साक़िया, मैकदे के एक पहुंचे हुए रिंद का तूने तो ग़ुरूर ही तोड़ दिया, बेसुध होकर कहीं गिर ना जाए, तूने उसका जाम खाली ही छोड़ दिया। इस ज़माने में पैमां टूटते हुए तो हम रोज़ाना ही देखते आए हैं लेकिन, आज तो, यकीनन, तूने हद्द ही मुका दी, उसका पैमाना ही तोड़ दिया। तुझे इससे फर्क भी क्या पड़ता है, चार जाएंगे, चार और चले आएंगे, तेरी महफ़िल तो सूनी ना होगी मग़र तूने तो उससे मुहं ही मोड़ लिया। कितना ग़लत ग़ुमान रखता आया था, साक़िया, तुझपर तेरा यह रिंद, चश्म-ए-साक़ी से ही पीता रहा था, तूने तो उसका दिल ही तोड़ दिया। किस किस की बातें सुनता और किस किस की जुबां पर ताले लगाता, कल तक जो जाता था तेरी बजम से, आज उसने जहां ही छोड़ दिया।
Saturday, June 11, 2011
नज़म - साकी-औ-रिंद
Labels: नज़म at 5:46:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment