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Saturday, December 15, 2012

नज़म - खून का रिश्ता

कल रास्ते में फ़रीद साहब मिल गए, मिलकर उनको तो मन मेरा हर्षाया,   
मेरे एक दोस्त मेरे साथ थे, उनसे फ़रीद साहब का मैंने मिलाप करवाया,
मैंने दोस्त को बताया कि फ़रीद साहब के साथ तो खून का रिश्ता है मेरा -
मेरे दोस्त हैरान थे कि फ़रीद साहब से खून का रिश्ता मेरा कैसे हो पाया।

मैंने कहा कि ज़माने की रस्मों ने मुझे हिंदु और उन्हें मुसलमां बनाया,
लेकिन उनके इंसानी अख़्लाक ने उनके साथ मेरा खून का रिश्ता बनाया,
कल हस्पताल में जब मैं ज़िंदगी-औ-मौत की जद्द-औ-जहद कर रहा था -
तो फ़रीद साहब ने अपना खून देकर मेरी ज़िंदगी को नया जामा दिलाया।

तख़्लीक-ए-कायनात के दौरान यजदां ने तो सबको फ़क्त इन्सां बनाया,
लेकिन दुन्यावी रिवायतों ने उन्हें हिंदु, सिख, इसाई-औ-मुसलमां बनाया,
तोड़ दो इन मज़हबी दीवारों को और कायम करो सबसे ऐसा एक रिश्ता -
जो परे हो इन रिवायतों-औ-दीवारों से जैसे सहरा में हो इक ग़ुल खिलाया।

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