हमने तो कभी अपनों से शिकवा नहीं किया, कैसे गिला करते किसी बेगाने से, हमने तो चाहा बेगानों को भी अपना लें पर अपना न बन पाया कोई ज़माने से। साथ जब होते हैं तो हक-औ-हकतल्फ़ी के जुमले जुदाई की तरफ़ ले जाते हैं, जुदाई प्यार में ज़हर लगती है, नज़दीकियां मानी-ए-खेज होती हैं दूर जाने से। लम्हे जुदाई के बरदाश्त की हद्दों के पार हो जाएं तो जीना कठिन हो जाता है, एक हसरत जाग उठती है उनसे मिलने की, प्यार बढ़ता है उनके पास आने से। बहुत चाहा, बहुत सोचा किए कि बुला लें हम उनको और मिटा डालें ये दूरियां, यकीं था हमें अपनी सोच पर और अपनी चाहत पर कि मान जाएंगे मनाने से। दूरियां जब सिमटकर नज़दीकियां बन जाएं हैं तो कंवल दिल के खिल उठते हैं, ज़िंदगी जीना सहज हो जाए है सभी का आपस में मिल बैठकर हंसने हंसाने से।
Wednesday, May 25, 2011
नज़म - दूरियां-औ-नज़दीकियां
Labels: नज़म at 10:21:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment