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Tuesday, May 14, 2013

कविता - मुस्कान मेरे नन्हे शौर्य की (Shaurya is my Grandson)

जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है,
तो पत्ता पत्ता लहलहा उठता है, हवा भी गुनगुनाने लगती है,
वातावरण सुरमय हो जाता है, मधुर स्वर गूंजने लगते हैं -
खामोशी भी खिलखिला देती है एवं ठहाके लगाने लगती है।

जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है,
कंवल दिल के खिल उठते हैं, हवा खुशगवार सी लगने लगती है,
संपूर्ण सृष्टि महक उठती है एवं हर तरफ़ एक जादू फैल जाता है -
खामोशी भी खिलखिला देती है और ठहाके लगाने लगती है।

जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है,
बेखुदी हद्द से गुज़र जाती है, आसपास की खबर नहीं रहती है,
श्वास श्वास में एक अनोखा सा, अनूठा सा अनुभव होता है -
खामोशी भी खिलखिला देती है और ठहाके लगाने लगती है।

नजम - सवालिया निशान

खुदा है या नहीं, यह सवाल अक्सर हम उठाते हैं,
बनाकर इस को मौज़ूं नित नई नशिस्त जमाते हैं,
वोह है तो कायनात है, वोह नहीं तो कुछ भी नहीं -
कम-ज़र्फ़ हैं वोह जो यह भी नहीं समझ पाते हैं।

ये सवालिया निशान जो उसके वजूद पर लगाते हैं,
ये सवालिया निशान लेकिन तब कहां चले जाते हैं,
जब हर खुशी का सिला तो हम खुद को दे देते हैं -
और हर हादसे को भगवान की रज़ा हम बताते हैं।

मैंने यह किया, मैंने वोह किया, यही रट लगाते हैं,
देके नाम अना का एहसास-ए-कमतरी को छुपाते हैं,
उसकी बेआवाज़ लाठी बोलती है तो अना खो जाती है -
फिर भागते हैं मंदिर और मस्जिद, रूठे रब्ब को मनाते हैं।

नजम - गीता ज्ञान - कर्म किए जाओ, फल मुझ पर छोड़ दो

मैं अपने हाथ में तकदीर द्वारा लिखित लकीरों का जायज़ा लगाता हूं,
आज तक मैंने ज़िंदगी में क्या खोया, क्या पाया, बही खाता बनाता हूं,
लोग कहते हैं जो तकदीरों में नहीं लिखा होता वोह तदबीरें दिला देती हैं -
तकदीर की बंदिशों में बंधा रह के मैं अपनी तदबीरों में खो जाता हूं।

तकदीर की लकीरों में मैं अपने पूर्व जन्म का बकाया लेके आता हूं,
और तदबीरों की मार्फ़त कर्मभूमि में अपने दांव पेच मैं आजमाता हूं,
यूं भी कहा गया है कि सब कुछ उसी की रज़ा से ही तो मिलता है -
भगवान की रज़ा एवं अपनी कर्म शक्ति के तालमेल को आजमाता हूं।

यह खेल तकदीरों का है या कि तदबीरों का, यहां मैं उलझ जाता हूं,
उसकी रज़ा के मुकाबिले अपनी कार्मिक क्षमता को ना-माकूल पाता हूं,
फिर मुझे रौशनी का एक जज़ीरा "गीता ज्ञान" के रूप में नज़र आता है -
और मैं अपने कर्म क्षेत्र में जुटकर नतीजे को उसकी रज़ा पर छोड़ देता हूं।

Thursday, March 7, 2013

नज़म - शर्म-औ-हया

यह खेल तदबीरों का है या कि मेरे हाथों की लकीरें रंग दिखाती हैं,
रास्ते सभी सहज लगते हैं और मंज़िलें ठीक सामने नज़र आती हैं,
पर कभी कभी मंज़िल तक आके भी हाथ से बाज़ी निकल जाए है -
मज़िलों के मील पत्थर तक पहुंचने में मंज़िलें आगे खिसक जाती हैं।

हसरतें दिल की हसीन नज़ारे उनकी निगाहों से चुराने को जाती हैं,
जैसे ही नज़रें मिलने को होती हैं तो उनकी नज़रें नीची हो जाती हैं,
ये उनके अंदाज़-ए-शर्म-औ-हया हैं या ज़ुल्म-औ-सितम की कोई अदा -
कुछ भी हो हसरतें अपने दिल की तो दिल में ही दफ़न हो जाती हैं।

सवाल किया जब हमने उनसे यही तो लज्जा से वोह नज़रें फेर जाती हैं,
सिर को झुका लेती हैं और ज़ुबान अपनी से कुछ भी नहीं बोल पाती हैं,
ज़ुबान से चाहे वोह कुछ भी ना कहें पर निगाहें सब साफ़ कह देती हैं -
और हम सब समझ जाते हैं, अनकही बातें सब खुद ही बयां हो जाती हैं।

नज़म - तक्मील-ए-ग़ज़ल

लाखों ग़मों को निचोड़कर जो एक लड़ी में पिरो दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
झूठ-औ-सच को समेटकर एक दिलनशीं अंदाज़ दे दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
चार दिन की ज़िंदगी हमें जो मिलती है, उसे कौन समझा है, कौन उसको जाना है -
गुनाह एवं सवाब को मानीखेज अल्फ़ाज़ में ढाल दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

शोख़ नज़रें जो मिल जाती हैं शोख़ नज़रों के संग तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
नज़रों के चार होने के बाद दो दिल मिलते हैं जब तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
पर दिल-ए-बेताब तड़प उठता है जब दर्द से तो बेनूर हो जाती हैं नूर से भरी आंखें -
दिल और आंखों में जब इस कदर तालमेल होता है तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

आंखों से टपके मोती जब रुख्सार पर आ जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
बिना टपके यही मोती जब कल्ब में पहुंच जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
कल्ब में पहुंचकर ये मोती अंगारे बन जाते हैं तो दिल बेचारा तो बिखर जाता है -
जज़्बात अल्फ़ाज़ बनकर कागज़ पे उतर जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

Tuesday, February 19, 2013

नज़म - दोधारी तलवार

ज़िक्र जब भी करोगे अपनी बेबसी का ग़ैरों से, लोग बेवजह अफ़साने बनाएंगे,
तुम क्या समझते हो कि ये दुनियां वाले जज़बा-ए-हमदर्दी से पेश आएंगे,
लोग तो महज़ तमाशबीन होते हैं, हर सू तलाश करते हैं मौका-ए-तानाज़नी -
तवक्को इनसे खैरख्वाही की फ़िज़ूल है, ये तो तुम पर ही उंगलियां उठाएंगे।

मर जाओगे, मिट जाओगे रहनुमाई करते करते, इल्ज़ाम ये तुम्ही पर लगाएंगे,
बिक जाओगे, मुफ़लिसी ज़ेवर बन जाएगी तुम्हारा, बेईमान ये तुम्हें बताएंगे,
वक्त आने पर ये तो बापू को भी नहीं बख्शते, तुम्हारी तो बिसात ही कुछ नहीं है -
जश्न-ए-जीत को मनाना तो इनकी जागीर है, हार में तुम्ही को दोषी ठहराएंगे।

बच के निकल जाओ इनकी शतरंजी चालों से, ना जाने ये क्या कयामत बरपाएंगे,
जीना तो एक तरफ़, मरना भी मुहाल होगा जब इनके ज़ुल्म-औ-सितम रूबरू आएंगे,
तलवार की तो एक तरफ़ धार होती है, बेरहम दुनियां के दोनों तरफ़ धार होती है -
बेरुखी इनकी है कहर के मानिंद, इनकी रहमतों में भी जाती मफ़ाद नज़र आएंगे।

नज़म - डिनर एक ग़रीब का

जाने कैसे आज एक अमीर व्यक्ति ने सोए हुए अपने ज़मीर को जगाया,
एक अत्यंत ही ग़रीब व्यक्ति को अपने घर पर उस ने डिनर पर बुलाया,
स्वयं अपने हाथों से अमीर व्यक्ति ने ग़रीब व्यक्ति का हाथ मुंह धुलवाया,
और एक बहुत बड़े से डाइनिंग टेबल पर अति प्रेम से उस को बिठाया।

छ्त्तीस प्रकार के स्वादिष्‍ट व्यंजनों से उसने अपने दस्तरखान को सजाया,
उस सजे सजाए दस्तरखान को देखकर उस ग़रीब का मन तो भर्माया,
पर रोज़ की आदत के अनुसार उसने रोटी के साथ एक प्याज़ को उठाया,
हर्ष से अत्यंत ही उल्लासित होकर उसने उस डिनर का आनंद उठाया।

भोजन के उपरांत प्रसन्न हो ग़रीब व्यक्ति ने उसे अपनी दुआओं से हर्षाया,
ग़रीब व्यक्ति की भावभीनि मुद्रा देखकर अमीर व्यक्ति का मन तो भर आया,
ग़रीब व्यक्ति को अति संतुष्‍ट पाकर उस में उसको शाह-ए-जहां नज़र आया,
उस ग़रीब के सम्मुख उसने स्वयं को सारी दुनियां में सबसे तुच्छ पाया।

Monday, January 28, 2013

कविता - कारण दामिनी की मृत्यु का

मेरे साथ जो हादसा हो गया, उससे देश की जनता के आक्रोश का तो कोई अंत ना था,
मैं तो स्वयं ही दुःखी थी पर जनता को पीड़ित देख कर मेरी पीड़ा का भी अंत ना था।

जनता की मुजरिमों के लिए मृत्युदंड की मांग तो जायज़ थी पर जनता का यह फैसला,
देश के हुकुमुरानों, कानूनदानों और मुंसिफ़ों के लिए एक गंभीर समस्या से कम ना था।

हालांकि आक्रोश की तो उनमें भी कमी न थी पर मौजूदा कानून में उनके हाथ बंधे थे,
क्योंकि मौजूदा कानून में बलात्कार के जुर्म के लिए मृत्युदंड का कोई प्रावधान ना था।

उनके बंधे हाथ देख मुझे क्रोध भी आ रहा था पर उनके हाल पर रहम भी आ रहा था,
लेकिन अपराधियों को वांछित सज़ा ना मिल पाए यह भी मेरे मन को गवारा ना था।

हालांकि मैंने अपने भाई से स्पष्ट कहा था कि मैं मरना नहीं चाहती, जीना चाहती हूं,
पर बहुत ही सोच समझकर मैंने एक फैसला लिया जो कि मेरे लिए आसान ना था।

मैंने रब्ब से अपने लिए मौत मांग ली और रब्ब नें मेरी मंशा समझकर मान भी ली,
अब हुकुमुरानों, कानूनदानों और मुंसिफ़ों के लिए इंसाफ़ करना कोई मसला ही ना था।

कारण यह कि अब तक वोह बलात्कार को ही मृत्युदंड के तराज़ू में तोलते आ रहे थे,
मेरी मृत्यु से आरोपी क़त्ल के मुजरिम थे, अब उन्हें मृत्युदंड देना मुश्किल ना था।