Followers

Tuesday, June 21, 2011

गज़ल - गज़ल

नींद छीन लेते हो आंखों से और फिर तुम ख्वाबों की बात करते हो,
एक बूंद भी मय की मयस्सर नहीं, तुम शराबों की बात करते हो,
निभाना दस्तूर-ए-दुनियां को भी शामिल कर लो अपनी ज़िंदगी में -
हस्बा-ए-मामूल है आपसी मिलना, तुम हिजाबों की बात करते हो।

एक ही आफ़ताब से रौशनी है, तुम किन आफ़ताबों की बात करते हो, 
महताब इक मेरे घर में भी है, तुम कौन से महताबों की बात करते हो,
अपने बुज़ुर्गों की हर रिवायत जज़्ब है मेरे खून के इक इक कतरे में -
यह आज तुम किन अलहदा रिवायतों वाली किताबों की बात करते हो।

उनके इंकार में इकरार भी शामिल है, क्यों फिर जवाबों की बात करते हो,
हकीकत-ए-ज़माना को दरगुज़र कर के क्यों तुम निसाबों की बात करते हो,
मौजूद है ज़माने भर की तमाम खुशियां जब तुम्हारे मौजूदा मुकाम में ही -
हर शय हसीन है तुम्हारे इर्द गिर्द ही क्यों फिर सराबों की बात करते हो।

[मयस्सर = Available] हस्बा-ए-मामूल = Day to day routine] [हिजाब = Veil] 
[ज़र्रा = Sand particles] [आफ़ताब = Sun] [महताब = Moon]  [रिवायत = Rituals]
[दरगुज़र = Forget] [निसाब = History] [सराब = Mirage]

No comments: