भूख और प्यास की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है, हालात की मुश्किल दुखद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। बहुत आसां होता है किसी पर तानाज़न होना, किसी पर तज़करा करना, गैरों की खुशहाली से हसद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। अपनी बढ़तरी स्थापित करने को औरों को एहसास-ए-कमतरी मत दो, आल्लाह-ज़र्फ़ी की ललक जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। लड़ना हकूक के लिए जायज़ है मग़र जम्हूरियत में यह फ़रमान भी है, हासिल-ए-हक की तलब जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है। हिंदु, मुस्लिम, सिख या ईसाई, किसी भी दीन से हो, क्या फ़र्क पढ़ता है, भगवान को पाने की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।
Wednesday, May 25, 2011
नज़म - तड़प
Labels: नज़म at 10:30:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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