Followers

Thursday, July 29, 2010

कविता - एक और अभिशाप

आज फिर मखमली सी हथेलियां मेंहदी से रचाई गई,
आज फिर मरमरी से इन पाओं में महावर रचाई गई,
दुख-दर्द से पड़े ज़र्द चेहरे को कृत्रिम सी सफ़ेदी दे कर -
आज फिर इस चेहरे पर लालिमा सूरज की रचाई गई।

आज फिर ये वीरान सी आंखें काजल से सजाई गई,
आज फिर इन सूखे पड़े होठों पर लाली सजाई गई,
मग़र ये लब जो जाने कब से सिसकियां भर रहे थे -
आज इनपे एक क्षीण सी मुस्कान भी ना सजाई गई।

आज फिर सूनी पड़ी ये कलाइयां चूड़ियों से सजाई गई,
आज फिर उजड़ी पड़ी मांग सिंदूर के रंग से सजाई गई,
सती-प्रथा के हामी समाज के ठेकेदारों के इसरार पर -
आज फिर एक विधवा पति की चिता पर बिठाई गई।

No comments: