हमारी ज़ुबान-ए-तलख़ को आप ऐसे हिकारत की नज़र से मत देखो, जनाब-ए-वाला, ज़माने की तल्ख़ी-ए-तश्शदुद-औ-खूंरेज़ी को भी देखो। गुस्सा हालात पर जब भी कभी आता है मुझे तो पी जाता हूं उसे मैं, मेरे चेहरे की बदलती रंगत पर ना जाओ, दिल के मलाल को भी देखो। लोग तो अमूमन अच्छे होते हैं पर गर्दिश-ए-दौरां उनको मार देती है, उनके हस्बा-ए-हाल को दरकिनार करके उम्र-ए-गुजश्तां को भी देखो। अख़्लाक, जज़्बात और खुलूस फ़क्त खोखले अल्फ़ाज़ बनके रह गए हैं, सिर्फ़ एक ही मय्यार अब रह गया है ज़माने में "रुतबा देखो, जेब देखो"। कायम ज़माने की तल्खियों का इसी तरह कयाम रहेगा दौर-ए-खिर्द में, तो मेरी तलख़ ज़ुबानी को तो आप महज़ हस्बा-ए-मामूल की मानिंद देखो।
Wednesday, January 5, 2011
नज़म - तलख़ ज़ुबानी
Labels: नज़म at 8:50:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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