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Wednesday, October 5, 2011

नज़म - वोह और हम


पहले तो ज़ख़्म-ए-दिल देते हैं वोह, फिर हंस देते हैं,
और उन्हीं ज़ख़्मों को कुरेदते हैं और फिर हंस देते हैं,
अपने ज़ख़्म हरे रखते हैं हम ताकि उनकी तवज्जो रहे -
हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।

पहले जुमलों के तीर छोड़ते हैं वोह, फिर हंस देते हैं,
उन तीरों को बा-असर देखते हैं और फिर हंस देते हैं,
यह जुमले-बाज़ी ऐसे कुछ मुकाम पे पहुंच जाती है कि -
हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।

प्यार के सिलसिले को जीतते हैं वोह, फिर हंस देते हैं,
हमारी हार में अपनी जीत देखके वोह फिर हंस देते हैं,
वजह शायद एहसास-ए-गुनाह-ए-बेनियाज़ी हो उनका कि -
हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।

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