चैन की नींद जो सो रहा था मैं ओढ़े कफ़न मैं अपने मजार में, शोर जो कुछ सुना मैंने तो बैठ गया उठ के मैं अपने मजार में, शोर-औ-गुल और शहर-ए-खामोशां में, आखिर माजरा क्या है यह - तकरीर हो रही थी, कायम रहे अमन और चैन शहर-ए-मजार में। तमाम उम्र चैन से तुमने सोने ना दिया अपनी खोखली तकरीरों से, और ना ही अब सोने दे रहे हो कब्र में अपनी खोखली तकरीरों से, तुम नेता हो तो संसद में जाओ और करो तकरीरें जितनी चाहो तुम - क्या दे सकोगे शहर-ए-खामोशां में हमें अपनी खोखली तकरीरों से। फ़क्त आदमखोर ही आदमखोर बसते हैं तुम्हारे इस फ़रेबी जहां में, हर एक बस्ती के गोशे गोशे को छानकर देख लिया फ़रेबी जहां में, इनकी सफ़ेदपोशी पर न जाओ, स्याह दिलों में भी झांक कर देखो - इसीलिए आशियाना बनाए बैठे हैं कब्रिस्तान में इस फ़रेबी जहां में।
Wednesday, October 5, 2011
नज़म - शहर-ए-खमोशां
Labels: नज़म at 3:42:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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