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Tuesday, May 22, 2012

नज़म - रुखसतनामा

चाहा तो यही था हमने कि तल्खियां सारे ज़माने की अपने सीने में भर लेते,
इतनी कूव्वत ही ना थी कि एक हंसते खेलते दिल को हम शोलों से भर लेते,
रोटी रोज़ी के मसलों में यूं उलझे रहे कि अपने पराए की समझ ही नहीं पड़ी -
चलो यह तो अच्छा ही हुआ वरना दुनियां भर के और मसले घर में भर लेते। 

घर छोड़कर निकल तो पड़े हैं, जाने कभी इस जानिब हम फिर रुख कर लेते,
खुदा नें तौफ़ीक़ नहीं दी वरना तस्वीर घर परिवार की हम आंखों में भर लेते,
यह तो खबर ही नहीं है कि अब के बिछड़े फिर कभी हम मिलेंगे भी या नहीं -
वरना नज़ारे इस मुलाक़ात के हम अपने दिल के एक एक कोने में भर लेते।

ज़लज़ला सा एक उतरा तो था आंखों में, आंखों की खुश्की कम कैसे कर लेते,
हस्बा-ए-हाल नें रोने ही ना दिया वरना तो आंखों को हम समंदर से भर लेते,
दिन ढलने को है वक़्त-ए-शाम आने को है, वक़्त-ए-रुखसत किससे मिलना है -
बेमकसद सा सवाल है, बस में होता तो सारी कायनात को आंखों में भर लेते।

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