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Monday, November 14, 2011

नज़म - तुम्हारी आँखें

जुगनुओं की मानिन्द चमक भर जाती हैं मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी आँखें,
रोज़ रोज़ नए नए हसीन रंग भर जाती हैं मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी आँखें,
बस इसी पशोपेस में रहता हूँ कि तुम्हें देखूँ या देखता रहूं  तुम्हारी आँखें,
तुम्हारी पूरी शख्सियत के वजूद का आइना बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|

आँखें फेर लेती हो जब तुम तो सज़ा की मानिंद लगती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                                                              आँखें तिरछी करती हो तुम तो कहर की मानिंद लगती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                                                             आँखें झुकाकर उठा लेती हो तुम तो हमें खतावार बताती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                                                          आँखें उठाकर झुका देती हो तुम तो इक अदा बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|

आँखें झुका लेती हो जब तुम तो हया-औ-सादगी दर्शाती हैं तुम्हारी आँखें, 
आँखें मिलाती हो जब तुम तो जीने की वजह बन जाती हैं तुम्हारी आँखें,
आँखों के झुकाने और उठाने में ही हज़ारों रंग दिखा जाती हैं तुम्हारी आँखें,                                                                आँखें उठा लेती हो जब तुम तो खुदा की रज़ा बन जाती हैं तुम्हारी आँखें|

नज़म - मजार


ता-उम्र ग़ुरूर से ऊंचा रहा सर झुक गया आ के मजार में,
बुलंद थे जो अर्श पर आ गए वो फ़र्श की सतह पे मजार में,
उम्र भर चलने फिरने के बाद आए कब्र तक वोह कांधों पर -
ले लिया एहसान लोगों का चंद कदम आने को मजार में।

माना कि बहुत एहतराम से लोग आते हैं किसी के मजार में,
पर सुबह ही सुबह वो फूल क्यों चढ़ा जाते हैं आ के मजार में,
मनों मिट्टी के नीचे तो पहले ही से दबा हुआ होता है आदमी -
उसे और क्यों दबा जाते हैं फूलों की चादर चढ़ा के मजार में।

हमने माना कि खिराज-ए-अकीदत को जाते हैं लोग मजार में,
शाम होते ही चिराग़ क्यों जला के जाते हैं ये लोग मजार में,
क्या वो यह नहीं जानते कि तमाम ज़िंदगी की नींदें खो कर -
तब जाके वो सुकूं की नींद सो पाता है इंसां अपने मजार में।

नज़म - बाद मुद्दत के

बाद मुद्दत के आज उनसे मुलाकात जब हो गई,
ज़ुबां थम सी गई और निगाह बस जम सी गई,
देखा जो उन्हें मैंने तो फिर देखता ही रह गया -
लब तो सिल से गए, धड़कनें कुछ रुक सी गई।

यूं लगा कि मेरी वीरां ज़िंदगी में बहार सी आ गई,
यूं लगा कि इन खामोश तारों में झंकार सी आ गई,
छलकती आंखों से जो मैंने पी तो पीता ही रह गया -
यूं लगा कि लबों पे ये तिशनगी बेशुमार ही आ गई।

बेनूर मेरी ज़िंदगी पुरनूर हो गई रौशनी सी छा गई,
माहौल सुरमय हो गया, हरसु इक खुमारी सी छा गई,
मुकद्दर यूं बदलेगा, मंत्रमुग्ध हो मैं सोचता ही रह गया -
मेरे घर में मुझे ऐसा लगा कि खुदा की खुदाई छा गई।