"कैसे हैं आप" लोग अमूमन यह सवाल हमसे करते हैं, "बस वक्त गुज़ार रहे हैं", यही हम अमूमन कह देते हैं, कुछ अजीब सा हो गया है वक्त गुज़ारने का सिलसिला - दिन गुज़र जाते हैं रोज़गार में, रातें नहीं काट पाते हैं। कहने को तूल-ए-ज़िंदगी के सिर्फ़ चार ही दिन बताते हैं, पर ये चार दिन भी काटने में सालों साल गुज़र जाते हैं, ज़िंदगी रोज़मर्रा के ढर्रे पर कुछ ऐसे निकल जाती है कि - कुछ तो मर मर के जीते हैं, कुछ जीते जी मर जाते हैं। यदि नहीं पीते हैं तो खौफ़-ए-हकीकत-ए-हाज़िरा सताते हैं, और अगर पीते हैं तो ग़म-ए-ज़िंदगी ज़हन पर छा जाते हैं, पीने और ना पीने की भी अजीब सी कशमकश है ज़िंदगी में - पीकर तो हम होश में रहते हैं और बिन पिए बहक जाते हैं।
Saturday, October 8, 2011
नज़म - हकीकत-ए-हाज़िरा
Labels: नज़म at 4:51:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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