तूफ़ान से रहम की गुज़ारिश करते हो तुम, बहुत नादान हो तुम, यह क्या करते हो तुम, जीने के लिए तूफ़ां का मुकाबिला करो ना - क्यों अपने मरने का सामान करते हो तुम। यूं तो मोहब्बत के नाम पर आहें भरते हो तुम, इज़हार-ए-मोहब्बत से फिर क्यों डरते हो तुम, और इज़हार-ए-हाल-ए-दिल में यह देरी क्यों - आज ही करो ना, कल पर क्यों रखते हो तुम। उम्र-ए-हयात कुछ ऐसे बसर करते हो तुम, जैसे हर्फ़-ए-ज़ीस्त पर सही करते हो तुम, यह जानते हुए कि पल की खबर नहीं है - सामान सौ बरस का मुहैय्या करते हो तुम।
Wednesday, October 5, 2011
गज़ल - गज़ल
Labels: ग़ज़ल at 3:39:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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