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Tuesday, May 14, 2013

कविता - मुस्कान मेरे नन्हे शौर्य की (Shaurya is my Grandson)

जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है,
तो पत्ता पत्ता लहलहा उठता है, हवा भी गुनगुनाने लगती है,
वातावरण सुरमय हो जाता है, मधुर स्वर गूंजने लगते हैं -
खामोशी भी खिलखिला देती है एवं ठहाके लगाने लगती है।

जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है,
कंवल दिल के खिल उठते हैं, हवा खुशगवार सी लगने लगती है,
संपूर्ण सृष्टि महक उठती है एवं हर तरफ़ एक जादू फैल जाता है -
खामोशी भी खिलखिला देती है और ठहाके लगाने लगती है।

जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है,
बेखुदी हद्द से गुज़र जाती है, आसपास की खबर नहीं रहती है,
श्वास श्वास में एक अनोखा सा, अनूठा सा अनुभव होता है -
खामोशी भी खिलखिला देती है और ठहाके लगाने लगती है।

नजम - सवालिया निशान

खुदा है या नहीं, यह सवाल अक्सर हम उठाते हैं,
बनाकर इस को मौज़ूं नित नई नशिस्त जमाते हैं,
वोह है तो कायनात है, वोह नहीं तो कुछ भी नहीं -
कम-ज़र्फ़ हैं वोह जो यह भी नहीं समझ पाते हैं।

ये सवालिया निशान जो उसके वजूद पर लगाते हैं,
ये सवालिया निशान लेकिन तब कहां चले जाते हैं,
जब हर खुशी का सिला तो हम खुद को दे देते हैं -
और हर हादसे को भगवान की रज़ा हम बताते हैं।

मैंने यह किया, मैंने वोह किया, यही रट लगाते हैं,
देके नाम अना का एहसास-ए-कमतरी को छुपाते हैं,
उसकी बेआवाज़ लाठी बोलती है तो अना खो जाती है -
फिर भागते हैं मंदिर और मस्जिद, रूठे रब्ब को मनाते हैं।

नजम - गीता ज्ञान - कर्म किए जाओ, फल मुझ पर छोड़ दो

मैं अपने हाथ में तकदीर द्वारा लिखित लकीरों का जायज़ा लगाता हूं,
आज तक मैंने ज़िंदगी में क्या खोया, क्या पाया, बही खाता बनाता हूं,
लोग कहते हैं जो तकदीरों में नहीं लिखा होता वोह तदबीरें दिला देती हैं -
तकदीर की बंदिशों में बंधा रह के मैं अपनी तदबीरों में खो जाता हूं।

तकदीर की लकीरों में मैं अपने पूर्व जन्म का बकाया लेके आता हूं,
और तदबीरों की मार्फ़त कर्मभूमि में अपने दांव पेच मैं आजमाता हूं,
यूं भी कहा गया है कि सब कुछ उसी की रज़ा से ही तो मिलता है -
भगवान की रज़ा एवं अपनी कर्म शक्ति के तालमेल को आजमाता हूं।

यह खेल तकदीरों का है या कि तदबीरों का, यहां मैं उलझ जाता हूं,
उसकी रज़ा के मुकाबिले अपनी कार्मिक क्षमता को ना-माकूल पाता हूं,
फिर मुझे रौशनी का एक जज़ीरा "गीता ज्ञान" के रूप में नज़र आता है -
और मैं अपने कर्म क्षेत्र में जुटकर नतीजे को उसकी रज़ा पर छोड़ देता हूं।

Thursday, March 7, 2013

नज़म - शर्म-औ-हया

यह खेल तदबीरों का है या कि मेरे हाथों की लकीरें रंग दिखाती हैं,
रास्ते सभी सहज लगते हैं और मंज़िलें ठीक सामने नज़र आती हैं,
पर कभी कभी मंज़िल तक आके भी हाथ से बाज़ी निकल जाए है -
मज़िलों के मील पत्थर तक पहुंचने में मंज़िलें आगे खिसक जाती हैं।

हसरतें दिल की हसीन नज़ारे उनकी निगाहों से चुराने को जाती हैं,
जैसे ही नज़रें मिलने को होती हैं तो उनकी नज़रें नीची हो जाती हैं,
ये उनके अंदाज़-ए-शर्म-औ-हया हैं या ज़ुल्म-औ-सितम की कोई अदा -
कुछ भी हो हसरतें अपने दिल की तो दिल में ही दफ़न हो जाती हैं।

सवाल किया जब हमने उनसे यही तो लज्जा से वोह नज़रें फेर जाती हैं,
सिर को झुका लेती हैं और ज़ुबान अपनी से कुछ भी नहीं बोल पाती हैं,
ज़ुबान से चाहे वोह कुछ भी ना कहें पर निगाहें सब साफ़ कह देती हैं -
और हम सब समझ जाते हैं, अनकही बातें सब खुद ही बयां हो जाती हैं।

नज़म - तक्मील-ए-ग़ज़ल

लाखों ग़मों को निचोड़कर जो एक लड़ी में पिरो दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
झूठ-औ-सच को समेटकर एक दिलनशीं अंदाज़ दे दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
चार दिन की ज़िंदगी हमें जो मिलती है, उसे कौन समझा है, कौन उसको जाना है -
गुनाह एवं सवाब को मानीखेज अल्फ़ाज़ में ढाल दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

शोख़ नज़रें जो मिल जाती हैं शोख़ नज़रों के संग तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
नज़रों के चार होने के बाद दो दिल मिलते हैं जब तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
पर दिल-ए-बेताब तड़प उठता है जब दर्द से तो बेनूर हो जाती हैं नूर से भरी आंखें -
दिल और आंखों में जब इस कदर तालमेल होता है तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

आंखों से टपके मोती जब रुख्सार पर आ जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
बिना टपके यही मोती जब कल्ब में पहुंच जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
कल्ब में पहुंचकर ये मोती अंगारे बन जाते हैं तो दिल बेचारा तो बिखर जाता है -
जज़्बात अल्फ़ाज़ बनकर कागज़ पे उतर जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

Tuesday, February 19, 2013

नज़म - दोधारी तलवार

ज़िक्र जब भी करोगे अपनी बेबसी का ग़ैरों से, लोग बेवजह अफ़साने बनाएंगे,
तुम क्या समझते हो कि ये दुनियां वाले जज़बा-ए-हमदर्दी से पेश आएंगे,
लोग तो महज़ तमाशबीन होते हैं, हर सू तलाश करते हैं मौका-ए-तानाज़नी -
तवक्को इनसे खैरख्वाही की फ़िज़ूल है, ये तो तुम पर ही उंगलियां उठाएंगे।

मर जाओगे, मिट जाओगे रहनुमाई करते करते, इल्ज़ाम ये तुम्ही पर लगाएंगे,
बिक जाओगे, मुफ़लिसी ज़ेवर बन जाएगी तुम्हारा, बेईमान ये तुम्हें बताएंगे,
वक्त आने पर ये तो बापू को भी नहीं बख्शते, तुम्हारी तो बिसात ही कुछ नहीं है -
जश्न-ए-जीत को मनाना तो इनकी जागीर है, हार में तुम्ही को दोषी ठहराएंगे।

बच के निकल जाओ इनकी शतरंजी चालों से, ना जाने ये क्या कयामत बरपाएंगे,
जीना तो एक तरफ़, मरना भी मुहाल होगा जब इनके ज़ुल्म-औ-सितम रूबरू आएंगे,
तलवार की तो एक तरफ़ धार होती है, बेरहम दुनियां के दोनों तरफ़ धार होती है -
बेरुखी इनकी है कहर के मानिंद, इनकी रहमतों में भी जाती मफ़ाद नज़र आएंगे।

नज़म - डिनर एक ग़रीब का

जाने कैसे आज एक अमीर व्यक्ति ने सोए हुए अपने ज़मीर को जगाया,
एक अत्यंत ही ग़रीब व्यक्ति को अपने घर पर उस ने डिनर पर बुलाया,
स्वयं अपने हाथों से अमीर व्यक्ति ने ग़रीब व्यक्ति का हाथ मुंह धुलवाया,
और एक बहुत बड़े से डाइनिंग टेबल पर अति प्रेम से उस को बिठाया।

छ्त्तीस प्रकार के स्वादिष्‍ट व्यंजनों से उसने अपने दस्तरखान को सजाया,
उस सजे सजाए दस्तरखान को देखकर उस ग़रीब का मन तो भर्माया,
पर रोज़ की आदत के अनुसार उसने रोटी के साथ एक प्याज़ को उठाया,
हर्ष से अत्यंत ही उल्लासित होकर उसने उस डिनर का आनंद उठाया।

भोजन के उपरांत प्रसन्न हो ग़रीब व्यक्ति ने उसे अपनी दुआओं से हर्षाया,
ग़रीब व्यक्ति की भावभीनि मुद्रा देखकर अमीर व्यक्ति का मन तो भर आया,
ग़रीब व्यक्ति को अति संतुष्‍ट पाकर उस में उसको शाह-ए-जहां नज़र आया,
उस ग़रीब के सम्मुख उसने स्वयं को सारी दुनियां में सबसे तुच्छ पाया।

Monday, January 28, 2013

कविता - कारण दामिनी की मृत्यु का

मेरे साथ जो हादसा हो गया, उससे देश की जनता के आक्रोश का तो कोई अंत ना था,
मैं तो स्वयं ही दुःखी थी पर जनता को पीड़ित देख कर मेरी पीड़ा का भी अंत ना था।

जनता की मुजरिमों के लिए मृत्युदंड की मांग तो जायज़ थी पर जनता का यह फैसला,
देश के हुकुमुरानों, कानूनदानों और मुंसिफ़ों के लिए एक गंभीर समस्या से कम ना था।

हालांकि आक्रोश की तो उनमें भी कमी न थी पर मौजूदा कानून में उनके हाथ बंधे थे,
क्योंकि मौजूदा कानून में बलात्कार के जुर्म के लिए मृत्युदंड का कोई प्रावधान ना था।

उनके बंधे हाथ देख मुझे क्रोध भी आ रहा था पर उनके हाल पर रहम भी आ रहा था,
लेकिन अपराधियों को वांछित सज़ा ना मिल पाए यह भी मेरे मन को गवारा ना था।

हालांकि मैंने अपने भाई से स्पष्ट कहा था कि मैं मरना नहीं चाहती, जीना चाहती हूं,
पर बहुत ही सोच समझकर मैंने एक फैसला लिया जो कि मेरे लिए आसान ना था।

मैंने रब्ब से अपने लिए मौत मांग ली और रब्ब नें मेरी मंशा समझकर मान भी ली,
अब हुकुमुरानों, कानूनदानों और मुंसिफ़ों के लिए इंसाफ़ करना कोई मसला ही ना था।

कारण यह कि अब तक वोह बलात्कार को ही मृत्युदंड के तराज़ू में तोलते आ रहे थे,
मेरी मृत्यु से आरोपी क़त्ल के मुजरिम थे, अब उन्हें मृत्युदंड देना मुश्किल ना था।

Wednesday, December 26, 2012

कविता - दामिनी के मुजरिमों की सज़ा

बलात्कार के अपराध के दोषियों लिए मात्र मौत की सज़ा ही उपयुक्त हो सकती है,
इतने जघन्य कृत्य के लिए इसके अतिरिक्त और कोई सज़ा भी क्या हो सकती है,
मग़र मैं एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर रहा हूं जिसपर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है -
इनकी तथाकथित मृत्यु के पश्चात इनकी अस्थियों की क्या नियति हो सकती है?

ये लोग जो कि पूर्णतयः दुष्चरित्र हैं इनकी अस्थियां भी तो पवित्र नहीं हो सकती हैं,
उन्हें समुद्र में प्रवाह करें तो भविष्य में वो सुनामी जैसी विपदा का रूप ले सकती हैं,
उन्हें ज़मीन में गाड़ें तो भविष्य में भूकंप जैसी परिस्थितियों का जन्म हो सकता हैं -
उन्हें वातावरण में विसर्जित करें तो वो सम्पूर्ण वातावरण को दूषित कर सकती हैं।

अगर ऐसा सब कुछ करने से ऐसी अमानवीय परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं,
ऐसी परिस्थितियां जो कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए हानिकारक हो सकती हैं,
तो उचित यही होगा कि मृत्युपरांत इनकी लाशें जंगली जानवरों को सौंप दी जाएं -
मनुष्य जाति की हानि भी ना हो और ये किसी के लिए लाभकारी भी हो सकती हैं।

Wednesday, December 19, 2012

नज़म - जज़्बा-ए-वफ़ा

दोस्ती नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
प्यार पैग़ाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर खुशी में जज़्ब है जज़्बा-ए-वफ़ा -
मोहब्बत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

खुशबू से नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
सतरंग से नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
सात सुरों का संगम है जज़्बा-ए-वफ़ा -
नाम है मौसीकी जज़्बा-ए-वफ़ा का।

ईमान नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
ऐतमाद नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
आदमी का वजूद है जज़्बा-ए-वफ़ा -
अख़्लाक नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

इन्सानियत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
रूहानियत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हकीकतन हर शै में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
कायनात है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

पाकीज़गी से है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
खुलूस से तो है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
पैदा करो तो सही अपने अंदर जज़्बा-ए-वफ़ा -
एहसास से ही तो नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

इनायत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
करम नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर फ़ल्सफ़े का निचोड़ है जज़्बा-ए-वफ़ा -
अकीदत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

रिज़्क नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बरकत में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर एक नायाब शै में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
शान-औ-शौकत में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

गुरूग्रंथ-औ-गीता में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बाइबल नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर इल्म-औ-सुखन में है शुमार जज़्बा-ए-वफ़ा -
कुरान में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

पारसाई में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
राअनाई में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बहुत ही बड़ी जागीर है जज़्बा-ए-वफ़ा -
खुदाई नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

राम और रहीम नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
नानक एवं ईसा में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर पयम्बर के पैग़ाम में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
रब्ब में मौजूद है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

Saturday, December 15, 2012

नज़म - माथे पे त्योरी

जनाब-ए-वाला, आपसे इश्क ही तो किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो,
जनाब-ए-वाला, कोई गुनाह तो नहीं किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

इश्क हो जाए किसी को किसी से, क्या यह कहीं किसी के बस में हुआ करता है,
हमारे भी बस से बाहर था जो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

कौन किसी के काबिल है और कौन किसी के काबिल नहीं है, खुदाई देन है इश्क,
यह खुदाई देन हमें मिली है तो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

इश्क रुतबा, मयार, मज़हब और ज़ातपात कभी नहीं पूछा करता, सिर्फ़ हो जाता है,
हमें भी बस हो गया है इश्क तो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

लगता है कि हमारी बातों से आप मुतमइन हो गए हो जो मंद मंद मुस्कुरा रहे हो,
हमने आपको मुतमइन कर ही दिया है तो फिर आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

नज़म - खून का रिश्ता

कल रास्ते में फ़रीद साहब मिल गए, मिलकर उनको तो मन मेरा हर्षाया,   
मेरे एक दोस्त मेरे साथ थे, उनसे फ़रीद साहब का मैंने मिलाप करवाया,
मैंने दोस्त को बताया कि फ़रीद साहब के साथ तो खून का रिश्ता है मेरा -
मेरे दोस्त हैरान थे कि फ़रीद साहब से खून का रिश्ता मेरा कैसे हो पाया।

मैंने कहा कि ज़माने की रस्मों ने मुझे हिंदु और उन्हें मुसलमां बनाया,
लेकिन उनके इंसानी अख़्लाक ने उनके साथ मेरा खून का रिश्ता बनाया,
कल हस्पताल में जब मैं ज़िंदगी-औ-मौत की जद्द-औ-जहद कर रहा था -
तो फ़रीद साहब ने अपना खून देकर मेरी ज़िंदगी को नया जामा दिलाया।

तख़्लीक-ए-कायनात के दौरान यजदां ने तो सबको फ़क्त इन्सां बनाया,
लेकिन दुन्यावी रिवायतों ने उन्हें हिंदु, सिख, इसाई-औ-मुसलमां बनाया,
तोड़ दो इन मज़हबी दीवारों को और कायम करो सबसे ऐसा एक रिश्ता -
जो परे हो इन रिवायतों-औ-दीवारों से जैसे सहरा में हो इक ग़ुल खिलाया।

Saturday, December 8, 2012

नज़म - मेरी कलम

बहुत रोका, बहुत टोका मैंने अपनी कलम को पर वोह अपनी करनी से बाज़ नहीं आई,
किस्सा-ए-हकीक़त-ए-हाज़िरा को ज़माने में आम करने में उस ने ज़रा भी देर नहीं लगाई,
पूरे का पूरा हर्फ़-ए-अमल वोह फ़र्राटे से लिखती आई और ज़रा भी बुज़दिली नहीं दिखाई,
पर ज़माने मे चोरी, लूट, खसोट, बदमाशी, गुंडागर्दी व दहशतगर्दी मे कोई कमी नहीं आई।

चोर हो, भाई हो या नेता, आपस में सभी एक हैं, यह लिखने में वोह ज़रा भी नहीं घबराई,
इस ज़माने में कोई भी इदारा ले लो, इन सभी कुकृत्यों से अछूता वोह ज़रा भी नहीं पाई,
ज़माने की जुबान पर ताले लगे हैं तो क्या, कलम नें अपनी कथनी में कमी नहीं दिखाई,
जो चोर और पोलीस आपस में हैं भाई भाई, नेता व भाई के रिश्ते में भी कमी नहीं आई।

सुनो, कान खोलकर, सुनो, यह आवाम की ही पुरज़ोर आवाज़ है जो कलम नें है यहीं उठाई,
देखो, आंखें खोलकर, देखो, शीशे में तुम्हारी अपनी ही सूरत है जो कलम नें है यहीं दिखाई,
बोलो, मुहं खोलकर, बोलो, यही तो हकीकत-ए-हाज़िरा है जो कलम नें तुम्हें है यहीं समझाई,
बापू के तीन बंदर ही बनकर मत रह जाओ वरना कहोगे कि तुमने है मुंह की यहीं खाई।

नज़म - आप मिलो तो सही

साथ आपका अगर रहे तो दोंनों जहां हम भुला देंगे, आप मिलो तो सही,
इस जहां के अंदर ही इक नया जहां हम बसा लेंगे, आप मिलो तो सही।

ज़िंदगी के सफ़र में एक हमसफ़र का साथ होना निहायत ही लाज़मी है,
हमसफ़र बन जाओ, आपको दिल में हम सजा लेंगे, आप मिलो तो सही।

आप अगर साथ देने का वादा करो तो फिर इस ज़माने का हमें क्या डर,
तमाम दुनियां की मुखालफ़त झेलकर हम भुला देंगे, आप मिलो तो सही।

वफ़ा परस्ती हमारा शोबा और इकरार-ए-वफ़ा शौक़ आपका तो क्या ग़म,
ग़ैरों से हमें मतलब क्या, एक दूजे से हम निभा लेंगे, आप मिलो तो सही।

सादादिली हमारी तो जगज़ाहिर है, यह एक ही नज़र में आप जान जाओगे, 
आंखों ही आंखों में बात दिल की आपको हम बता देंगे, आप मिलो तो सही।

एक बहुत ही मशहूर कहावत है जग में कि एक हाथ दूसरे हाथ को धोता है,
आप और हम दोनों मिल जाएं तो सब ग़म मिटा देंगे, आप मिलो तो सही।

लबों पर हो आराइश हंसी की और फूलों की मानिंद मुस्कुराहट हो चेहरे पर,
फिर देखो, आपकी खातिर जान तक भी हम लुटा देंगे, आप मिलो तो सही।

नज़म - ईमानदारी के जरासीम

कल एक पुराने दोस्त मिल गए, बेचारे बहुत ही खस्ता हाल में नज़र आते हैं,
हालांकि यह महाशय आयकर कार्यालय में इंस्पैक्टर के ओहदे से जाने जाते हैं,
मैंने कुरेदा, "अरे भाई, यह क्या हालत बना रखी है, आप कुछ लेते क्यों नहीं -
आपके कार्यालय में तो सभी लेते हैं और दोनों हाथों से दौलत समेटे जाते हैं"।

कहने लगे, "बात तो आपकी ठीक है, ये वोह अपनी मजबूरी में करते जाते हैं,
और मैं मजबूर हूं आप अपनी मजबूरी से, मेरे हालात उनसे अलग हो जाते हैं",
मैंने कहा, "तुम्हारे हालात उनसे अलग हो जाते हैं, यह बात कुछ समझा नहीं" -
बोले, "लेने-देने की बात होती है तो मां-बाप द्वारा दिए संस्कार आढ़े आ जाते हैं"।

मैंने कहा, "यह क्या कहते हैं आप? मां-बाप द्वारा दिए संस्कार आढ़े आ जाते हैं,
अरे दोस्त, आयकर कार्यालय में कार्यरत होकर संस्कार आपके आढ़े आ जाते हैं,
आप तो एक अजूबा हो, भाई, आपको देखने के लिए तो टिकट ही लगानी पड़ेगी" -
हंसकर बोले,"मैं क्या करूं, दोस्त, मेरे अंदर ईमानदारी के जरासीम घुस जाते हैं"।

नज़म - रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल

मुद्दतों दुनियां वाले अपने ग़मों को हमारे दिल की पनाह में लाने आए,
देख कर यह कैफियत हमारे अपने भी हम पर अपना हक जमाने आए, 
और जब कभी भी हमने खोल कर रख डाली फ़ैहरिस्त अपने ग़मों की -
तो ग़ैर तो ग़ैर ही रहे, हमारे अपनों के लबों पर भी सौ सौ बहाने आए।

दर्द जब कभी भी हद्द से गुज़र गया, दुनियां वाले हमें और सताने आए,
ताज़ा ज़ख्मों पर मरहम तो छोड़ो, पुराने ज़ख्मों पर नमक लगाने आए,
अपने कातिल की तो इक इक अदा पर कुर्बान जाने को दिल चाहता है –
जो कि खुद ही क़त्ल करके खुद ही रूबरू-ए-ज़माना आंसू बहाने आए। 

जब कभी ज़माने के रूबरू अपनी रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल हम सुनाने आए,
तो हर किसी की जुबां पर फ़क्त अपने ही रंज-औ-ग़म के अफ़साने आए,
यह तो तुम ही एक महरम हो हमारे जो कि हमारे दर्द को बांट लेते हो -
वरना ये ज़माने के लोग तो मौका ब मौका हमारे गम को बढ़ाने आए।

Tuesday, May 22, 2012

नज़म - सच और झूठ

सच क्या है, सच एक हकीकत है, सच सदा हमें सही राह दिखाता है,
झूठ क्या है, झूठ एक छलावा है, झूठ सदा ग़लत राह पर लगाता है।

झूठ का ऐतबार ही क्या है, झूठ तो फ़रेब है शुरुआत से आख़िर तक,
झूठ ऐय्यार है, सौ भेस बदल लेता है, झूठ हमेशा मन को लुभाता है।

झूठ का मन भावन रूप आदमी को इस कदर बहका देता है कि वोह,
झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में नहीं हिचकिचाता है।

सच माना कि कड़वा होता है और आसानी से हज़म नहीं होता है पर,
सच का हमेशा बोलबाला होता है और वोह अपनी छाप छोड़ जाता है। 

सच हर हाल में फ़तेहयाब है, सच तो सच है आग़ाज़ से अंजाम तक,
सच में तो सूरज का नूर समाया हुआ है, सच हमें रौशनी दिखाता है।

झूठ की औकात ही क्या है, वक्ती तौर पर भले ही झूठ जीत जाए पर,
सच और झूठ की लड़ाई में सच के मुकाबिल झूठ टिक नहीं पाता है।

नज़म - पोशीदगी-ए-उल्फ़त

अफ़साने उल्फ़त हमारी के यूं चर्चा में कैसे आ गए, यह आप बेहतर जानते हैं,
हमारे दिल की लगी के बाबत कैसे जान गए लोग, यह आप बेहतर जानते हैं,
दिल की अदल बदल के वक्त हम दोनों ने अहद लिया था एक पोशीदगी का -
पोशीदगी-ए-उल्फ़त के इस अहद को किसने तोड़ा, यह आप बेहतर जानते हैं।

ज़माने की नज़रें तीर की मानिंद हमको छेदती रही, यह आप बेहतर जानते हैं,
हमने सदा अपनी ज़ुबान को सात तालों में बंद रखा, यह आप बेहतर जानते हैं,
हमें हमेशा यही चिंता सताती रही कि कहीं आपका नाम जग ज़ाहिर न हो जाए -
पोशीदगी-ए-उल्फ़त की इस गिरह को किसने खोला, यह आप बेहतर जानते हैं।

पोशीदा बातों को आपने जग ज़ाहिर क्यों होने दिया, यह आप बेहतर जानते हैं,
क्यों मोहब्बत को ऐसे बदनामी का चोगा पहना दिया, यह आप बेहतर जानते हैं,
आपने शायद यही सोचा होगा कि अक्सर बदनामी में भी रास्ते निकल आते हैं -
और इस मसले का भी कोई कारामद हल निकल आए, यह आप बेहतर जानते हैं।

नज़म - फ़सल-ए-गुल

आज घर से निकला था मैं गुलशन से फ़सल-ए-गुल को हासिल करने के लिए,
गुलों की इस फ़सल की दरकार थी मुझे अपनी महबूबा को पेश करने के लिए,
चंद फूल गुलाब के अगर मैं ले भी लूंगा तो गुलशन का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा -
मेरी महबूबा का दिल खिल उठेगा मुझे खुद को उसपर निस्सार करने के लिए।

गुल गुलशन में गुलफ़ाम बने फिरते हैं अपनी खूबसूरती के चर्चे सुनने के लिए,
गुलों का यूं गुलशन में इतराना जायज़ भी है गुलशन की तशहीर करने के लिए,
यह बात गुलों के दिमाग़ में घर कर गई है कि रौनक-ए-दुनियां फक्त इन्हीं से है –                                                       और बुलबुल नें भी इन्हें सर पे चड़ा रखा है खुद को जांनिस्सार करने के लिए।

एक वजह यह भी है मेरे पास गुलों को अपनी महबूबा के रूबरू करने के लिए,
जिस ग़ुरूर में गुल चमन में उड़ते फिरते हैं उस ग़ुरूर को फ़ना करने के लिए,
ताउम्र गुल गुलशन में रहे और अपने से खूबसूरत किसी शै के कभी रूबरू न हुए -
महबूबा के रूबरू लाना लाज़मी था इन्हें इनसे खूबसूरत शै के रूबरू करने के लिए।

नज़म - हमारा प्यार

खुशियों की दौलत तुम्हें मुबारक और ग़मों का खज़ाना हमारा हो,
मुनाफ़े के सब सौदे तुम्हें नसीब और घाटे का हर सौदा हमारा हो,
तुम्हारी खुशियों में जब भी इज़ाफ़ा हो तो महज़ यही दुआ करना -
खुशियां कुछ हमारे हिस्से में भी आ जाएं और ग़मों में खसारा हो।

मोहब्बत में गिले-शिकवे बेमानी होते हैं, मानीखेज प्यार हमारा हो,
रेले ग़म और खुशी के तो फ़ानी होते है, रवां फ़क्त प्यार हमारा हो,
ज़माने की रंगरलियां हों या दुनियावी दौलत, ये सभी वक्ती होते हैं -
बाद फ़ना इश्क के जो किस्से कहानी होते हैं, वैसा प्यार हमारा हो।

प्रीत बनी रहे सभी से और सबके दिल में कायम प्यार हमारा हो,
वैर और द्वैत ना हो किसी से भी और सबके साथ प्यार हमारा हो,
चार दिन की यह ज़िंदगी सबके साथ प्रेम-औ-प्यार से गुज़र जाए -
हर किसी की मोहब्बत का जो भूखा हो, बस वैसा प्यार हमारा हो।

नज़म - रुखसतनामा

चाहा तो यही था हमने कि तल्खियां सारे ज़माने की अपने सीने में भर लेते,
इतनी कूव्वत ही ना थी कि एक हंसते खेलते दिल को हम शोलों से भर लेते,
रोटी रोज़ी के मसलों में यूं उलझे रहे कि अपने पराए की समझ ही नहीं पड़ी -
चलो यह तो अच्छा ही हुआ वरना दुनियां भर के और मसले घर में भर लेते। 

घर छोड़कर निकल तो पड़े हैं, जाने कभी इस जानिब हम फिर रुख कर लेते,
खुदा नें तौफ़ीक़ नहीं दी वरना तस्वीर घर परिवार की हम आंखों में भर लेते,
यह तो खबर ही नहीं है कि अब के बिछड़े फिर कभी हम मिलेंगे भी या नहीं -
वरना नज़ारे इस मुलाक़ात के हम अपने दिल के एक एक कोने में भर लेते।

ज़लज़ला सा एक उतरा तो था आंखों में, आंखों की खुश्की कम कैसे कर लेते,
हस्बा-ए-हाल नें रोने ही ना दिया वरना तो आंखों को हम समंदर से भर लेते,
दिन ढलने को है वक़्त-ए-शाम आने को है, वक़्त-ए-रुखसत किससे मिलना है -
बेमकसद सा सवाल है, बस में होता तो सारी कायनात को आंखों में भर लेते।

नज़म - तेरा नाम - मेरा नाम

साहिल पे गीली रेत पर लिख कर मिटा क्यों देती हो तुम मेरा नाम,
डरती हो इन लहरों से तुम, ये लहरें कभी मिटा नहीं सकती मेरा नाम,
रेत पर लिखा नाम लहरें अगर मिटा भी दें तो इस में परेशानी क्या है -
रेत से मिटने के बाद इन लहरों के आंचल में जुड़ जाता है मेरा नाम।

पुकार के देखो तो सही इन लहरों को, इन लहरों से गूंजेगा मेरा नाम,
जब भी पुकारोगे तुम इन्हें हमेशा याद ये दिलाएंगी तुम्हें मेरा नाम,
इनसे पुराने नाते भी है हमारे, शायद इन्हीं में समाए थे हम पिछ्ले जन्म -
इसीलिए तो आजतक इन लहरों में लिपटा हुआ है तेरा नाम मेरा नाम।

जब से मिला है हमको यह जीवन, जुड़ा हुआ है तेरा नाम मेरा नाम,
जब तलक कायम रहेगा हमारा जीवन, जुड़ा रहेगा तेरा नाम मेरा नाम,
भले ही जुड़े यह जीवन लहरों की डोरी से या जुड़े किसी और डोरी से -
जन्म जन्मांतर के हैं ये बंधन, यूं ही जुड़ा रहेगा तेरा नाम मेरा नाम।

नज़म - इंसान-औ-हैवान

इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है,
इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है,
जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते -
ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है।

शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है,
दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है,
अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका -
अपनी बढ़तरी को उन्हें औरों को एहसास-ए-कमतरी देते हुए भी देखा है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है,
अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है,
जीवन श्‍वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं -
इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।

नज़म - मक्‍तूल का ज़ब्त

मुझे कत्ल करने को आए हैं वोह पर इतना बनसंवर कर किस लिए,
हम तो वैसे ही मर जाते, जनाब, ये आराइश-औ-सजसंवर किस लिए,
आप तो मुस्कुरा कर कत्ल कीजिए और फिर कत्ल करके मुस्कुराइए -
कत्ल करने के मकसद से आए हैं तो अफ़सुर्दगी चेहरे पर किस लिए।

अब खंजर घोंप ही दिया है, मेरी जान ना निकलने का डर किस लिए,
आप इतने परेशान क्यों हैं, यह बदहवासी आपके चेहरे पर किस लिए,
आपने तो भरपूर वार किया है, मुतमइन रहिए, जान तो निकलेगी ही -
यह दूसरे वार की तैयारी क्यों, ये घबराहट आपके चेहरे पर किस लिए।

एक राज़ की बात कह दूं, मेरी जान नहीं निकल रही है मग़र किस लिए,
अभी भी आप मेरे रूबरू हैं, मेरी जान बस अटकी हुई है मग़र इस लिए,
बहुत ज़ब्त है मुझमें, इत्मीनान से जाओ, आप पलटे और जान निकली -
जब तलक आपके दीदार मय्यसर हैं, जान निकलने दूं मग़र किस लिए।

[मक्‍तूल = One who is killed] [ज़ब्त = Patience] [आराइश = Makeup]
[मकसद = Purpose] [अफ़सुर्दगी = Sadness] [खंजर = Dagger]
[बदहवासी = Restlessness] [मुतमइन = Satisfied] [रू-ब-रूü = In front]
[इत्मीनान = Assured] [दीदार = Full view] [मय्यसर = Available]

नज़म - अना के नताइज

अना के चलते मैं तो हमेशा ही ऊंची ऊंची हवाओं में उड़ा करता था,
मेरे घर में एक कमरे के अंदर कोने में एक आइना हुआ करता था,
आइना कभी भी झूठ नहीं बोलता, वोह तो हमेशा सच ही बोलता है -
लिहाज़ा वोह हमेशा मुझको मेरी असली सूरत दिखा दिया करता था।

मैं तो आइने की इस बेजा हरकत पर हमेशा नाराज़ रहा करता था,
पर आइना हमेशा ही मेरी खफ़्गी को नज़रंदाज़ कर दिया करता था,
एक दिन बेइंतेहा गुस्से में आकर मैंने उस आइने को तोड़ ही डाला -
पर टूटे आइने का हर टुकड़ा मुझे हकीकत-ए-हाज़िरा दिखा रहा था।

अना के रहते मेरी सोच में तल्खियों का शुमार भी हुआ करता था,
आज उसी सोच को आइने का हर टुकड़ा हकीकत बयान करता था,
भरम मेरी अना की बेबाकियों का कुछ यूं टूटा आइने के टूटने पर -
कि वजूद मेरी अना का टुकड़े टुकड़े हो मिट्टी में मिला करता था।

Thursday, March 8, 2012

नज़म - मुखौटे

वक्त-ए-हाल में तो हर शख्स अपने चेहरे पे एक मुखौटा पहन के आता है,
अख़लाक-औ-खुलूस से पारसा अल्फ़ाज़ में भी इक स्याहपन झलक जाता है,
इंसानी चेहरा तो महज़ ’टैबुला रासा' होता है, मुखौटा तो इसे शक्ल देता है -
इक मुखौटे में सोज़-ए-दिल अयां होता है तो इक रंग-औ-नूर लेके आता है।

मैं भी कई मुखौटे रखता हूं एवं हर मुखौटा वक्‍त-ए-ज़रूरत काम आता है,
मौके के मुताबिक मुख्तलिफ़ किस्म का इक मुखौटा सदा हाज़िर हो जाता है,
आप फ़रमाइश करके तो देखिए, ज़रूरत के मुताबिक मुखौटा पेश हो जाएगा -
एक बार मुखौटों को जो इस्तेमाल कर लेता है वोह इनका भक्‍त हो जाता है।

इक मुखौटा है ज़बरन सी मुस्कान लिए जो हर एक के दिल को मोह जाता है,
इक मुखौटा है ग़ुरूर से भरपूर जिसको देख कर दिल सभी का दहल जाता है,
हस्बा-ए-मामूल वक्‍ते ज़रूरत मुखौटे बदलना तो एक रिवायत सी होने लगी है -
लीजिए शरारत से भरपूर इक मुखौटा, सबका मन इसी मुखौटे में खो जाता है।

इक मुखौटा है मुर्दनी चेहरे वाला जो अक्सर मातमी मौकों पर ही काम आता है,
इक मुखौटा पुरनूर चेहरा लिए हुए है जो वक्‍त-ए-जश्‍नां ही इस्तेमाल आता है,
हर मुखौटे की अलग अहमियत होती है जो ज़रूरत के अनुसार काम आती है -
पेश है इक मुखौटा रंजो ग़म से चूर, यह दुखी दिल की पहचान सा हो जाता है।

क़त्ल करने के लिए कातिल भी तो इक कातिलाना सा मुखौटा लगाकर के आता है,
और फिर बाद में वोह मासूमियत से भरा इक नया सा मुखौटा लगाकर के आता है,
और भरपूर मासूमियत से वोह एक ही बात कहता है,"इलज़ाम यह मुझ पर क्यों?"
गवाह भले ही मुकर जाएं मग़र आस्तीन के ऊपर का लहु उसकी पोल खोल जाता है|

इक मुखौटा है खुराफ़ाती दिमाग़ वाला, यह 'भाई' लोगों की मिल्कियत हो जाता है,
इक मुखौटा है शराफ़त नकली लिए हुए जो नेता लोगों की धरोहर ही हो जाता है,
वाह साहब वाह, यह हुई ना बात, मुखौटे तो बहुत काम की चीज़ साबित होते हैं -
और देखिए मासूमियत से भरा यह मुखौटा भी, इससे हर दिल पसीज जाता है।

Sunday, January 22, 2012

नज़म - स्वप्न और यथार्थ

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि स्वप्न तो टूटेगा ही -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि तुम तो चले ही जाओगे -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ और स्वप्न को एक सा पाते हैं हम,
स्वप्न के टूटने के डर से डर जाते हैं हम,
यथार्थ का यथार्थ भी कुछ अलग नहीं है -
तुम से बिछुड़ने के डर से डर जाते हैं हम।

Monday, November 14, 2011

नज़म - तुम्हारी आँखें

जुगनुओं की मानिन्द चमक भर जाती हैं मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी आँखें,
रोज़ रोज़ नए नए हसीन रंग भर जाती हैं मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी आँखें,
बस इसी पशोपेस में रहता हूँ कि तुम्हें देखूँ या देखता रहूं  तुम्हारी आँखें,
तुम्हारी पूरी शख्सियत के वजूद का आइना बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|

आँखें फेर लेती हो जब तुम तो सज़ा की मानिंद लगती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                                                              आँखें तिरछी करती हो तुम तो कहर की मानिंद लगती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                                                             आँखें झुकाकर उठा लेती हो तुम तो हमें खतावार बताती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                                                          आँखें उठाकर झुका देती हो तुम तो इक अदा बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|

आँखें झुका लेती हो जब तुम तो हया-औ-सादगी दर्शाती हैं तुम्हारी आँखें, 
आँखें मिलाती हो जब तुम तो जीने की वजह बन जाती हैं तुम्हारी आँखें,
आँखों के झुकाने और उठाने में ही हज़ारों रंग दिखा जाती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                आँखें उठा लेती हो जब तुम तो खुदा की रज़ा बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|

नज़म - मजार


ता-उम्र ग़ुरूर से ऊंचा रहा सर झुक गया आ के मजार में,
बुलंद थे जो अर्श पर आ गए वो फ़र्श की सतह पे मजार में,
उम्र भर चलने फिरने के बाद आए कब्र तक वोह कांधों पर -
ले लिया एहसान लोगों का चंद कदम आने को मजार में।

माना कि बहुत एहतराम से लोग आते हैं किसी के मजार में,
पर सुबह ही सुबह वो फूल क्यों चढ़ा जाते हैं आ के मजार में,
मनों मिट्टी के नीचे तो पहले ही से दबा हुआ होता है आदमी -
उसे और क्यों दबा जाते हैं फूलों की चादर चढ़ा के मजार में।

हमने माना कि खिराज-ए-अकीदत को जाते हैं लोग मजार में,
शाम होते ही चिराग़ क्यों जला के जाते हैं ये लोग मजार में,
क्या वो यह नहीं जानते कि तमाम ज़िंदगी की नींदें खो कर -
तब जाके वो सुकूं की नींद सो पाता है इंसां अपने मजार में।

नज़म - बाद मुद्दत के

बाद मुद्दत के आज उनसे मुलाकात जब हो गई,
ज़ुबां थम सी गई और निगाह बस जम सी गई,
देखा जो उन्हें मैंने तो फिर देखता ही रह गया -
लब तो सिल से गए, धड़कनें कुछ रुक सी गई।

यूं लगा कि मेरी वीरां ज़िंदगी में बहार सी आ गई,
यूं लगा कि इन खामोश तारों में झंकार सी आ गई,
छलकती आंखों से जो मैंने पी तो पीता ही रह गया -
यूं लगा कि लबों पे ये तिशनगी बेशुमार ही आ गई।

बेनूर मेरी ज़िंदगी पुरनूर हो गई रौशनी सी छा गई,
माहौल सुरमय हो गया, हरसु इक खुमारी सी छा गई,
मुकद्दर यूं बदलेगा, मंत्रमुग्ध हो मैं सोचता ही रह गया -
मेरे घर में मुझे ऐसा लगा कि खुदा की खुदाई छा गई।

Saturday, October 8, 2011

नज़म - मुकद्दमा-ए-कत्ल

कत्ल तुमने हमारा किया, तुम कातिल और मक्‍तूल हम हो गए,
दुन्यावी अदालत में तो गवाहों के बयानात पर बरी तुम हो गए,
मग़र दावा-ए-कत्ल नालिश हुआ तुम पे जब खुदा की अदालत में -
यूं तो हम साफ़ मुकर गए पर ग़लत बयानी के मुजरिम हम हो गए। 

दायर हुआ हमपर मुकद्दमा झूठ बोलने का तो मुजरिम हम हो गए,
खुदा की शतरंजी चाल तो देखो, गवाह की हैसियत से पेश तुम हो गए,
सैय्याद अपने जाल में खुद आ गया, सच बोलो तो गुनाह-ए-कत्ल साबित -
और झूठ बोल के बच निकलो तो झूठ बोलने के भी गुनहगार तुम हो गए।

कर लो हासिल इबरत इसी वाक्या से तो हर मंज़िल से पार तुम हो गए,
ऊपर क्या देखते हो, यहीं पर बहिश्त को पाने के हकदार भी तुम हो गए,
खुदा मिल जाएगा यहीं पर, राह-ए-बहिश्त को ढूंढने को क्यों निकले हो तुम -
प्रेम से जियो और औरों को भी जीने दो, हर मुश्किल से आज़ाद तुम हो गए।

नज़म - हकीकत-ए-हाज़िरा

"कैसे हैं आप" लोग अमूमन यह सवाल हमसे करते हैं,
"बस वक्त गुज़ार रहे हैं", यही हम अमूमन कह देते हैं,
कुछ अजीब सा हो गया है वक्त गुज़ारने का सिलसिला -
दिन गुज़र जाते हैं रोज़गार में, रातें नहीं काट पाते हैं।

कहने को तूल-ए-ज़िंदगी के सिर्फ़ चार ही दिन बताते हैं,
पर ये चार दिन भी काटने में सालों साल गुज़र जाते हैं,
ज़िंदगी रोज़मर्रा के ढर्रे पर कुछ ऐसे निकल जाती है कि -
कुछ तो मर मर के जीते हैं, कुछ जीते जी मर जाते हैं।

यदि नहीं पीते हैं तो खौफ़-ए-हकीकत-ए-हाज़िरा सताते हैं,
और अगर पीते हैं तो ग़म-ए-ज़िंदगी ज़हन पर छा जाते हैं,
पीने और ना पीने की भी अजीब सी कशमकश है ज़िंदगी में -
पीकर तो हम होश में रहते हैं और बिन पिए बहक जाते हैं।

Wednesday, October 5, 2011

नज़म - खवाबों की बुनाई

आओ हम दोनों मिल कर आज कुछ कहते हैं और कुछ सुनते हैं,
कुछ हम सुनाएं, सुनो आप और कुछ हम आप की सुनते है,
इसी सुनने सुनाने में जो गुज़र जाए वही वक्‍त बेहतर होता है -
चलो बातों के धागों को आगे बढ़ाकर ख्वाब कुछ हम बुनते हैं।

कितने हसीन होते हैं ये ख्वाब जो हम दोनों मिलकर बुनते हैं,
पर आपको तो खबर ही नहीं कि लोग क्या क्या बातें करते हैं,
खैर, छोड़ो उनकी बातें, उनके पास तो और कोई काम ही नहीं होता -
भूलकर ज़िंदगी की भाग दौड़ को कुछ कदम संग संग चलते हैं।

तमाम उम्र यह जो हम जीते हैं, ख्वाब देखते हैं और बातें करते हैं,
एक दूजे से हम लड़ते हैं और झगड़ते हैं, प्यार मोहब्बत करते है,
सभी कारगुज़ारी में एक ही बात है जो काबिल-ए-ग़ौर है, ता-ज़िंदगी -
यही दौलत हम कमाते हैं एवं यही मिल्कियत हासिल करते हैं।

नज़म - वोह और हम


पहले तो ज़ख़्म-ए-दिल देते हैं वोह, फिर हंस देते हैं,
और उन्हीं ज़ख़्मों को कुरेदते हैं और फिर हंस देते हैं,
अपने ज़ख़्म हरे रखते हैं हम ताकि उनकी तवज्जो रहे -
हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।

पहले जुमलों के तीर छोड़ते हैं वोह, फिर हंस देते हैं,
उन तीरों को बा-असर देखते हैं और फिर हंस देते हैं,
यह जुमले-बाज़ी ऐसे कुछ मुकाम पे पहुंच जाती है कि -
हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।

प्यार के सिलसिले को जीतते हैं वोह, फिर हंस देते हैं,
हमारी हार में अपनी जीत देखके वोह फिर हंस देते हैं,
वजह शायद एहसास-ए-गुनाह-ए-बेनियाज़ी हो उनका कि -
हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।

नज़म - कैंचियां

मेरठ की एक महिला का वहां आना हुआ जहां हम काम करते हैं,
हमने मज़ाक मज़ाक में ही उनसे कह दिया कि लोगों से सुनते हैं,
कि आपके मेरठ शहर की कैंचियां तो बहुत दूर दूर तक मशहूर हैं -
दर्जी तो दर्जी, जेबकतरे तक भी वही कैंचियां ही इस्तेमाल करते हैं।

वोह मुस्कुराकर बोली, "जी जनाब, हम भी तो यही बात सुनते हैं,
और इसमें ग़लत भी क्या है जो वोह उन्हीं का इस्तेमाल करते हैं,
आख़िर क्यों इस्तेमाल ना करें वोह अपने ही शहर की कैंचियों को -
शहर की कैचिय़ां बेहतर हैं सो वोह उन्हीं का ही इस्तेमाल करते हैं।

दर्जियों और जेबकतरों की बात को छोड़िए, लोग तो ऐसा भी कहते हैं,
कि हम महिलाएं भी दिन रात इन कैंचियों का ही इस्तेमाल करते हैं,
असल में हम महिलाएं तो इन कैचियों के चलते फिरते इश्तेहार ही हैं -
हम तो अपनी ज़ुबान का इन कैचियों की तरह ही इस्तेमाल करते हैं"।

कविता - कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट (या रौंग)

काफ़ी समय पहले एक साहब हमारे साथ बैंक में काम करते थे,
नाम तो था शांतिप्रिय पर छवि "एंगरी यंग मैन" वाली रखते थे,
जवान थे और हर ग्राहक से बिना किसी बात झगड़ा कर बैठते थे -
"कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट" बैंक मैनेजर अमूमन उन्हें समझाते थे।

"कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट" सुन सुनकर बेचारे घुटकर रह जाते थे,
एक दिन अचानक उन्होंने त्यागपत्र दे दिया पर बहुत खुश दिख रहे थे,
शायद कोई बेहतर और अच्छे वेतन वाली नौकरी उनको मिल गई थी -
जाते जाते वोह अपने नाम के अनुरूप सबसे खुश होकर मिल रहे थे।

कल एयरपोर्ट पर अचानक वो मिल गए, हमें बहुत तपाक से मिले थे,
हमने उनका हालचाल पूछा और पूछा आजकल वो कहां काम करते थे,
हंसकर बोले आजकल वो वहां हैं जहां "कस्टमर हमेशा रौंग ही होता है" –
मुझे हैरान देखकर बोले, "आजकल वो पोलीस विभाग में काम करते थे"।

नज़म - शहर-ए-खमोशां

चैन की नींद जो सो रहा था मैं ओढ़े कफ़न मैं अपने मजार में,
शोर जो कुछ सुना मैंने तो बैठ गया उठ के मैं अपने मजार में,
शोर-औ-गुल और शहर-ए-खामोशां में, आखिर माजरा क्या है यह -
तकरीर हो रही थी, कायम रहे अमन और चैन शहर-ए-मजार में।

तमाम उम्र चैन से तुमने सोने ना दिया अपनी खोखली तकरीरों से,
और ना ही अब सोने दे रहे हो कब्र में अपनी खोखली तकरीरों से,
तुम नेता हो तो संसद में जाओ और करो तकरीरें जितनी चाहो तुम -
क्या दे सकोगे शहर-ए-खामोशां में हमें अपनी खोखली तकरीरों से।

फ़क्त आदमखोर ही आदमखोर बसते हैं तुम्हारे इस फ़रेबी जहां में,
हर एक बस्ती के गोशे गोशे को छानकर देख लिया फ़रेबी जहां में,
इनकी सफ़ेदपोशी पर न जाओ, स्याह दिलों में भी झांक कर देखो -
इसीलिए आशियाना बनाए बैठे हैं कब्रिस्तान में इस फ़रेबी जहां में।

गज़ल - गज़ल

तूफ़ान से रहम की गुज़ारिश करते हो तुम,
बहुत नादान हो तुम, यह क्या करते हो तुम,
जीने के लिए तूफ़ां का मुकाबिला करो ना -
क्यों अपने मरने का सामान करते हो तुम।

यूं तो मोहब्बत के नाम पर आहें भरते हो तुम,
इज़हार-ए-मोहब्बत से फिर क्यों डरते हो तुम,
और इज़हार-ए-हाल-ए-दिल में यह देरी क्यों -
आज ही करो ना, कल पर क्यों रखते हो तुम।

उम्र-ए-हयात कुछ ऐसे बसर करते हो तुम,
जैसे हर्फ़-ए-ज़ीस्त पर सही करते हो तुम,
यह जानते हुए कि पल की खबर नहीं है -
सामान सौ बरस का मुहैय्या करते हो तुम।

Tuesday, June 21, 2011

गज़ल - गज़ल

नींद छीन लेते हो आंखों से और फिर तुम ख्वाबों की बात करते हो,
एक बूंद भी मय की मयस्सर नहीं, तुम शराबों की बात करते हो,
निभाना दस्तूर-ए-दुनियां को भी शामिल कर लो अपनी ज़िंदगी में -
हस्बा-ए-मामूल है आपसी मिलना, तुम हिजाबों की बात करते हो।

एक ही आफ़ताब से रौशनी है, तुम किन आफ़ताबों की बात करते हो, 
महताब इक मेरे घर में भी है, तुम कौन से महताबों की बात करते हो,
अपने बुज़ुर्गों की हर रिवायत जज़्ब है मेरे खून के इक इक कतरे में -
यह आज तुम किन अलहदा रिवायतों वाली किताबों की बात करते हो।

उनके इंकार में इकरार भी शामिल है, क्यों फिर जवाबों की बात करते हो,
हकीकत-ए-ज़माना को दरगुज़र कर के क्यों तुम निसाबों की बात करते हो,
मौजूद है ज़माने भर की तमाम खुशियां जब तुम्हारे मौजूदा मुकाम में ही -
हर शय हसीन है तुम्हारे इर्द गिर्द ही क्यों फिर सराबों की बात करते हो।

[मयस्सर = Available] हस्बा-ए-मामूल = Day to day routine] [हिजाब = Veil] 
[ज़र्रा = Sand particles] [आफ़ताब = Sun] [महताब = Moon]  [रिवायत = Rituals]
[दरगुज़र = Forget] [निसाब = History] [सराब = Mirage]

Saturday, June 11, 2011

नज़म - मुम्बई ब्लास्ट्स

कल यहां ऐसा एक कोहराम मचा कि हवाएं बिलखने लगी,
मौत ने ऐसा किया कुछ तांडव कि ज़िंदगी सिसकने लगी,
लाशों के टुकड़े उड़े और उड़कर यूं बिखरे इस फ़ज़ा में कि -
माहौल रोया खून के आंसु और इंसानियत तड़पने लगी।

मुल्क को क्या तुमसे यही तव्वको है कि वहशत नाचने लगे,
मुल्क ने क्या तुमको यही दिया है कि हैवानियत हंसने लगे,
जाहिलो, जिस थाली में तुम खाते हो, उसी में छेद करते हो -
मुल्क का मुस्तकबिल क्या होगा जो जूतियों में दाल बंटने लगे।

उठो ग़ैरतमंद इंसानो, जवाब दो कि हैवानियत तड़पने लगे,
उठो नौजवानों, मुकाबिला करो डटकर कि वहशत सिसकने लगे,
कह दो इन दरिंदों को कि खुद भी जिएं औरों को भी जीने दें -
वगरना यूं मुंह की खाएंगे ये कि इनकी रूह भी कांपने लगे।

नज़म - साकी-औ-रिंद

साक़िया, मैकदे के एक पहुंचे हुए रिंद का तूने तो ग़ुरूर ही तोड़ दिया,
बेसुध होकर कहीं गिर ना जाए, तूने उसका जाम खाली ही छोड़ दिया।

इस ज़माने में पैमां टूटते हुए तो हम रोज़ाना ही देखते आए हैं लेकिन,
आज तो, यकीनन, तूने हद्द ही मुका दी, उसका पैमाना ही तोड़ दिया।

तुझे इससे फर्क भी क्या पड़ता है, चार जाएंगे, चार और चले आएंगे,
तेरी महफ़िल तो सूनी ना होगी मग़र तूने तो उससे मुहं ही मोड़ लिया। 

कितना ग़लत ग़ुमान रखता आया था, साक़िया, तुझपर तेरा यह रिंद,
चश्म-ए-साक़ी से ही पीता रहा था, तूने तो उसका दिल ही तोड़ दिया।

किस किस की बातें सुनता और किस किस की जुबां पर ताले लगाता,
कल तक जो जाता था तेरी बजम से, आज उसने जहां ही छोड़ दिया।

कविता - गुनाह-औ-सवाब

आते हैं गुलज़ार में और ढूंढ़ते लगते हैं वोह मुझे ख़ार में औ गुलाब में,
नासमझ हैं, एक बार झांक कर देख तो लेते अपने दिल की किताब में।

दर हक़ीक़त मैं भी एक बंदा हूं खुदा का, उसका कोई मोजज़ा नहीं हूं मैं,  
जाते हैं सहरा में और ढूंढ़ने लगते हैं वोह मुझे सेहरा के फ़रेबी सराब में।

सोते सोते भीनि भीनि सी एक मुस्कान उभर ही आती है उनके लबों पर,
हाल-ए-दिल लाख छुपाएं मग़र हक़ीक़त खुल ही जाती है उनके ख्वाब में।

हकीकत-ए-हाल-औ-दिल-ए-मुज़्तरिबी अपनी जब बयां करता हूं मैं उनसे,
वोह चाहे कुछ ना कहें, उनकी खामोशी चुगलखोर बन जाती है जवाब में।

खुदा की गफ़्फ़ारी पे यकीन है पर उनको चाहने का गुनाह कर ही लेता हूं,
पर लज्ज़त-ए-गुनाह में वोह जन्नती मज़ा कहां नसीब है जो है सवाब में।

क़यामत का तो एक दिन मुअय्यन है रोज़-ए-जज़ा में देखो क्या मिलता हैं,
मानाकि गुनाहों की फ़ैहरिस्त लम्बी है पर कुछ तो सवाब भी हैं हिसाब में।

Wednesday, May 25, 2011

नज़म - इश्क-औ-मोहब्बत

ज़िंदगी में सच्चाई की राह पर चलके ही मंज़िलों को हमने पाया है,
ज़िंदगी में टेहड़े मेहड़े रास्तों पर भी आसान सफ़र हमने सुझाया है।

इस शिद्दत से तुमको चाहा है, अपने सिर आंखों पर हमने बिठाया है,
अपना खुदा तुमको माना है, प्रस्तिश के लिए शीश हमने झुकाया है।

पत्थर के मानिंद सख्त सही लेकिन हममें दरिया जैसी रवानी भी है,
हमारे साथ चलकर तो देखो, चट्टानों में भी रास्ता हमने बनाया है।

तन्हाइयां नाखुश रही हैं हमेशा और कोसों दूर हमसे भागती रही हैं,
इस कदर खुश मिजाज़ हैं हम, जंगल में भी मंगल हमने सजाया है।

ज़मीं-औ-आसमां, चांद-औ-तारे, सब का बस हमसे एक ही पैग़ाम है,
कायम रहे इश्क मोहब्बत, इश्क मोहब्बत को खुदा हमने मनाया है।

नज़म - आप-औ-हम

हमारी ज़िंदगी के हासिल में जब कभी भी आते हो आप,
हमारे लिए बहारों और जन्नत के पैग़ाम ही लाते हो आप।

आपकी चूड़ियों की खनक से तो बाखुदा हम खूब वाकिफ़ हैं,
चूड़ियों अपनी को छनका के हमें सराबोर कर जाते हो आप।

आपके प्रेम भरे गीतों की रसीली तान तो हमें मधुर लगती है,
अपने प्यारे गीतों से हमारे कानों में रस घोल जाते हो आप।

तपती दोपहर में सूर्य की गर्म धूप से जब हम छटपटा उठते हैं,
तो अपनी परेशां ज़ुल्फ़ों की नर्म छांव हमपर डाल जाते हो आप।

आप ही बताओ आपकी आंखों से छलके नशे से कैसे बचें हम,
अपनी नशीली आंखों से नशा तो बारहा छलकाए जाते हो आप।

नज़म - तड़प

भूख और प्यास की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है,
हालात की मुश्किल दुखद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

बहुत आसां होता है किसी पर तानाज़न होना, किसी पर तज़करा करना, 
गैरों की खुशहाली से हसद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

अपनी बढ़तरी स्थापित करने को औरों को एहसास-ए-कमतरी मत दो,
आल्लाह-ज़र्फ़ी की ललक जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

लड़ना हकूक के लिए जायज़ है मग़र जम्हूरियत में यह फ़रमान भी है,
हासिल-ए-हक की तलब जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

हिंदु, मुस्लिम, सिख या ईसाई, किसी भी दीन से हो, क्या फ़र्क पढ़ता है,
भगवान को पाने की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

नज़म - माशरा

शेर तो बहुत कहते हो, जोड़कर उनको खूबसूरत नज़म इक बना,
छोटे छोटे तिनकों को चुन और उनसे खूबसूरत घोंसला इक बना।

बहुत आसान होता है ईंट-औ-पत्थर को जोड़ मकान एक बना देना,
मकान को रहने लायक बना के आबाद कर खूबसूरत घर इक बना।

फ़क्त इधर उधर इक्का दुक्का घर या मकान बनाने से क्या हासिल,
बस्तियां बसा और उन्हें एक तरतीब देकर खूबसूरत शहर इक बना।

शहर में लोग बस जाएं तो एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी से अंजान क्यों,
मिलने जुलने की उनमें आदत डाल, आपसी मेल जोल भी इक बना।

जब इक्कठे रहना है तो आपसी मिलने जुलने तक ही सीमित क्यों,
हमसायगी का उनमें जज़्बा डाल कर खूबसूरत सा माशरा इक बना।

नज़म - दूरियां-औ-नज़दीकियां

हमने तो कभी अपनों से शिकवा नहीं किया, कैसे गिला करते किसी बेगाने से,
हमने तो चाहा बेगानों को भी अपना लें पर अपना न बन पाया कोई ज़माने से।

साथ जब होते हैं तो हक-औ-हकतल्फ़ी के जुमले जुदाई की तरफ़ ले जाते हैं,
जुदाई प्यार में ज़हर लगती है, नज़दीकियां मानी-ए-खेज होती हैं दूर जाने से।

लम्हे जुदाई के बरदाश्त की हद्दों के पार हो जाएं तो जीना कठिन हो जाता है,
एक हसरत जाग उठती है उनसे मिलने की, प्यार बढ़ता है उनके पास आने से।

बहुत चाहा, बहुत सोचा किए कि बुला लें हम उनको और मिटा डालें ये दूरियां,
यकीं था हमें अपनी सोच पर और अपनी चाहत पर कि मान जाएंगे मनाने से।

दूरियां जब सिमटकर नज़दीकियां बन जाएं हैं तो कंवल दिल के खिल उठते हैं,
ज़िंदगी जीना सहज हो जाए है सभी का आपस में मिल बैठकर हंसने हंसाने से।

नज़म - तुम ज़िंदा हो

सांस ले रहे हो और इस सांस लेने को तुम समझते हो कि तुम ज़िंदा हो,
सांस लेना तो रिवायत है एक और तुम यह समझते हो कि तुम ज़िंदा हो,
ज़िंदा होने की तस्दीक के लिए सांस लेना ही इक सबूत काफ़ी नहीं है -
बहुत खलकत ज़िंदा है दुनियां में, क्या हो गया अगर तुम भी ज़िंदा हो।

आज के हुकुमरां पल पल तुम्हें यकीं दिलाते हैं कि तुम ज़िंदा हो,
और फिर यही हुकुमरां मुंह फेर कर मुस्कुराते हैं कि तुम ज़िंदा हो,
ये लोग एक एक कदम पे तुमसे ज़िंदा होने का मुआवज़ा मांगते हैं -
उठो और मुंहतोड़ जवाब दो और इनको दिखा दो कि तुम ज़िंदा हो।

हर कदम पर जद्द-औ-जहद कर सकते हो तो बोलो कि तुम ज़िंदा हो,
एक एक लम्हा मर के मुस्कुरा सकते हो तो बोलो कि तुम ज़िंदा हो,
ज़िंदा होना एक बात है, ज़िंदगी की हकीकतों से टकरा लेना और बात -
उठो और मोड़ दो रुख हवाओं के और फिर बोलो कि तुम ज़िंदा हो।

अना से रिश्ता पाले बैठे हो तुम और समझ रहे हो कि तुम ज़िंदा हो,
अना जब छीन लेगी होश-औ-हवास तो कैसे कहोगे कि तुम ज़िंदा हो,
अना की आड़ में छुपा ना पाओगे एहसास-ए-कमतरी को तुम कभी -
जब अना बरबाद कर देगी तुमको, तब कैसे कहोगे कि तुम ज़िंदा हो।

[रिवायत = Ritual] [तस्दीक = Certification] [खलकत = Population]
[हुकुमरां = Rulers] [मुआवज़ा = Price] [जद्द-औ-जहद = Struggle]
[अना = Ego] [एहसास-ए-कमतरी = Inferiority complex]

Monday, April 11, 2011

नज़म - सुकून

ज़िंदगी में जब भी तारीकियां आती हैं आपके रुख-ए-रौशन से हमें सुकून मिलता है,
ज़िंदगी में जब भी तन्हाई खाती है आपकी रूह-ए-रौनक से हमें सुकून मिलता है।

आपकी शोखियां-औ-तब्बसुम तो हमेशा ही अहम रहे हैं हमारे दिल को बहलाने में,
आ जाओ, तबीयत अफ़सुर्दा है, आपकी सुर्ख़ी-ए-रुखसार से हमें सुकून मिलता है।

आपकी तुनकमिजाज़ियों पर तो हम हमेशा से ही जी जान से निसार होते आए हैं,
आ जाओ, दिल हमारा मुज़तरिब है, आपकी अठखेलियों से हमें सुकून मिलता है।

आपकी बेबाकी-ए-निगाह-ए-मस्त तो हमेशा से ही हमारी तस्कीन का बाइस रही हैं,
आ जाओ, तबीयत बेगाना-ए-अलम है, आपकी बेबाकियों से हमें सुकून मिलता है।

आपको तो महारथ हासिल है अपने बदन की महक से हमारे चमन को महकाने की,
आ जाओ, हालात-ए-हाज़िरा नाखुशगवार हैं, आपकी खुशबू से हमें सुकून मिलता है।

नज़म - ग़रीब

मैंने ग़रीब के घर में कभी दीवाली का जशन होते हुए नहीं देखा,
त्योहार कोई भी हो ग़रीब का बच्चा भर पेट सोते हुए नहीं देखा।

कहर बर्क का भी महज़ ग़रीब के आशियाने पर ही बरपा होता है,
मैंने बर्क को कभी भी कोई पक्का मकान जलाते हुए नहीं देखा।

रुआब घटा का भी फ़क्त ग़रीब के छप्पड़ पर ही नाज़िल होता है,
मैंने घटा को कभी भी कोई पक्का मकान बहाते हुए नहीं देखा।

फ़रिश्ते उतरते हैं जब जन्नत से तो पूरा लश्कर साथ ही होता है,
मैंने किसी फ़रिश्ते को किसी ग़रीब के घर में आते हुए नहीं देखा।

खुशी के सब हसीन लम्हे फ़क्त अमीर के खाते में ही लिखे होते हैं,
खुशी का खुशगवार झोंका मैंने ग़रीब के घर आते हुए नहीं देखा।

खुशी मिलती है ग़रीब को तो फ़क्त पल दो पल का साथ होता है,
ग़म जो सुबह आता है तो मैने उसे शाम को जाते हुए नहीं देखा।

मुफ़लिसी को भी खुदा की रज़ा मानकर वोह उसमें शाकिर होता है,
मैंने कभी किसी मुफ़लिस को किसी को बददुआ देते हुए नहीं देखा।

Saturday, March 19, 2011

नज़म - गौड, खुदा, रब्ब, भगवान

हर जगह पर आशियाने उसी का है,
इक इक ज़र्रे में ठिकाना उसी का है।

हर शाम को रंगीन जिसने कर दिया,
सुबह दम मंज़र सुहाना उसी का है।

हर खास-औ-आम का राज़दां वोह है,
हर किसी के साथ दोस्ताना उसी का है।

तयशुदा है कि साहिब-ए-कायनात है वोह,
यह मंज़र, यह नज़ारा, सब उसी का है।

सभी का तो है वोह गौड, खुदा, रब्ब, भगवान,
जायज़ नहीं किसी का भी दावा कि वोह उसका है।

Tuesday, March 8, 2011

नज़म - इल्म और उसूल

आया जो मैं तेरे शहर में तो मैं परेशां हो गया,
मंज़र यहां का देख कर मैं तो पशेमां हो गया।

आलिम तलाश में है इल्म के असली हकदार की,
किसे दे इल्म, आलिम यह सोचकर हैरां हो गया।

इल्म का वारिस नहीं तो तख़्लीक-ए-उसूल क्या,
शहर का हर एक बे-उसूल शख़्स हुकुमरां हो गया।

इल्म-औ-उसूल नहीं, तो ज़मीर का वजूद क्या,
ज़मीर शहर में इल्म-औ-उसूल पर कुर्बां हो गया।

पारसाई कहां खो गई, सब पारसा कहां ग़ुम हो गए,
पारसाई का हरेक दावेदार तेरे शहर में बेईमां हो गया।

मेरे मौला, सब मुंतज़िर हैं यहां तेरे रहम-औ-करम के,
तेरा हर फ़रज़ंद इस शहर में बेनाम-औ-बेनिशां हो गया।

नज़म - ज़मीर

सो रहा है क्यों यह तुम्हारा ज़मीर, उसको जगाओ,
अरे भाई, पानी के छींटे मारो उस पे, उसको उठाओ।

यह सो गया तो सो जाएगी हर वोह शय जो हक है,
सोने ना दो उसे, चिमटी काटो, होश में उसको लाओ।

सोया रहा सदियों से चाहे पर अब ना सोने दो उसे,
एक बार फिर से शहीदों के अफ़साने उसको सुनाओ।

फ़िरंगियों से आज़ाद हो गए तो क्या गनीमत हो गई,
अपने मुल्क में ही ग़ुलाम हैं, यह याद उसको दिलाओ।

Saturday, March 5, 2011

नज़म - दावा-ए-हकीकी

अपने दिल के किसी कोने में हमें एक बार जगह दे करके तो देखो,
कैसे छा जाते हैं हम आप की ज़िंदगी में, एक बार ये करके तो देखो।

फिर देखिए, आपकी आंखों में कैसे तस्सवुर की मानिंद बस जाएंगे हम,
यह तो दावा-ए-हकीकी है हमारा, एक बार आंखें मिला करके तो देखो।

किसी भी बात को नज़र के एक इशारे में समझने का हुनर रखते हैं हम,
और बात को पोशीदा रखने की तौफ़ीक, एक बार यकीन करके तो देखो।

यह आपको कोई ख्वाब नहीं दिखा रहे हैं हम, हकीकत आशना हैं हम,
वादे हम करते हैं तो सीना ठोक कर, एक बार वादा ले करके तो देखो।

कच्ची दीवार के जैसे नहीं कि एक ही ठोकर लगने से गिर जाएंगे हम,
बुनियाद की तरह पैठ जाते हैं, एक बार हमको आजमा करके तो देखो।

Sunday, February 13, 2011

नज़म - ज़मीन पे फ़िरदौस

तमन्ना यही है दिल में अपने कि उतार लाएं ज़मीन पे फ़िरदौस एक,
चार सू खुशियों का आलम हो और बन जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।

नज़र-ए-इनायत हो उसकी और हर नियामत मयस्सर हो यहीं पर,
इंसां रहे पल पल उसी की बंदगी में पा जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।

ना हों बंदिशें मज़हब की और ना ही हों मसाइल दुन्यावी रिवायतों के,
फ़रिश्ते खुद उतरें अर्श से और देखने आएं ज़मीन पे फ़िरदौस एक।

खुलासा जन्नत का फ़क्त दो अलफ़ाज़ में ही बयां करना हो मुमकिन,
"आपसी मेल-जोल" कायम रहे और बन जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।

मौजूद हो इस ज़िंदगी में फ़क्त "जियो और जीने दो" का फ़ल्सफ़ा,
यही अगर लोग समझ जाएं तो उतर आए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।

आसमान से खुद खुदा देखे अपनी कायनात पर जन्नत के नज़ारे,
करके बारिश अपनी रहमतों की दिखाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।

Tuesday, February 8, 2011

कविता - काला चश्मा

देश की राजधानी में बाँब ब्लास्ट, इतने मरे, इतने घायल,
ऐसा तो होता ही रहेगा, किसी डिज़ास्टर पंडित ने कहा था।

"मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे बसंती चोला",
क्या यह वही देश है जिसके लिए भगत ने कहा था।

"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, दिल में है",
क्या यह वही देश है जिसके लिए भगत ने कहा था।

"मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती",
क्या यह वही देश है जिसके लिए भारत ने कहा था।

"है प्रीत जहां की रीत सदा मैं गीत वहां के गाता हूं",
क्या यह वही देश है जिसके लिए भारत ने कहा था।

हां, यह वही देश है, तोड़ दो इन दरिंदों के काले चश्मे को,
फिर खुद कहोगे जो भगत ने कहा था और भारत ने कहा था।

Monday, January 10, 2011

नज़म - काला हाशिया

किसी भाई लोगों का वोह भाई है या फिर किसी नेता का जमाई है,
पर फ़र्क क्या पड़ता है इस से, दहशतगर्दों की कोई जात नहीं होती।

बस्तियां जलाना इनका पेशा, भाई को भाई से लड़ाना फ़ितरत इनकी,
दहशतगर्दी इनके मज़हब, अलावा इसके इनकी कोई औकात नहीं होती।

खूंरेज़ी जारी तो है इनकी लेकिन कब तक, कोई तो इंतेहा मुकरर होगी,
तश्शदुद-औ-शोलानवाई शोबा इनका, जिसके दिन और रात नहीं होती।

पर जब नेस्तनाबूद हो जाएंगे तो दो गज़ ज़मीन भी इनको नसीब ना होगी,
गुनाह जो हद्द से गुज़र जाते हैं तो इनके नताइज से निजात नहीं होती।

भुला दोगे जो दिलों से मोहब्बत के निसाब तो पाओगे क्या रोज़-ए-जज़ा,
प्यार, मोहब्बत, इमान और वफ़ा से बढ़ कर कोई और सौगात नहीं होती।

Wednesday, January 5, 2011

नज़म - तलख़ ज़ुबानी

हमारी ज़ुबान-ए-तलख़ को आप ऐसे हिकारत की नज़र से मत देखो,
जनाब-ए-वाला, ज़माने की तल्ख़ी-ए-तश्शदुद-औ-खूंरेज़ी को भी देखो।

गुस्सा हालात पर जब भी कभी आता है मुझे तो पी जाता हूं उसे मैं,
मेरे चेहरे की बदलती रंगत पर ना जाओ, दिल के मलाल को भी देखो।

लोग तो अमूमन अच्छे होते हैं पर गर्दिश-ए-दौरां उनको मार देती है,
उनके हस्बा-ए-हाल को दरकिनार करके उम्र-ए-गुजश्तां को भी देखो।

अख़्लाक, जज़्बात और खुलूस फ़क्त खोखले अल्फ़ाज़ बनके रह गए हैं,
सिर्फ़ एक ही मय्यार अब रह गया है ज़माने में "रुतबा देखो, जेब देखो"।

कायम ज़माने की तल्खियों का इसी तरह कयाम रहेगा दौर-ए-खिर्द में,
तो मेरी तलख़ ज़ुबानी को तो आप महज़ हस्बा-ए-मामूल की मानिंद देखो।

Tuesday, November 9, 2010

कविता - नसीब अपना अपना

शोख़-औ-रंगीन पहरन उनको मुबारक, चाक-ए-गरेबां अपना नसीबा,
जहां की रौनकें उनको मुबारक, तीरगी-ए-शब-ए-हिज्रां अपना नसीबा।

गुंचा-ए-गुलों की उनको भरमार, अपने हिस्से में आएं कांटे बेशुमार,
बहारें गुलशनां उनको मुबारक, सूखे पात-ए-खिज़ां अपना नसीबा।

चलें वोह तो सारा जहां चले, जो हम चलें तो साया भी ना साथ हो,
महफ़िल-ए-कहकहां उनको मुबारक, अश्क-ए-फ़रोज़ां अपना नसीबा।

सब करम साकी के उनके नाम, अपने हिस्से में आएं खाली जाम,
बज़्म-ए-चरागां उनको मुबारक, शाम-ए-ज़ुल्मत कदां अपना नसीबा।

खुशियां दोनों जहां की उनको मयस्सर, ग़म-ए-दौरां अपना मुकद्दर,
रंगीनियां ज़माने की उनको मुबारक, अंधेरे तमाम अपना नसीबा।

Sunday, October 31, 2010

नज़म - हमारे रिश्ते

हम हमेशा ही जमा के निशान का इंतेख़ाब करते आए हैं अपने रिश्तों में,
निशां मनफ़ी के तो कभी कहीं ज़िक्र में ही नहीं आए हैं अपने रिश्तों में।

माना कि रिश्तों को मिलाना फ़क्त ऊपर वाले के हाथों में ही होता है पर,
बरकरार ये सिलसिले तो अपने आप ही रखते आए है अपने रिश्तों में।

जब भी मिले हैं सुख हमको ज़िंदगी में, खैरमक्दम किया है हमने उनका,
सुखों का पाना एवं भोगना सदा मज़बूती बनाते आए हैं अपने रिश्तों में।

आंखों से टपके हुए आंसू हमेशा से कारामद साबित हुए राह-ए-ज़िंदगी में,
दुख अश्कों की लड़ी में पिरोए ताकि आंच नहीं आए है अपने रिश्तों में।

समुंदर तो नहीं हैं पर बड़े बड़े तूफ़ानों को अपने सीने में हमने संजोया है,
खुद को हम दो नहीं, एक ही तस्लीम करते आए हैं अपने रिश्तों में।

Monday, October 18, 2010

नज़म - हुस्न-ए-कामिल

जब कभी भी अपने दिल की गहराइयों से हम उन्हें पुकारते हैं,
सुनके फ़रियाद आते हैं वोह तो हम हुस्न-ए-कामिल को निहारते हैं।

ऐसे लगता है जैसे कोई हूर उतर आई हो जन्नत से इस ज़मीं पर,
कंवल खिल उठते हैं दिल के जब उन्हें अपने दिल में हम उतारते हैं।

नज़र उठती है जो उनकी जानिब तो फिर संभल नहीं पाते हैं हम,
गेसु अपने वोह कुछ ऐसे नाज़-औ-अंदाज़ से शानों पर बिखेरते हैं।

ज़ुल्फ़-ए-पेचां की तस्सवुरी में कुछ इस तरह से उलझ जाते हैं हम,
दिल को थाम लेते हैं और उनके काकुल-ए-पेचां को हम संवारते हैं।

उनके काकुल और रुख़सार से बड़कर और जन्नत क्या हो सकती है,
जैसे मिली हो बख्शिश-ए-फ़िर्दौस हमको, कुछ यूं हम इसे गुज़ारते हैं।

नज़म - मेरी कश्ती

दुशमनों ने तो खैर दुशमनी निभाई जो छोड़ दी मंझदार में मेरी कश्ती,
मेरे तो खुद अपने ही ले गए मोड़ कर तूफ़ान की जानिब मेरी कश्ती।

ग़ैर की खातिर कौन अपनी जान जोखिम में डालने की जुर्रत करता है,
किसी ग़ैरों से क्यों गिला करें जबकि मुश्किल ना थी बचानी मेरी कश्ती।

तूफ़ान समुंदर में कुछ यूं उछाले मार रहा था कि उसके तेवर बता रहे थे,
कि खुदा अगर कोई मोजज़ा कर दें तो वोह ही बचा सकते थे मेरी कश्ती।

ऐसे ही मोजज़े के हकदार भी थे हम और खुदा ने मोजज़ा कर भी दिया,
खुदा ने हम पर करम कर दिया उछाल के साहिल की तरफ़ मेरी कश्ती।

ना जाने ऐन वक्त हमारा क्या भूला हुआ सितम नाखुदा को याद आया,
कि रहमत-ए-खुदा को ठुकरा के साहिल पे ही डुबो दी उसने मेरी कश्ती।

नज़म - मेरा माज़ी

मेरा माज़ी तो खज़ाना है एक, मैं इसको बहुत संभाल करके रखता हूं,
हाल में जब जी परेशान होता है तो इसी से दिल लगा के रखता हूं।

मेरे इस खज़ाने में पैबस्त हैं मेरी अनगिनत भूली बिसरी हसीन यादें,
इन हसीन यादों की पूंजी को मैं सात तालों में बंद कर के रखता हूं।

माना कि मेरे माज़ी की इन यादों में शुमार ज़माने की तल्खियां भी हैं,
पर मैं तो इन तल्ख यादों को भी हर घड़ी खुशगवार बना के रखता हूं।

इन खट्टी मीठी यादों से ही तो ज़ाहिर होते हैं ज़िंदगी के दोहरे रुख,
इसलिए मैं हसीन यादों की तिजोरी में तल्खियां भी जमा के रखता हूं।

नज़म - मकसद

हम नहीं हैं वोह जो खुद भी हवाओं के रुख को साथ ले चल पड़ें,
हम तो वोह हैं जो हवाओं के रुख को ही मोड़ने के लिए चल पड़ें।

पहले हम अपने ही घर में खुद को अजनबी सा पाते थे मग़र अब,
ग़ैरों में भी सब अपने से लगते हैं जब उन्हें अपना बनाने चल पडें।

आज का चलन यह है कि एक भाई दूसरे भाई की जान के पीछे है,
ज़रूरी है कि हम लोगों में भाईचारा बढ़ाने के मकसद से चल पड़ें।

कौन अपना है और कौन बेगाना, नादान हैं जो यह सवाल उठाते हैं,
ज़रूरी है कि हम ऐसे लोगों के इन सवालों के जवाब देने चल पडें।

जहां में आकर फ़क्त एक मुसाफ़िर के मानिंद जीना काफ़ी नहीं है,
ज़रूरी है कि हम हर फ़र्द के वक्त-ए-ज़रूरत साथ उसके चल पडें।

नज़म - रहमत-ए-खुदा

धड़कन-ए-दिल थमने को हो लेती हैं जब मुद्दतों उनसे मुलाकात नहीं होती,
जब होती है निगाहें जमने लगती हैं और लब सिल जाते हैं, बात नहीं होती।

ताज का साथ हो और रू-ब-रू चांद हो तो जवानी मदमस्त हो जाती है,
रहमत खुदा की अपने संग होती है, चांदनी रात में बरसात नहीं होती।

मुश्तहिर कर दो इन सब दानिशवरों में कि आज आ जाएं हमारे मुकाबिल,
इश्क-औ-मोहब्बत हैं अपने मज़हब, अपने दिन तो होते हैं रात नहीं होती।

कायम करो दिल में कयाम-ए-मोहब्बत और जीत लो नेमतें दोनों जहां की,
ऐतमाद, अख़लाक, खुलूस, इल्म-औ-सुखन से बढ़कर कोई सौगात नहीं होती।

नज़म - मुख़्तसर सा सफ़र ज़िन्दगी का

जब कभी भी किसी भी जगह पर अज़ान पढ़ने की रसम होती है,
बतौर-ए-दस्तूर उस जगह पर नमाज़ पढ़ने की भी रसम होती है।

फ़ज्र, ज़ोहर, असर, मग़रिब या इशा, नमाज़ भले ही कोई भी रहे,
हर वक्त की नमाज़ से पहले अज़ान के पढ़ने की भी रसम होती है।

एक दस्तूर है नए जन्मे बच्चे के कान में अज़ान को पढ़े जाने का,
लेकिन एक इसी अज़ान के बाद नमाज़ ना पढ़ने की रसम होती है।   

वक्त-ए-रुखसत नमाज़-ए-जनाज़ा को पढ़ना तो लाज़मी होता ही है,
मग़र इस एक नमाज़ से पहले अज़ान ना पढ़ने की रसम होती है।

अज़ान से लेकर नमाज़ तक मुख़्तसर सा सफ़र है ज़िन्दगी का,
शुरू में अज़ान एवं आखिरी वक्त नमाज़ पढ़ने की रसम होती है।

नज़म - दोस्त और उनकी दोस्ती

दोस्तों का हर सितम हम गवारा कर ही लेंगे,
जो बर्दाश्त के काबिल ना होगा तो सह ही लेंगे।

दोस्त बेवफ़ाई पर ही उतर आएं तो क्या हासिल,
दोस्ती निबाही है तो बेवफ़ाई भी निभा ही लेंगे।

उम्र भर निबाहने का दम भरने वाले ये दोस्त,
ज़हर जो पिलाने आए हैं तो वोह भी पी ही लेंगे।

दोस्तों की दोस्ती के बिना जीना मुश्किल होगा,
अगर यूं भी जीना पड़ेगा तो हम जी ही लेंगे।

मेरे मौला दोस्तों की दुशमनी से हमें बचाओ,
दुशमनों को दोस्त बनाकर हम निभा ही लेंगे।

नज़म - दिल-औ-दिमाग़

दिल-औ-दिमाग़ में जब कभी भी किसी मुद्दे पर जद्द-औ-जहद होती है,
दिमाग़ क्योंकि माहिर है अय्यारी में, हर नुक्ते पर नज़र उसकी होती है।

लेकिन दिल तो सिर्फ़ एक खुशगवार नतीजे का ही ख्वाहिशमंद होता है,
अब इसे सही कहो या ग़लत, उसकी सोच तो बस एक तरफ़ा ही होती है।

सब ज़र्ब और तक्सीम दिमाग़ की दिल को नागवार गुज़रने लगती है,
लिहाज़ा दिमाग़ के हाथ खड़े हो जाते हैं और जीत तो दिल की होती है।

लेकिन कभी कभी हालात काबू से कुछ इस तरह बाहर हो जाते हैं,
दिल तो बेबस होता ही है, दिमाग़ की सोच भी नाकाम ही होती है।

माना कि हर वक्त-ए-सहर-औ-शाम दिल तो सब्ज़ बाग दिखाए है,
फ़तह तो दिमाग़ की शाइस्ता सोच को अहमियत देने से ही होती है।

नज़म - ज़ख्म

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की आदमी को रुला देती है,
ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की ज़िंदगी को घुला देती है।

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, शराब निहायत ही मुफ़ीद साबित होती है,
बाहरी ज़ख्मों को शराब सुखा देती है और अंदरूनी हों तो भुला देती है।

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, हल्दी भी उतनी ही मुफ़ीद साबित होती है,
बाहरी ज़ख्मों को हल्दी भी सुखा देती है, अंदरूनी हों तो भुला देती है।

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी,  शराब-औ-हल्दी दोनों ही अग़र मुफ़ीद हैं,
तो शराब का ही सहारा क्यों लें जो ज़ख्मों को हल्दी भी सुला देती है।

Wednesday, September 8, 2010

कविता - हालात-ए-हाज़िरा

हालात-ए-हाज़िरा से मुझे बस एक यही शिकायत रही कि हमने क्या पाया,
बहके बहके से सोच में हैं हम कि जो बच गया है, यहीं ये सब रह जाएंगे।

कहने को बहुत कुछ था मन में पर हम किसी से भी कुछ नहीं कह सके,
रफ़्ता रफ़्ता सब कुछ किसी न किसी से तो बातें हम ये सब कह जाएंगे।

बहुत सारे सपने संजोए हुए थे मन में पर सब कुछ मन में ही रह गया,
पलक पलक उम्मीदें थी पर सोचा ना था हवाई किले ये सब ढह जाएंगे। 

रौशनी सूरज की तो मेरे साथ ही है और मेरी तलाश चारों तरफ़ जारी है,
फ़लक फ़लक जैसी ऊंचाइयां लिए हुए हूं, अरमान मेरे सब महक जाएंगे।

नज़म - हाथों की लकीरें

मेरे हाथों की लकीरें जब एक मुअय्य्न मोड़ पर जाकर खत्म हो जाती हैं,
तो दिल में यह सवाल उठता है क्यों ये वहां पर जाकर खत्म हो जाती हैं।
    
यह देख कंवल दिल के खिल उठते हैं वो वहां जा के खत्म नहीं होती हैं,
बल्कि तुम्हारे हाथों में छपी लकीरों में वहां पर जाकर जज़्ब हो जाती हैं।

यह हम दोनों आज जो साथ साथ हैं यह केवल लकीरों का ही तो खेल है,
ज़िंदगी में मिलन या जुदाई, ये बातें लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

कल क्या होगा, क्यों होगा, कैसे होगा, है कोई जिस को यह सब खबर है,
ज़िंदगी में सब ज़र्ब-औ-तक्सीम इन्हीं लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

दिल में उठते वलवले कहते हैं कि मैं ज़माने को फ़तेहयाब करके दिखाऊंगा,
पर ज़िंदगी की दौड़ में सभी तदबीरें लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

नज़म - यह बात मैं हर बार कहता हूं

बेतक्कलुफ़ होकर आप हमारे घर पे आओ, मैं खुश आमदीद कहता हूं,
तक्कलुफ़ को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं। 

सादगी तो आपकी कुदरत है खुदा की तो आराइश की क्या ज़रूरत है,
आराइशों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

हया से बढ़कर अदा और क्या हो सकती है, कोई यह बताए मुझे,
अदाओं को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

कहावत मशहूर है नहीं मोहताज ज़ेवर का जिसे खूबी खुदा ने दी,
सजावट को दरकिनार कर के आओ, यह मैं बात हर बार कहता हूं।

वादा नहीं करो हमसे मुलाकात का, बस चले आओ हमसे मिलने,
वादों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

दिल में बसे हुए हो आप हमारे जन्म जन्मांतर से, युग युगांतर से,
युगों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

Tuesday, August 31, 2010

नज़म - हम और हमारा रव्वैया

लोग कुछ ग़लत करते हैं तो हम उन्हें कम-ज़र्फ़ बताते हैं,
और अगर हम ग़लत करते हैं तो हालात अपने बुरे बताते हैं।

जब कभी हम गिरते हैं और लोग हंस कर निकल जाते हैं,
तो हम उनको उनके अख़लाक की दुहाई देने लग जाते हैं।

पर उस वक्त हमारा अख़लाक आख़िर कहां खो जाता है,
जब कोई और गिरता है और हम हंसकर निकल जाते हैं।

फ़क्त औरों को छोटा कह देने से हम बड़े नहीं हो जाते हैं,
दूसरों को छोटा बता के हम अपनी अना को जगाते हैं।

किसी को कोई हर्फ़-ए-ग़लत कहना कोई दानिशमंदी नहीं है,
इस तरह तो हम अपने एहसास-ए-कमतरी की मोहर लगाते हैं।

ठीक-औ-ग़लत के फ़ैसले लेने की ज़र्ब-औ-तक्सीम ही मुख़्तलिफ़ है,
किसी को ग़लत कह कर हम तो आल्लाह ज़र्फ़ नहीं हो जाते हैं।

बहुत आसान होता है किसी की जानिब एक उंगली का उठा देना,
उस वक्त देखें, इशारे तीन उंगलियों के खुद हमारी ओर हो जाते हैं।

MEANINGS

[कम-ज़र्फ़ = Lower Intellect] [अख़लाक = Sense of Responsibility]
[हर्फ़-ए-ग़लत = Wrong word] [दानिशमंदी = Rationality]
[एहसास-ए-कमतरी = Inferiority complex] [मोहर = Stamp]
[ज़र्ब-औ-तक्सीम = Multiplication & Division] [मुख़्तलिफ़ = Different]
[आल्लाहज़र्फ़ = Higher Intellect] [जानिब = Towards]

Wednesday, August 25, 2010

गज़ल - गज़ल

भले ही दिलेरी और बेबाकी के ज़राबख्तर को अपने साथ रखो,
सादगी-औ-हया की अमूल्य पोशाक को भी तो अपने साथ रखो।

मानाकि  खुशियों का इक खज़ीना आप अपने साथ रखते हो,
दूसरों में खुशियां बांटने के जज़्बे को भी तो अपने साथ रखो।

मोहब्बत में लोग दिल की इक नवेकली सोच से काम लेते हैं,
दिमाग़ी फ़ैसले और शाइस्ता सोच को भी तो अपने साथ रखो।

उल्फ़त में तो यकीनन आदमी की सोच इक तरफ़ा हो जाती है,
दो वक्त की रोटी के जुगाड़ की सोच को भी तो अपने साथ रखो।

मैं तो बहुत रईस हूं और हर जानिब चर्चे हैं मेरे रईसी ठाठ के,
दर पे आए हुए साइल की दी दुआ को भी तो अपने साथ रखो।

ज़िंदगी में रोबिनसन करूसो बनके जीना भी कोई मुश्किल नहीं,
लेकिन माशरे का इक फ़र्द होने का फ़र्ज़ भी तो अपने साथ रखो।

ज़िंदगी जीते जीते हर आदमी दुनियां में इशरत-ज़दा हो जाता है,
मौत का एहसास दिल में रखने का मादा भी तो अपने साथ रखो।

नसीबा बन बन भटकने का प्रभु श्री राम ने अपने गले लगाया था,
उनके ’मर्यादा पुरुषोत्तम’ होने के जज़्बे को भी तो अपने साथ रखो।

कर्म करके फल की इच्छा को रखना सब के लिए लाज़मी होता है,
श्रीकृष्ण के अर्जुन को ’गीता ज्ञान’ की याद भी तो अपने साथ रखो।

Monday, August 23, 2010

गज़ल - गज़ल

साँसें अगर साथ निभाती रहें तो चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं,
जो दग़ा दे जाएं साँसें, फिर कहां चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं।

अक्सर फ़र्ज़ अंजाम देने को लोग आ तो जाते हैं मिजाज़पुर्सी को,
पर दूसरों की तो सुनते नहीं, अपने ही अफ़साने बयान करते हैं।

आते देख उनको चिराग़ों की आबरू रखने को बुझा देते हैं चिराग़,
रू-ब-रू उनके रुख-ए-रौशन बेचारे ये चिराग़ रौशन कहां रहते हैं।

इक इक अदा तो उनकी कातिल है एवं हमी पर वोह नाज़िल है,
मुस्कुराकर ही ज़िंदगी देते हैं वोह और मुस्कुराकर कत्ल करते हैं।

बकौल जनाब-ए-ग़ालिब राह-ए-उल्फ़त तो आग का एक दरिया है,
यह राज़ समझ लो तो मंज़िल के मील पत्थर साथ साथ चलते हैं।

हर बूंद का नसीब नहीं पर एक बूंद तो सीप में मोती हो जाती है,
आदमी तो सभी होते हैं पर सभी आदमी इंसां तो नहीं हुआ करते हैं।

मैखाने में लोगों को फ़क्त मय, जाम-औ-मीना से ही काम रहता है,
विरले ही होते हैं वोह जो मैखाने से भी बिन पिए लौटा करते हैं।

Thursday, August 19, 2010

गज़ल - गज़ल

वोह जो कुछ भी कहते हैं सुन लेते हैं बिना हील-औ-हुज्जत के हम,
कहने को अपने पास बहुत कुछ है, हमने कहा कहा, ना कहा ना कहा।

दुनियां में कितने ही मुकाम हैं, ज़िंदगी तो कहीं भी बसर हो सकती है,
रहने को तो बहुत जगह है इस जहां में, रहा रहा, ना रहा ना रहा।

ज़िंदगी का क्या है, वोह तो ज़ुल्म-औ-सितम सह के भी गुज़र जाती है,
तुम तो ज़ुल्म-औ-सितम जारी रखो, हमने सहा सहा, ना सहा ना सहा।

काम दरिया का तो है चलते ही जाना, वोह तो चलने में ही मसरूफ़ है,
रवानी-ए-दरिया पे मत जाओ, पानी उसमें बहा बहा, न बहा ना बहा।

मोहब्बत में कई मुकाम होते हैं, लेकिन इज़हार-ए-मोहब्बत लाज़मी है,
इज़हार-ए-इश्क हम तो करते रहे, तुमने सुना सुना, ना सुना ना सुना।

आवागमन के इस मेले में हर खास-औ-आम इशरत-ए-जहां मांगता है,
हम तो फ़कीर हैं, मग़र कुछ हमको मिला मिला, ना मिला ना मिला।

इंतेहाई जुस्तजू-ए-अल्फ़ाज़ एवं दिमाग़ी जद्द-औ-जहद से गज़ल होती है,
पर बात तो वहीं आके अटकी है, किसी ने पढ़ा पढ़ा, ना पढ़ा ना पढ़ा।

तख़्लीक-ए-कायनात के वक्त यजदां ने बनाया तो सबको इंसान ही था,
मिजाज़ तो हर किसी का जुदा था, वोह बना बना, ना बना ना बना।

Thursday, July 29, 2010

कविता - एक और अभिशाप

आज फिर मखमली सी हथेलियां मेंहदी से रचाई गई,
आज फिर मरमरी से इन पाओं में महावर रचाई गई,
दुख-दर्द से पड़े ज़र्द चेहरे को कृत्रिम सी सफ़ेदी दे कर -
आज फिर इस चेहरे पर लालिमा सूरज की रचाई गई।

आज फिर ये वीरान सी आंखें काजल से सजाई गई,
आज फिर इन सूखे पड़े होठों पर लाली सजाई गई,
मग़र ये लब जो जाने कब से सिसकियां भर रहे थे -
आज इनपे एक क्षीण सी मुस्कान भी ना सजाई गई।

आज फिर सूनी पड़ी ये कलाइयां चूड़ियों से सजाई गई,
आज फिर उजड़ी पड़ी मांग सिंदूर के रंग से सजाई गई,
सती-प्रथा के हामी समाज के ठेकेदारों के इसरार पर -
आज फिर एक विधवा पति की चिता पर बिठाई गई।

कविता - एक अभिशाप

यह हाथ जो आज पत्थर ढो रहे हैं मेंहदी इन हथेलियों में रचा देते तो क्या था,
पत्थरों और कांटों से उलझते हुए इन पाओं में भी महावर रचा देते तो क्या था,
लेकिन यह चेहरा जो ज़माने की तानाज़नी और छींटाकशी से ज़र्द हो गया वरना -
इस चेहरे में आफ़ताब की रौशनी और चांद की चांदनी को रचा देते तो क्या था।

इन मुंतज़िर आंखों को यदि रात की कालिमा के काजल से सजा देते तो क्या था,
वक्त की मार से पीले पड़े इन होठों पे सूरज की लालिमा सजा देते तो क्या था,
लेकिन तकदीर-औ-तदबीर की कशमकश के मारे ऐसा कुछ भी न हो सका वरना -
सिसकियां भरते हुए रूखे लबों पे खुशियों की मुस्कान जो सजा देते तो क्या था।

चूड़ियों की खनक को भूली हुई कलाइयों में फिर चूड़ियां सजा देते तो क्या था,
इस हसीन दोशीजा को ज़ेवरात-औ-आभूषणों से फिर से सजा देते तो क्या था,
पर समाज के ये ठेकेदार विधवा-विवाह को आज भी अभिशाप कहते हैं वरना -
सुनसान सड़क की तरह दिखती इस मांग को सिंदूर से सजा देते तो क्या था।

Thursday, July 1, 2010

नज़म - जीवन संगिनी

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से फूल झरते हैं,
फूल जो उन के मुख से झरते है हम उनको चुनते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ाना नए गुलदस्ते सजते हैं,
इस तरह घर में ही बहार-ए-चमन से हम मिलते हैं।

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से मोती चमकते हैं,
मोतियों की इस चमक से हम झोली भर लिया करते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ ही नए नए फ़ानूस सजते हैं,
इस तरह घर में ही चांद-औ-सूरज की रौशनी भरते हैं।

ज़िंदगी के चमन में उनकी हंसी के गुल सदैव महकते हैं,
ज़िंदगी की चमक में हम उनकी हंसी की चमक भरते हैं,
बनके जीवन संगिनी मेरे जीवन में वोह कुछ यूं सजते हैं,
सफ़र-ए-हयात में अपने सब कदम साथ ही साथ उठते हैं।

Saturday, June 26, 2010

नज़म - आप और हम

जब कभी भी दिल में आपके पास आने की आस उभर आई है,
आपके हसीन लबों पर दबी दबी सी एक मुस्कान उभर आई है।

जब कभी भी आए हो आप और आपको रू-ब-रू हमने पाया है,
तो इक नज़म आपकी खातिर गुनगुनाने की सोच उभर आई है।

वोह बात जो एक अरसे से यादों की कब्र में दफ़न हो चुकी थी,
वही बात फिर आज ना जाने हमारे ज़हन में कैसे उभर आई है।

आपकी जिस बात ने हमारी ज़िंदगी के रुख को ही पलटा दिया,
याद करके उसको हमारे लबों पे भीनी सी मुस्कान उभर आई है।

हमेशा हमें तवक्को रही है कि आप मुस्कुराकर मिला करो हमसे,
पर हमें मिल कर आपके चेहरे पर यह उदासी क्यों उभर आई है।

रुख से पर्दा उठाओ तो जाने बर्क-ए-तज्जली ने कुछ किया तूर पर,
हमें भी ऐसा नज़ारा देखकर होश खो देने की आस उभर आई है।

शब्दार्थ

[बर्क-ए-तजल्ली = करामाती बिजली - जब हज़रत मूसा (मोज़ेज़)
पहली मर्तबा अल्लाह से मिलने कोहितूर पर्वत पर गए तो अल्लाह
के जलाल (करामाती बिजली) से कोहितूर पर्वत जल गया और
हज़रत मूसा (मोज़ेज़) कुछ पलों के लिए बेहोश हो गए)

Wednesday, June 23, 2010

Tuesday, June 15, 2010

कविता - ग़रीबी रेखा

ग़रीबी रेखा से एक सीमा निर्धारित होती है ग़रीबों के निवास के लिए,
इसके ऊपर का स्थान आरक्षित है केवल अमीरों के निवास के लिए,
इस पर लगी एक तख़्ती के दोनों ओर "प्रवेश निशेध" लिखा होता है -
ऊपर ग़रीबों के जाने पर रोक है और नीचे अमीरों के आने के लिए।

सदियों से यह प्रथा चली आई है केवल ग़रीबों के अनुसरण के लिए,
ग़रीब रेखा लांघ भी जाएं तो टिक नहीं पाते अपने संस्कारों के लिए,
अमीर तो इसके ऊपर प्रसन्न हैं नित नए बदलते संस्कारों के चलते -
निर्धारण रेखा का हो या संस्कारों का, सब बंदिशें हैं ग़रीबों के लिए।

हां, कोई बंदिश नहीं अमीरों पर इसके ऊपर और ऊपर जाने के लिए,
व कोई बंदिश नहीं ग़रीबों पर भी इसके नीचे और नीचे जाने के लिए, 
ग़रीबी-औ-अमीरी में फ़ासला मैंने बढ़ते हुए तो देखा है घटते हुए नहीं -
दोनों ही परिस्थितियां दृढ़ हैं अपने स्थान पर सीमा पालन के लिए।

वैसे तो ये बंदिशें सुदृढ़ हैं अपने अपने स्थान पर स्थाई तौर के लिए,
किसी के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं है इधर से उधर जाने के लिए,
पर यदि कोई भाग्य से सीमा रेखा के इधर या उधर निकल जाता है -
तो ग़रीब हो या अमीर वहीं का होकर वोह रह जाता है सदा के लिए।

कविता - कमल

Tuesday, June 1, 2010

Monday, May 31, 2010

Tuesday, May 18, 2010

Friday, April 9, 2010

Wednesday, March 24, 2010

Monday, March 22, 2010

Sunday, February 28, 2010

Saturday, February 20, 2010

Friday, February 19, 2010

Monday, February 15, 2010

नज़म - ज़हर-ए-ज़िंदगी

नज़म - तेरा शहर

नज़म - वादा-ए-वफ़ा

नज़म - ख़्वाबों की ताबीर

नज़म - उसके नाम के साथ

नज़म - रूठना मनाना

नज़म - तूल-ए-ज़िंदगी

दो रुबाइयां - राज़दार

नज़म - खेल तदबीरों का

नज़म - मुकाबिल

कविता - सीधी सड़क

नज़म - सैय्याद का शिकार

नज़म - कहर

नज़म - अभी कुछ देर ठहर जाओ

नज़म - जान लेवा

नज़म - नए ज़ख़्म

नज़म - राह-ए-हयात

नज़म - मुस्कुराहट

नज़म - फिरदौस

नज़म - मुकद्दमा-ए-क़त्ल

नज़म - दिल और दिमाग

नज़म - मैं कौन हूँ

नज़म - ज़िंदगी में दखल

नज़म - खुदा