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Monday, October 18, 2010

नज़म - मुख़्तसर सा सफ़र ज़िन्दगी का

जब कभी भी किसी भी जगह पर अज़ान पढ़ने की रसम होती है,
बतौर-ए-दस्तूर उस जगह पर नमाज़ पढ़ने की भी रसम होती है।

फ़ज्र, ज़ोहर, असर, मग़रिब या इशा, नमाज़ भले ही कोई भी रहे,
हर वक्त की नमाज़ से पहले अज़ान के पढ़ने की भी रसम होती है।

एक दस्तूर है नए जन्मे बच्चे के कान में अज़ान को पढ़े जाने का,
लेकिन एक इसी अज़ान के बाद नमाज़ ना पढ़ने की रसम होती है।   

वक्त-ए-रुखसत नमाज़-ए-जनाज़ा को पढ़ना तो लाज़मी होता ही है,
मग़र इस एक नमाज़ से पहले अज़ान ना पढ़ने की रसम होती है।

अज़ान से लेकर नमाज़ तक मुख़्तसर सा सफ़र है ज़िन्दगी का,
शुरू में अज़ान एवं आखिरी वक्त नमाज़ पढ़ने की रसम होती है।

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