ता-उम्र ग़ुरूर से ऊंचा रहा सर झुक गया आ के मजार में, बुलंद थे जो अर्श पर आ गए वो फ़र्श की सतह पे मजार में, उम्र भर चलने फिरने के बाद आए कब्र तक वोह कांधों पर - ले लिया एहसान लोगों का चंद कदम आने को मजार में। माना कि बहुत एहतराम से लोग आते हैं किसी के मजार में, पर सुबह ही सुबह वो फूल क्यों चढ़ा जाते हैं आ के मजार में, मनों मिट्टी के नीचे तो पहले ही से दबा हुआ होता है आदमी - उसे और क्यों दबा जाते हैं फूलों की चादर चढ़ा के मजार में। हमने माना कि खिराज-ए-अकीदत को जाते हैं लोग मजार में, शाम होते ही चिराग़ क्यों जला के जाते हैं ये लोग मजार में, क्या वो यह नहीं जानते कि तमाम ज़िंदगी की नींदें खो कर - तब जाके वो सुकूं की नींद सो पाता है इंसां अपने मजार में।
Monday, November 14, 2011
नज़म - मजार
Labels: नज़म at 4:22:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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1 comment:
आपको पढना वाकई सुखद अनुभव है
बहुत सुंदर
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