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Monday, October 18, 2010

नज़म - हुस्न-ए-कामिल

जब कभी भी अपने दिल की गहराइयों से हम उन्हें पुकारते हैं,
सुनके फ़रियाद आते हैं वोह तो हम हुस्न-ए-कामिल को निहारते हैं।

ऐसे लगता है जैसे कोई हूर उतर आई हो जन्नत से इस ज़मीं पर,
कंवल खिल उठते हैं दिल के जब उन्हें अपने दिल में हम उतारते हैं।

नज़र उठती है जो उनकी जानिब तो फिर संभल नहीं पाते हैं हम,
गेसु अपने वोह कुछ ऐसे नाज़-औ-अंदाज़ से शानों पर बिखेरते हैं।

ज़ुल्फ़-ए-पेचां की तस्सवुरी में कुछ इस तरह से उलझ जाते हैं हम,
दिल को थाम लेते हैं और उनके काकुल-ए-पेचां को हम संवारते हैं।

उनके काकुल और रुख़सार से बड़कर और जन्नत क्या हो सकती है,
जैसे मिली हो बख्शिश-ए-फ़िर्दौस हमको, कुछ यूं हम इसे गुज़ारते हैं।

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