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Saturday, June 11, 2011

कविता - गुनाह-औ-सवाब

आते हैं गुलज़ार में और ढूंढ़ते लगते हैं वोह मुझे ख़ार में औ गुलाब में,
नासमझ हैं, एक बार झांक कर देख तो लेते अपने दिल की किताब में।

दर हक़ीक़त मैं भी एक बंदा हूं खुदा का, उसका कोई मोजज़ा नहीं हूं मैं,  
जाते हैं सहरा में और ढूंढ़ने लगते हैं वोह मुझे सेहरा के फ़रेबी सराब में।

सोते सोते भीनि भीनि सी एक मुस्कान उभर ही आती है उनके लबों पर,
हाल-ए-दिल लाख छुपाएं मग़र हक़ीक़त खुल ही जाती है उनके ख्वाब में।

हकीकत-ए-हाल-औ-दिल-ए-मुज़्तरिबी अपनी जब बयां करता हूं मैं उनसे,
वोह चाहे कुछ ना कहें, उनकी खामोशी चुगलखोर बन जाती है जवाब में।

खुदा की गफ़्फ़ारी पे यकीन है पर उनको चाहने का गुनाह कर ही लेता हूं,
पर लज्ज़त-ए-गुनाह में वोह जन्नती मज़ा कहां नसीब है जो है सवाब में।

क़यामत का तो एक दिन मुअय्यन है रोज़-ए-जज़ा में देखो क्या मिलता हैं,
मानाकि गुनाहों की फ़ैहरिस्त लम्बी है पर कुछ तो सवाब भी हैं हिसाब में।

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