक्कठे रहना है तो आपसी मिलने जुलने तक ही सीमित क्यों, हमसायगी का उनमें जज़्बा डाल कर खूबसूरत सा माशरा इक बना।
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नज़म - दूरियां-औ-नज़दीकियां
हमने तो कभी अपनों से शिकवा नहीं किया, कैसे गिला करते किसी बेगाने से, हमने तो चाहा बेगानों को भी अपना लें पर अपना न बन पाया कोई ज़माने से। साथ जब होते हैं तो हक-औ-हकतल्फ़ी के जुमले जुदाई की तरफ़ ले जाते हैं, जुदाई प्यार में ज़हर लगती है, नज़दीकियां मानी-ए-खेज होती हैं दूर जाने से। लम्हे जुदाई के बरदाश्त की हद्दों के पार हो जाएं तो जीना कठिन हो जाता है, एक हसरत जाग उठती है उनसे मिलने की, प्यार बढ़ता है उनके पास आने से। बहुत चाहा, बहुत सोचा किए कि बुला लें हम उनको और मिटा डालें ये दूरियां, यकीं था हमें अपनी सोच पर और अपनी चाहत पर कि मान जाएंगे मनाने से। दूरियां जब सिमटकर नज़दीकियां बन जाएं हैं तो कंवल दिल के खिल उठते हैं, ज़िंदगी जीना सहज हो जाए है सभी का आपस में मिल बैठकर हंसने हंसाने से।
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नज़म - तुम ज़िंदा हो
सांस ले रहे हो और इस सांस लेने को तुम समझते हो कि तुम ज़िंदा हो, सांस लेना तो रिवायत है एक और तुम यह समझते हो कि तुम ज़िंदा हो, ज़िंदा होने की तस्दीक के लिए सांस लेना ही इक सबूत काफ़ी नहीं है - बहुत खलकत ज़िंदा है दुनियां में, क्या हो गया अगर तुम भी ज़िंदा हो। आज के हुकुमरां पल पल तुम्हें यकीं दिलाते हैं कि तुम ज़िंदा हो, और फिर यही हुकुमरां मुंह फेर कर मुस्कुराते हैं कि तुम ज़िंदा हो, ये लोग एक एक कदम पे तुमसे ज़िंदा होने का मुआवज़ा मांगते हैं - उठो और मुंहतोड़ जवाब दो और इनको दिखा दो कि तुम ज़िंदा हो। हर कदम पर जद्द-औ-जहद कर सकते हो तो बोलो कि तुम ज़िंदा हो, एक एक लम्हा मर के मुस्कुरा सकते हो तो बोलो कि तुम ज़िंदा हो, ज़िंदा होना एक बात है, ज़िंदगी की हकीकतों से टकरा लेना और बात - उठो और मोड़ दो रुख हवाओं के और फिर बोलो कि तुम ज़िंदा हो। अना से रिश्ता पाले बैठे हो तुम और समझ रहे हो कि तुम ज़िंदा हो, अना जब छीन लेगी होश-औ-हवास तो कैसे कहोगे कि तुम ज़िंदा हो, अना की आड़ में छुपा ना पाओगे एहसास-ए-कमतरी को तुम कभी - जब अना बरबाद कर देगी तुमको, तब कैसे कहोगे कि तुम ज़िंदा हो। [रिवायत = Ritual] [तस्दीक = Certification] [खलकत = Population] [हुकुमरां = Rulers] [मुआवज़ा = Price] [जद्द-औ-जहद = Struggle] [अना = Ego] [एहसास-ए-कमतरी = Inferiority complex]
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Monday, April 11, 2011
नज़म - सुकून
ज़िंदगी में जब भी तारीकियां आती हैं आपके रुख-ए-रौशन से हमें सुकून मिलता है, ज़िंदगी में जब भी तन्हाई खाती है आपकी रूह-ए-रौनक से हमें सुकून मिलता है। आपकी शोखियां-औ-तब्बसुम तो हमेशा ही अहम रहे हैं हमारे दिल को बहलाने में, आ जाओ, तबीयत अफ़सुर्दा है, आपकी सुर्ख़ी-ए-रुखसार से हमें सुकून मिलता है। आपकी तुनकमिजाज़ियों पर तो हम हमेशा से ही जी जान से निसार होते आए हैं, आ जाओ, दिल हमारा मुज़तरिब है, आपकी अठखेलियों से हमें सुकून मिलता है। आपकी बेबाकी-ए-निगाह-ए-मस्त तो हमेशा से ही हमारी तस्कीन का बाइस रही हैं, आ जाओ, तबीयत बेगाना-ए-अलम है, आपकी बेबाकियों से हमें सुकून मिलता है। आपको तो महारथ हासिल है अपने बदन की महक से हमारे चमन को महकाने की, आ जाओ, हालात-ए-हाज़िरा नाखुशगवार हैं, आपकी खुशबू से हमें सुकून मिलता है।
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नज़म - ग़रीब
मैंने ग़रीब के घर में कभी दीवाली का जशन होते हुए नहीं देखा, त्योहार कोई भी हो ग़रीब का बच्चा भर पेट सोते हुए नहीं देखा। कहर बर्क का भी महज़ ग़रीब के आशियाने पर ही बरपा होता है, मैंने बर्क को कभी भी कोई पक्का मकान जलाते हुए नहीं देखा। रुआब घटा का भी फ़क्त ग़रीब के छप्पड़ पर ही नाज़िल होता है, मैंने घटा को कभी भी कोई पक्का मकान बहाते हुए नहीं देखा। फ़रिश्ते उतरते हैं जब जन्नत से तो पूरा लश्कर साथ ही होता है, मैंने किसी फ़रिश्ते को किसी ग़रीब के घर में आते हुए नहीं देखा। खुशी के सब हसीन लम्हे फ़क्त अमीर के खाते में ही लिखे होते हैं, खुशी का खुशगवार झोंका मैंने ग़रीब के घर आते हुए नहीं देखा। खुशी मिलती है ग़रीब को तो फ़क्त पल दो पल का साथ होता है, ग़म जो सुबह आता है तो मैने उसे शाम को जाते हुए नहीं देखा। मुफ़लिसी को भी खुदा की रज़ा मानकर वोह उसमें शाकिर होता है, मैंने कभी किसी मुफ़लिस को किसी को बददुआ देते हुए नहीं देखा।
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Saturday, March 19, 2011
नज़म - गौड, खुदा, रब्ब, भगवान
हर जगह पर आशियाने उसी का है, इक इक ज़र्रे में ठिकाना उसी का है। हर शाम को रंगीन जिसने कर दिया, सुबह दम मंज़र सुहाना उसी का है। हर खास-औ-आम का राज़दां वोह है, हर किसी के साथ दोस्ताना उसी का है। तयशुदा है कि साहिब-ए-कायनात है वोह, यह मंज़र, यह नज़ारा, सब उसी का है। सभी का तो है वोह गौड, खुदा, रब्ब, भगवान, जायज़ नहीं किसी का भी दावा कि वोह उसका है।
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Tuesday, March 8, 2011
नज़म - इल्म और उसूल
आया जो मैं तेरे शहर में तो मैं परेशां हो गया, मंज़र यहां का देख कर मैं तो पशेमां हो गया। आलिम तलाश में है इल्म के असली हकदार की, किसे दे इल्म, आलिम यह सोचकर हैरां हो गया। इल्म का वारिस नहीं तो तख़्लीक-ए-उसूल क्या, शहर का हर एक बे-उसूल शख़्स हुकुमरां हो गया। इल्म-औ-उसूल नहीं, तो ज़मीर का वजूद क्या, ज़मीर शहर में इल्म-औ-उसूल पर कुर्बां हो गया। पारसाई कहां खो गई, सब पारसा कहां ग़ुम हो गए, पारसाई का हरेक दावेदार तेरे शहर में बेईमां हो गया। मेरे मौला, सब मुंतज़िर हैं यहां तेरे रहम-औ-करम के, तेरा हर फ़रज़ंद इस शहर में बेनाम-औ-बेनिशां हो गया।
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नज़म - ज़मीर
सो रहा है क्यों यह तुम्हारा ज़मीर, उसको जगाओ, अरे भाई, पानी के छींटे मारो उस पे, उसको उठाओ। यह सो गया तो सो जाएगी हर वोह शय जो हक है, सोने ना दो उसे, चिमटी काटो, होश में उसको लाओ। सोया रहा सदियों से चाहे पर अब ना सोने दो उसे, एक बार फिर से शहीदों के अफ़साने उसको सुनाओ। फ़िरंगियों से आज़ाद हो गए तो क्या गनीमत हो गई, अपने मुल्क में ही ग़ुलाम हैं, यह याद उसको दिलाओ।
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Saturday, March 5, 2011
नज़म - दावा-ए-हकीकी
अपने दिल के किसी कोने में हमें एक बार जगह दे करके तो देखो, कैसे छा जाते हैं हम आप की ज़िंदगी में, एक बार ये करके तो देखो। फिर देखिए, आपकी आंखों में कैसे तस्सवुर की मानिंद बस जाएंगे हम, यह तो दावा-ए-हकीकी है हमारा, एक बार आंखें मिला करके तो देखो। किसी भी बात को नज़र के एक इशारे में समझने का हुनर रखते हैं हम, और बात को पोशीदा रखने की तौफ़ीक, एक बार यकीन करके तो देखो। यह आपको कोई ख्वाब नहीं दिखा रहे हैं हम, हकीकत आशना हैं हम, वादे हम करते हैं तो सीना ठोक कर, एक बार वादा ले करके तो देखो। कच्ची दीवार के जैसे नहीं कि एक ही ठोकर लगने से गिर जाएंगे हम, बुनियाद की तरह पैठ जाते हैं, एक बार हमको आजमा करके तो देखो।
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Sunday, February 13, 2011
नज़म - ज़मीन पे फ़िरदौस
तमन्ना यही है दिल में अपने कि उतार लाएं ज़मीन पे फ़िरदौस एक, चार सू खुशियों का आलम हो और बन जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। नज़र-ए-इनायत हो उसकी और हर नियामत मयस्सर हो यहीं पर, इंसां रहे पल पल उसी की बंदगी में पा जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। ना हों बंदिशें मज़हब की और ना ही हों मसाइल दुन्यावी रिवायतों के, फ़रिश्ते खुद उतरें अर्श से और देखने आएं ज़मीन पे फ़िरदौस एक। खुलासा जन्नत का फ़क्त दो अलफ़ाज़ में ही बयां करना हो मुमकिन, "आपसी मेल-जोल" कायम रहे और बन जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। मौजूद हो इस ज़िंदगी में फ़क्त "जियो और जीने दो" का फ़ल्सफ़ा, यही अगर लोग समझ जाएं तो उतर आए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। आसमान से खुद खुदा देखे अपनी कायनात पर जन्नत के नज़ारे, करके बारिश अपनी रहमतों की दिखाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।
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Tuesday, February 8, 2011
कविता - काला चश्मा
देश की राजधानी में बाँब ब्लास्ट, इतने मरे, इतने घायल, ऐसा तो होता ही रहेगा, किसी डिज़ास्टर पंडित ने कहा था। "मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे बसंती चोला", क्या यह वही देश है जिसके लिए भगत ने कहा था। "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, दिल में है", क्या यह वही देश है जिसके लिए भगत ने कहा था। "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती", क्या यह वही देश है जिसके लिए भारत ने कहा था। "है प्रीत जहां की रीत सदा मैं गीत वहां के गाता हूं", क्या यह वही देश है जिसके लिए भारत ने कहा था। हां, यह वही देश है, तोड़ दो इन दरिंदों के काले चश्मे को, फिर खुद कहोगे जो भगत ने कहा था और भारत ने कहा था।
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Monday, January 10, 2011
नज़म - काला हाशिया
किसी भाई लोगों का वोह भाई है या फिर किसी नेता का जमाई है, पर फ़र्क क्या पड़ता है इस से, दहशतगर्दों की कोई जात नहीं होती। बस्तियां जलाना इनका पेशा, भाई को भाई से लड़ाना फ़ितरत इनकी, दहशतगर्दी इनके मज़हब, अलावा इसके इनकी कोई औकात नहीं होती। खूंरेज़ी जारी तो है इनकी लेकिन कब तक, कोई तो इंतेहा मुकरर होगी, तश्शदुद-औ-शोलानवाई शोबा इनका, जिसके दिन और रात नहीं होती। पर जब नेस्तनाबूद हो जाएंगे तो दो गज़ ज़मीन भी इनको नसीब ना होगी, गुनाह जो हद्द से गुज़र जाते हैं तो इनके नताइज से निजात नहीं होती। भुला दोगे जो दिलों से मोहब्बत के निसाब तो पाओगे क्या रोज़-ए-जज़ा, प्यार, मोहब्बत, इमान और वफ़ा से बढ़ कर कोई और सौगात नहीं होती।
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Wednesday, January 5, 2011
नज़म - तलख़ ज़ुबानी
हमारी ज़ुबान-ए-तलख़ को आप ऐसे हिकारत की नज़र से मत देखो, जनाब-ए-वाला, ज़माने की तल्ख़ी-ए-तश्शदुद-औ-खूंरेज़ी को भी देखो। गुस्सा हालात पर जब भी कभी आता है मुझे तो पी जाता हूं उसे मैं, मेरे चेहरे की बदलती रंगत पर ना जाओ, दिल के मलाल को भी देखो। लोग तो अमूमन अच्छे होते हैं पर गर्दिश-ए-दौरां उनको मार देती है, उनके हस्बा-ए-हाल को दरकिनार करके उम्र-ए-गुजश्तां को भी देखो। अख़्लाक, जज़्बात और खुलूस फ़क्त खोखले अल्फ़ाज़ बनके रह गए हैं, सिर्फ़ एक ही मय्यार अब रह गया है ज़माने में "रुतबा देखो, जेब देखो"। कायम ज़माने की तल्खियों का इसी तरह कयाम रहेगा दौर-ए-खिर्द में, तो मेरी तलख़ ज़ुबानी को तो आप महज़ हस्बा-ए-मामूल की मानिंद देखो।
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