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Wednesday, August 22, 2007

Sunday, August 19, 2007

नज़म - काला हाशिया

नज़म - भारत

नज़म - मुंबई ब्लास्ट्स

दो रुबाइयाँ - हिकारत

नज़म - पोशीदगी-ए-उल्फ़त

कविता - सहयात्री

कविता - प्रहार

नज़म - ग़म और खुशी

कविता - मुझे मानव ही बना रहने दो

अनमोल हैं ये मानव मूल्य, मुझे मानव ही बना रहने दो,
देव मूल्यों से अनभिज्ञ हूं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

मानव योनी में जन्म लिया है मैंने, पूज्य तो मैं हूं नहीं,
अपने वर्तमान में प्रसन्न हूं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

देवत्व की सामर्थ्य नहीं है, कहीं मानवता भी न बिसर जाए,
क्यों मुझे देव बनाने पर तुले हो, मुझे मानव ही बना रहने दो।

मानव बना रह के शायद मैं सुकार्थ जीवन व्यापन कर सकूं,
देव बनकर अहंकार ना हो जाए, मुझे मानव ही बना रहने दो।

यह तो कलियुग है, इसमें मानव तो दानवता पे उतर आता है,
क्षणभंगुर से इस जीवन में देव नहीं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

माना कि देव बन भी जाऊं पर क्या देवत्व को संभाल पाऊंगा,
देव से तो मानव बनना कठिन होगा, मुझे मानव ही बना रहने दो।

चुरासी के जेलखाने से निकास मानव जीवन द्वारा ही संभव है,
इसे पाने को देवगण भी इच्छुक हैं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

नज़म - क्या तुम ज़िंदा हो

कविता - स्वप्न और यथार्थ


कविता - ड़ूब ड़ूब जाता हूँ

नज़म - मुड़े हुए वर्क मेरी कहानी के

नज़म - तन्हाई

नज़म - तन्हा हूँ मैं

नज़म - चाँद की खातिर

नज़म - खुशी और ग़म

नज़म - गोंड , खुदा, रब्ब, भगवान

नज़म - बेचारगी

कविता - बैलगाड़ी

नज़म - इश्क और रिवायतें

नज़म - हस्ब



HASB

Hasb-e-maamuul din kaT jaataa hai aur shaam Dhal jaatii hai,
Aur umr-e-ravaanii mein se ek aur din kii kamii ho jaatii hai.

Raftaa raftaa zindagii ke khaate mein se din nikalte jaate hain,
Khabar nahiin hai ki umr baRhtii jaatii hai yaa ghaTtii jaatii hai.

Kuchh bhuulnaa, kuchh yaad rakhnaa, kisii ke bas kii baat nahiin,
Yaad toh jaagtii aankhon mein bhii ik khwaab kii tarah aa jaatii hai.

Khaziinaa terii yaadon kaa toh yuun hii qaayam rahe mere paas,
Zindagii kaa kyaa hai, iss ko toh waqt kii diimak khaatii jaatii hai.

Tum toh daryaa-e-aab-e-hayaat ho, merii pyaas phir kyon qaayam hai,
Main aab-e-hayaat piitaa jaataa huun aur pyaas aur baRhtii jaatii hai.

नज़म - हकीकत-ए-हाज़िरा



HAQIIQAT-E-HAAZIRAA

"Kaise hain aap", log amuuman humse yeh sawaal karte hain,
"Bas waqt kaaT rahe hain", hum bhhii aksar yeh keh dete hain,
Kuchh ajiib saa ho gayaa hai yeh waqt kaaTne kaa silsilaa -
Din kaT jaataa hai rozgaar mein, raat nahiin kaaT paate hain.

Kehane ko toh tuul-e-zindagi ke sirf chaar din muaiyyan hain,
Par yeh chaar din kaaTne mein bhii saal-aa-saal guzar jaate hain,
Zindagii rozmarraa ke Dharre par kuchh yuun chaltii jaatii hai ki -
Koyii toh mar mar ke jiite hain aur koyii jiite jii mar jaate hain.

Agar nahiin piite hain toh khauf-e-haqiiqat-e-haaziraa sataate hain,
Aur piite hain toh gham-e-zindagii zehan par chhaa jaate hain,
Piine aur naa piine kii bhii ajiib kashamkash hai apnii zindagii mein -
Pii kar hosh mein rehate hain aur naa pii kar behak jaate hain.

नज़म - दिल और दिमाग



DIL AUR DIMAAG

Dil-au-Dimaag mein jab bhii kabhii kisii mudde pe jadd-o-jahad hotii hai,
Dimaag kyonki maahir hai aiyaarii mein, uskii har nukte pe nazar hotii hai.

Lekin Dil toh sirf ek khushgawaar natiije kaa khwaahishmand hotaa hai,
Abb isse sahii kaho yaa galat, uskii soch toh bas ek-tarfaa hii hotii hai.

Dimaag kii har jaayaz zarb-au-taqsiim Dil ko naagwaar guzartii hai,
Lihaazaa Dimaag haath khaRhe kar detaa hai aur Dil kii jiit hotii hai.

Lekin kabhii kabhii haalaat kuchh yuun kaabuu se baahar ho jaate hain,
Dil toh bebas hotaa hii hai, Dimaag kii soch bhii naakaamyaab hotii hai.

Yeh maanaa ki har waqt-e-sahar-o-shaam Dil sabz baag dikhaataa hai,
Par jo ahmiyat Dimaag kii soch ko de kaamyaabii ussii ko haasil hotii hai.

ग़ज़ल



GAZAL

Woh jo kuchh bhii kehate hain, sun lete hain hum binaa hiil-o-hujjat ke,
Kehane ko toh bahut kuchh hai, par kahaa kahaa, naa kahaa naa kahaa.

Duniyaan mein kayii mukaam hain, zidagii kahiin bhii basar ho saktii hai,
Rehane ko toh bahut jagaah hai, par rahaa rahaa, naa rahaa naa rahaa.

Zindagii kaa kyaa hai, woh toh zulm-o-sitam sehkar bhii kaT jaatii hai,
Tum apne zulam jaarii rakho, humne sahaa sahaa, naa sahaa naa sahaa.

Daryaa kaa kaam toh hai chalnaa, woh har dam chaltaa hii rehataa hai,
Uss kii ravaanii pe naa jaao, paanii bahaa bahaa, naa bahaa naa bahaa.

Mohabbat ke kayii mukaam hote hain, lekin mohabbat hai to izhaar zaruuri hai
hum izhaar-e-mohabbat karte rahe, tumne sunaa sunaa naa sunaa naa sunaa

Chalo chalii ke iss mele mein har khaas-o-aam ishrat-e-jahaan maangtaa hai
Ham to faqiir hain hamaaraa kyaa, kuchh milaa milaa, naa milaa naa milaa

Intehaaii justaju-e-alfaaz aur dimaagii jadd-o-jahad ke baad taqmiil-e-gazal hotii hai,
Par yeh zarf zarf kii baat hai, ki kisii ne paRhaa paRhaa, naa paRhaa naa paRhaa.

नज़म - मुखौटे



MUKHAUTE

Iss zamaane mein har koyii apne chehre par ek mukhauTaa pehan kar chaltaa hai,
Akhlaaq-au-khuluus jaise paarsaa alfaaz mein bhii aaj ik syaahpan nazar aataa hai,
Insaanii chehraa toh faqat ‘tabula rasa’ hotaa hai, mukhauTe isse shakal dete hain –
Ek mukhauTe mein soz-e-dil kii jhalak miltii hai toh ek rang-au-nuur lekar aataa hai.

Mere paas bhii kayii mukhauTe hain, har mukhauTaa waqt zaruurat kaam aataa hai,
Mauke ke mutaabik mukhtalif kisam kaa mukhauTaa hameshaa maujuud rehtaa hai,
Aap farmaaish kar ke dekhiye, aapkii zaruurat ke mutaabik mukhauTaa mil jaayegaa -
Ek baar jo inn mukhauTon ko istemaal kar letaa hai woh innkaa muriid ho jaataa hai.

Ek mukhauTaa hai zabaran sii muskaan liye jo kissii ke bhii dil par chhaa jaataa hai,
Ek mukhauTaa hai guruur se bharaa huaa jisse dekhkar sab kaa dil dehal jaataa hai.
Hasb-e-maamuul waqt zaruurat mukhauTe badalnaa toh ik riwaayat sii ban gayii hai -
Liijiye sharaarat se bharpuur ek mukhauTaa, yeh kissii kaa bhii mann moh letaa hai.

Ek mukhauTaa hai murdnii chehre waalaa jo maatmii maukon par hii kaam aataa hai,
Ek mukhauTaa hai pur-nuur chehraa liye huye jo waqt-e-jashan istemaal hotaa hai,
Har mukhauTe kii apnii alag ahmiyat hotii hai jo zaruurat ke mutaabik kaam aatii hai -
Pesh hai ek mukhauTaa ranj-au-ghum se chuur jo dukhii dil kii pukaar ban jaataa hai.

Ek mukhautaa hai khuraafaatii dimaag waalaa, yeh ‘bhaaii’ logon kii milkiyat hotaa hai,
Ek mukhautaa hai naqlii sharaafat liye huye jo netaa logon kii dharohar kehlaataa hai,
Waah, janaab, waah, kyaa baat hai, yeh mukhauTe toh bahut hii kaam kii chiiz hain –
Aur dekhiye maasuumiyat se bharaa yeh mukhauTaa bhii jo har dil ko pasiij detaa hai.

आर्टिकल - कर्म ज्ञान

आर्टिकल - चार युग

आर्टिकल - ग़ज़ल और नज़म

गज़ल और नज़म

नोट: इस समीक्षा में उदाहरणार्थ हेतु दिए गए सभी शेर / रुबाइयां / कतए / गज़लें / नज़में
मेरे अपने द्वारा लिखे हुए हैं।

शेर: शेर दो पंक्तियों की एक स्वतंत्र कविता होती है। उदाहरणतयः :-

अब तो एक आदत सी बना ली है हमने आंसु पीने की और ग़म खाने की,
अब तो तुम आ भी जाते हो तो फ़िक्र लगा लेता है दिल तुम्हारे जाने की।

   **********

सारे चिराग़ फ़िज़ूल थे मौजूद ना थी जब तेरी रौशनी मेरे जहां में,
सारे चिराग़ फ़िज़ूल हैं जो मौजूद है अब तेरी रौशनी मेरे जहां में।

गज़ल: गज़ल अशआर (शेर का बहुवचन) का एक समूह होता है। गज़ल में अशआर निम्न विधि
से सम्मिलित किए जाते हैं:-

१). गज़ल में हर शेर की दूसरी पंक्ति एक ही शब्द पर समाप्त होती है। यह अंतिम शब्द रदीफ़
कहलाता है।

२). रदीफ़ से पहले के सुरात्मक शब्द एक ही प्रकार के होने चाहिएं। इस प्रकरण को काफ़िया
कहा जाता है।

३). पहले शेर में दोनों पंक्तियों में एक ही रदीफ़ और एक ही जैसा काफ़िया होने चाहिएं। इस शेर
को गज़ल का मतला कहा जाता है। गज़ल में दो मतले भी हो सकते हैं।

४). गज़ल के अंतिम शेर में जिसमें कि शायर अपना तख्खलुस शामिल करता है, उसे गज़ल का
मक्‍ता कहा जाता है।

५). गज़ल में यह आवश्यक नहीं कि सभी अशआर एक ही विशय से संबन्धित हों। वोह एक दूसरे
से अलग विषयों पर भी हो सकते हैं।

६). सभी अशआर एक ही बहर [बहर के ऊपर विस्तारपूर्वक अलग से चर्चा करने की आवश्यकता है।
फ़िलहाल इसको शेर की लंबाई (कुछ अतिरिक्त नियमावली के साथ) मान कर चल सकते हैं]।

इस तरह हर गज़ल चंद अशआर का समूह मात्र है जिस में कम से कम एक मतला, एक मक्ता होना
चाहिए और प्रत्येक शेर एक ही रदीफ़, काफ़िए और एक ही बहर में होने लाज़मी हैं।

गज़ल का एक उदाहरण प्रस्तुत है:-

भूख और प्यास की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है,
हालात की मुश्किल दुखद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

बहुत आसां होता है किसी पर तानाज़न होना, किसी पर तज़करा करना, 
गैरों की खुशहाली से हसद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

अपनी बढ़तरी स्थापित करने को औरों को एहसास-ए-कमतरी मत दो,
आल्लाह-ज़र्फ़ी की ललक जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

लड़ना हकूक के लिए जायज़ है मग़र जम्हूरियत में यह फ़रमान भी है,
हासिल-ए-हक की तलब जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

हिंदु, मुस्लिम, सिख या ईसाई, किसी भी दीन से हो, क्या फ़र्क पढ़ता है,
भगवान को पाने की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

कभी कभार शायर गज़ल/रुबाई/शेर बिना रदीफ़ के, काफ़िए पर ही खत्म कर देते हैं। इसे भी
माकूल समझा जाता है। नमूने के तौर पर ऐसी एक रुबाई पेश है:-

सोचा था कि बेगानों के साथ भी जा के हम दिल लगाएंगे,
और इस जग के अन्दर सब लोगों को हम अपना बनाएंगे,
पर लोगों ने वोह खेल खेले कि सपने सारे सपने ही रह गए -
अब सोच में हैं कि कैसे जा के रब्ब को हम मुंह दिखाएंगे।


कभी कभी शायर गज़ल लिखते वक्‍त शेर की जगह रुबाई या कतए का इस्तेमाल कर लेते हैं। जबकि
शेर दो पंक्तियों की स्वतंत्र कविता है, रुबाई या कतआ चार पंक्तियों की स्वतंत्र कविता होती है। रुबाई
में पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में एक ही रदीफ़ काफ़िया होते हैं - तीसरी पंक्ति में रदीफ़ काफ़िए
का नियम लागू नहीं होता, उदाहरण्तयः :-

छप्पड़ एक मुफ़लिस का वक्‍त की बेरहमी से बिजली की नज़र हो गया,
उस के जीवन के एक मात्र सहारे पर खुदा की खुदाई का कहर हो गया,
अच्छाई बुराई किसी न किसी के सवाब और गुनाह पे मुन्हसिर होती है -
किसी का गुनाह तो था यह जो उस ग़रीब के जीवन का ज़हर हो गया।

रुबाई में निर्मित एक गज़ल उदाहरण हेतु प्रस्तुत है:-

इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है,
इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है,
जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते -
ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है।

शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है,
दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है,
अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका -
अपनी बढ़तरी के लिए उनको औरों को हीन भावना देते हुए भी देखा है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है,
अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है,
जीवन श्‍वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं -
इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।

जबकि कतए में चारों पंक्तियों में एक ही रदीफ़ काफ़िए का इस्तेमाल होता है, उदाहरण्तयः :-

उनके आने की खबर नें मुझे कुछ इस तरह तरोताज़ा कर दिया,
कि खुदा नें बिजली के माफ़िक जोश मेरे तन बदन में भर दिया,
गो पांव में जुंबिश ना थी, जोश ने मुझे पांवों पर खड़ा कर दिया,
पाबजोला ही सही उनके इस्तकबाल के लिए घर से मैं चल दिया।

कतए में निर्मित एक गज़ल उदाहरण हेतु प्रस्तुत है:-

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से फूल झरते हैं,
फूल जो उन के मुख से झरते है हम उनको चुनते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ाना नए गुलदस्ते सजते हैं,
इस तरह घर में ही बहार-ए-चमन से हम मिलते हैं।

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से मोती चमकते हैं,
मोतियों की इस चमक से हम झोली भर लिया करते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ ही नए नए फ़ानूस सजते हैं,
इस तरह घर में ही चांद-औ-सूरज की रौशनी भरते हैं।

ज़िंदगी के चमन में उनकी हंसी के गुल सदैव महकते हैं,
ज़िंदगी की चमक में हम उनकी हंसी की चमक भरते हैं,
बनके जीवन संगिनी मेरे जीवन में वोह कुछ यूं सजते हैं,
सफ़र-ए-हयात में अपने सब कदम साथ ही साथ उठते हैं।

गज़ल के बारे में व्यौरा देने के बाद, हम नज़म की बात करते हैं। यह तो पहले ही स्पष्ट कर दिया
गया है कि गज़ल में सभी अशआर एक ही विषय से जुड़े होने आवश्यक नहीं हैं। लेकिन नज़म में
सभी अशआर एक ही विषय से संबन्धित होते हैं, अतः नज़म में एक शीर्षक (उन्वान) का होना
भी लाज़मी है। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि गज़ल जिसमें सभी अशआर एक ही विषय
से संबन्धित हों और उसमें शीर्षक (उन्वान) भी हो तो उसे नज़म कहा जा सकता है। उस दृष्टि से
देखा जाए तो रुबाई एवं कतआ को भी दो अशआर वाली (चार पंक्तियों की) नज़म भी कहा जा
सकता है।

नज़म का एक उदाहरण प्रस्तुत है:-

तक्मील-ए-ग़ज़ल

लाखों ग़मों को निचोड़कर जो एक लड़ी में पिरो दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
झूठ-औ-सच को समेटकर एक दिलनशीं अंदाज़ दे दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
चार दिन की ज़िंदगी हमें जो मिलती है, उसे कौन समझा है, कौन उसको जाना है -
गुनाह एवम सवाब को मानीखेज अल्फ़ाज़ में ढाल दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

शोख़ नज़रें जो मिल जाती हैं शोख़ नज़रों के संग तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
नज़रों के चार होने के बाद दो दिल मिलते हैं जब तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
पर दिल-ए-बेताब तड़प उठता है जब दर्द से तो बेनूर हो जाती हैं नूर से भरी आंखें -
दिल और आंखों में जब इस कदर तालमेल होता है तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

आंखों से टपके मोती जब रुख्सार पर आ जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
बिना टपके यही मोती जब कल्ब में पहुंच जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
कल्ब में पहुंचकर ये मोती अंगारे बन जाते हैं तो दिल बेचारा तो बिखर जाता है -
जज़्बात अल्फ़ाज़ बनकर कागज़ पे उतर जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

बहर

शेर, रुबाई, कतआ, गज़ल या नज़म, शायरी की कोई भी पेशकश हो, बहर (मीटर) का उसमें
एक विशेष महत्व होता है। हर शेर, रुबाई, कतआ, गज़ल और नज़म अलग अलग वाक्यों में बंटे
होते हैं जिन्हें शायरी की ज़ुबान में मिसरा कहा जाता है। प्रत्येक मिसरे की खासियत यह होती है कि
वोह एक ही लंबाई और एक विशेष तरतीब में बंधे होते है। बहर का विषय अत्यंत ही कठिन विषय
माना जाता है। लेकिन हम इसकी ज़्यादा विषमताओं में ना जाकर इसका आसान सा अध्ययन करेंगे। 

इस समीक्षा में जितने भी अशआर, रुबाईयां, कतए, गज़लें या नज़में उदाहरण के तौर पर दिए
गए हैं वोह खुद मेरे द्वारा ही लिखे गए हैं।

बहर अमूमन 2०-22 प्रकार की गिनी गई है। लेकिन सहूलियत के लिए हम बहर को मुख्यत: तीन
भाग में बांट सकते हैं - लंबी, मध्यम एवं छोटी, मसलन:-

लंबी

इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है,
इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है,
जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते -
ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है।

शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है,
दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है,
अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका -
अपनी बढ़तरी को उन्हें औरों को एहसास-ए-कमतरी देते हुए भी देखा है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है,
अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है,
जीवन श्‍वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं -
इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।

मध्यम

खुशियों की दौलत तुम्हें मुबारक और ग़मों का खज़ाना हमारा हो,
मुनाफ़े के सब सौदे तुम्हें नसीब और घाटे का हर सौदा हमारा हो,
तुम्हारी खुशियों में जब भी इज़ाफ़ा हो तो महज़ यही दुआ करना -
खुशियां कुछ हमारे हिस्से में भी आ जाएं और ग़मों में खसारा हो।

मोहब्बत में गिले-शिकवे बेमानी होते हैं, मानीखेज प्यार हमारा हो,
रेले ग़म और खुशी के तो फ़ानी होते है, रवां फ़क्त प्यार हमारा हो,
ज़माने की रंगरलियां हों या दुनियावी दौलत, ये सभी वक्ती होते हैं –
बाद फ़ना इश्क के जो किस्से कहानी होते हैं, वैसा प्यार हमारा हो।

प्रीत बनी रहे सभी से और सबके दिल में कायम प्यार हमारा हो,
वैर और द्वैत ना हो किसी से भी और सबके साथ प्यार हमारा हो,
चार दिन की यह ज़िंदगी सबके साथ प्रेम-औ-प्यार से गुज़र जाए -
हर किसी की मोहब्बत का जो भूखा हो, बस वैसा प्यार हमारा हो।

छोटी

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि स्वप्न तो टूटेगा ही -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि तुम तो चले ही जाओगे -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ और स्वप्न को एक सा पाते हैं हम,
स्वप्न के टूटने के डर से डर जाते हैं हम,
यथार्थ का यथार्थ भी कुछ अलग नहीं है -
तुम से बिछुड़ने के डर से डर जाते हैं हम।

लंबाई बहर का एक अंग है लेकिन बहर का मुख्य अंग है वोह तरतीब जिसमें मिसरों को बांधा जाता है।
हर मिसरा एक खास तरतीब में बंधा होता है। उस तरतीब को अरकान (रुक्न का बहुवचन) कहते हैं।
इस तरतीब को जानने के लिए पहले हमें प्रत्येक अक्षर, स्वर हो या व्यंजन, उसके वज़न की
जानकारी होनी आवश्यक है।  

स्वरों का वज़न निम्न प्रकार से गिना जाता है:-

अ, इ, उ - 1
आ, ई, ऊ - 2
ऐ, औ    - 2
ए, ओ - इनको आवश्यकता अनुसार हम 1 या 2 वज़न दे सकते हैं।

सभी व्यंजनों का वज़न 1 गिना जाता है और जब दो व्यंजनों को जोड़ कर लिया जाता है तो उनका
वज़न 2 हो जाता है।

एक ही शब्द में इस्तेमाल दो व्यंजनों को हम अलग अलग करके उनको 1, 1 वज़न दे सकते हैं।
जैसे कि 'कल' का वज़न 2 है पर हम इसे 'क' और 'ल' अलग अलग करके उनको 1,
1 वज़न दे सकते हैं।  लेकिन दो शब्दों में इस्तेमाल आख़िरी और पहले व्यंजन को जोड़ कर हम
उनको 2 वज़न नहीं दे सकते हैं। जैसे कि 'रात अभी' में 'त' और 'अ' को जोड़कर हम 2
वज़न नहीं दे सकते हैं। 'रात' में 'त' का वज़न 1 और 'अभी' में 'अ' का वज़न 1 ही रहेगा।

किसी भी व्यंजन को उपरोक्त स्वरों की मात्राओं के साथ लिया जाए तो उनका वज़न उन मात्राओं के
मुताबिक ही हो जाता है, यानि कि, 

अ, इ, उ की मात्रा के साथ, जैसे - क, ख, ग; कि, खि, गि; कु, खु ,गु -
इन सब का वज़न 1 गिना जाता है,

आ, ई, ऊ की मात्रा के साथ, जैसे - का, खा, गा; की, खी, गी; कू, खू ,गू -
इन सब का वज़न 2 गिना जाता है,

ऐ, औ की मात्रा के साथ, जैसे - कै, खै, गै; कौ, खौ ,गौ - इन सब का वज़न 2 गिना जाता है,

ए, ओ की मात्रा के साथ, जैसे - के, खे, गे; को, खो ,गो - इन सब का वज़न आवश्यकता
अनुसार 1 या 2 गिना जा सकता है,
   
जब दो व्यंजनों के बीच में आ, ई, ऊ, ए, ओ, ऐ, औ की मात्राओं का या एक व्यंजन से पहले
आ, ई, ऊ, ए, ओ, ऐ, औ का प्रयोग होता है तो उनका वज़न 3 हो जाता है, जैसे लात, रीत,
लूट, खेल, खोट, नैन, कौन, आज, ईख, ऊन, एक, ओट, ऐन, और इत्यादि (जैसा कि पहले
भी कहा गया है कि यदि हम चाहें तो खेल, खोट, एक एवं ओट में हम खे, खो, ए एवं ओ को
ज़रूरत के मुताबिल 1 या 2 का वज़न दे सकते हैं)। 3 के वज़न को हम ज़रूरत के मुताबिक 2,
1 में तबदील कर सकते हैं।   

किसी भी मिसरे को हम सामान्यतय: निम्नलिखित ८ प्रकार की अरकान में बदल सकते हैं:-

फ़-ऊ-लुन - 1-2-2 - मुतकरिब 
फ़ा-इ-लुन - 2-1-2 - खफ़ीफ़ 
म-फ़ा-ई-लुन - 1-2-2-2 - हज़ाज 
मुस-तफ़-इ-लुन - 2-2-1-2 - रजाज़ 
फ़ा-इ-ला-तुन - 2-1-2-2 - रमाल 
मु-त-फ़ा-इ-लुन - 1-1-2-1-2 - कामिल 
म-फ़ा-इ-ल-तुन - 1-2-1-1-2
मफ़-ऊ-लात - 2-2-3


यदि किसी मिसरे में बहर केवल एक ही अरकान के बार बार इस्तेमाल करने से बनती है तो उसे
मुफ़र्रिद बहर कहा जाता है और यदि वोह अलग अलग रुक्न के मिलान से बनती है तो उसे
मुरक्कब बहर कहा जाता है।

किसी भी मिसरे में सभी अरकान का जोड़ कर लिया जाए तो वोह मिसरे का वज़न बन जाता है।
कोशिश यही होनी चाहिए कि हर मिसरे का वज़न बराबर ही आए लेकिन थोड़ा बहुत इधर उधर होने
से विशेष फ़र्क नहीं पड़ता है। उदाहरण के लिए चंद अशार और रुबाइयां प्रस्तुत हैं:-

फ़राख़दिली हमारी से आप हमारे दिल पर काबिज़ हुए,
1-2-1-1-2 1-2-2 1-2-1-1-2 1-2-2-2   2-1-2 (वज़न 31)
काबलियत अपनी से आप हमारी रूह पर काबिज़ हुए।
2-1-2  1-2-2   1-2-1-1-2 2-2-1-2 2-2-1-2 (वज़न 31)

दिल के बहकावे में आ जाते हैं हम तो सराबों को हकीकत मान लेते हैं,
2-1-2-2    1-2-2-2    1-2-2-2  1-2-2-2 1-2-2-2  1-2-2-2 (वज़न 42)
दिमाग से जब काम ले लेते हैं हम तो सराबों की हकीकत जान लेते हैं।
1-2-1-1-2     2-1-2-2  1-2-2-2  1-2-2-2 1-2-2-2  1-2-2-2 (वज़न 42)

जैसा कि पहले भी कहा गया है और इस शेर में भी यह कबिल-ए-ग़ौर है कि पहली पंक्ति में ’जाते हैं'
में 'ते' का वज़न 1 लिया गया है जबकि 'लेते हैं' में 'ते' का वज़न 2 लिया गया है।

इसी प्रकार 'ए' का वज़न भी आवश्यकतानुसार 1 या 2 लिया जा सकता है। जैसे 'हुए' शब्द में
ज़रूरत के मुताबिक हम वज़न 1-1 या 1-2 ले सकते हैं, यानि कि 'ए' का वज़न 1 या 2 ले
सकते हैं।

सारे चिराग़ फ़िज़ूल थे मौजूद ना थी जब तेरी रौशनी मेरे जहां में,
2-2-1-2 1-1-2-1-2 2-2-1-2 2-2-1-2  2-1-2-2 2-1-2-2 (वज़न 42)
सारे चिराग़ फ़िज़ूल हैं मौजूद है जो अब तेरी रौशनी मेरे जहां में।
2-2-1-2 1-1-2-1-2 2-2-1-2 1-2-2-2  2-1-2-2 2-1-2-2 (वज़न 42)

मैखाने में जब कभी भी आप आ जाते हो तो शराब बेअसर सी होने लगती है,
2-2-1-2     2-1-2-2   2-1-2-2   1-2-2  1-2-1-1-2 1-2-2  1-2-2-2 (वज़न 45)
मैखाने में साकी के हाथों से पैमाने छूटने लगते हैं, शराब बिखरने लगती है,
2-2-1-2   2-2-1-2   2-1-2-2 2-2-1-2 2-1-2  1-2-1-1-2  1-2-2-2   (वज़न 47)
मैखाने में जब कभी हम आ जाते हैं तो शराब आबे-हयात सी लगने लगती है,
2-2-1-2   2-1-2-2      2-2-1-2  1-1-2-1-2  2-1-2 1-2-2  1-2-2-2  (वज़न 45)
मैखाने में बेवज़ू आने और बावज़ू आने वाली बात समझ में आने लगती है।
2-2-1-2  2-1-2-2  2-2-1-2  1-2-2 1-2-2-2   1-1-2-1-2     1-2-2-2 (वज़न 47)

जैसा कि पहले भी कहा गया है और इस रुबाई में भी यह कबिल-ए-ग़ौर है कि पहली पंक्ति में
'जाते हो तो' में 'तो' का वज़न 2 लिया गया है जबकि तीसरी पंक्ति में 'तो शराब' में 'तो'
का वज़न 1 लिया गया है।

इसी प्रकार 'ओ' का वज़न भी आवश्यकतानुसार 1 या 2 लिया जा सकता है। जैसे 'ओर' शब्द में
ज़रूरत के मुताबिक हम वज़न 1-1 या 2-1 ले सकते हैं, यानि कि 'ओ' का वज़न 1 या 2
ले सकते हैं।

लोग खामोशी हमारी पर मुख्तलिफ़ किस्म के सवाल उठाते हैं,
2-1-2-2   2-1-2-2   2-2-1-2      1-2-1-1-2    1-1-2-1-2 (वज़न 35)
और शोख़ी हमारी भी देखिए कि हम मुस्कुरा कर टाल जाते हैं,
2-1-2-2   1-2-2-2   2-1-2  1-2-2    1-2-2-2   1-2-2-2 (वज़न 38)
हमारी मानीखेज खामोशी पर लोग क्या क्या अटकलें लगाते हैं -
1-2-2-2  2-2-1-2  1-2-2-2   1-1-2-1-2     2-1-2 1-2-2-2 (वज़न 40)
जिसको जो भी समझ आता है वैसे ही अफ़साने ढाल लाते हैं।
2-1-2-2       1-2-2-2     2-2-1-2   2-2-1-2  1-2-2-2 (वज़न 35)

उपरोक्त अशआर, कतआ और रुबाई में 1-2-2, 2-1-2, 2-1-2-2, 2-2-1-2, 1-2-2-2,
1-2-1-1-2 और 1-1-2-1-2 अरकान का इस्तेमाल किया गया है।

क्योंकि सभी अरकान के आख़िर में अमूमन 2 का वज़न आता है, इसलिए किसी मिसरे के आख़िर
में अगर 1 का वज़न आ जाए तो उसे यूं ही छोड़ दिया जाता है, उदाहरणतय:

तेज़ हो जाती हैं धड़कनें दिल की पास जब चले आते हो आप,
2-1-2-2   2-2-1-2  1-2-2-2     1-2-1-1-2   1-2-2      1
रुक के रह जाती हैं धड़कनें दिल की दूर जब चले जाते हो आप।
2-1-2-2     2-2-1-2   1-2-2-2   1-2-1-1-2    1-2-2      1

मैं तो हमसफ़र ही ढूंढता रह गया था, तमाम सफ़र-ए-हयात,
2-1-2-2     1-2-2 1-2-2  1-2-2   1-2-1-1-2 2-1-2    1
हमसफ़र ढूंढने ढूंढने में ही हो गया था तमाम, सफ़र-ए-हयात।
2-1-2-2  1-1-2-1-2 1-2-2  1-2-2  1-2-1-1-2  2-1-2     1

रह गए खड़े सब के सब बावफ़ा अपनी फ़ैरिस्त-ए-वफ़ा के साथ,
2-1-2   1-2-2  1-2-2    1-2-2-2  2-1-2  1-1-2-1-2      1
जबकि इक बेवफ़ा ने निभाई बेवफ़ाई अपनी समूची वफ़ा के साथ।
2-1-2-2     1-2-2  1-2-2-2 1-2-2-2 2-1-2-2  1-2-2-2      1

रुबाइयां

चंद चुनींदा रुबाइयां
 शोर-औ-खामोशी

1. इस कदर शोर है चारों तरफ़ कि कोई आवाज़ भी सुनाई नहीं देती,
इस कदर शोर है अपने इर्द गिर्द अपनी आवाज़ ही सुनाई नहीं देती,
हदूद-ए-शोर कुछ तो तय हो जो आदमी किसी तरह तो इससे बर आए -
इस कदर शोर है अपने अंदर कि दिल की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती।

2. इस कदर खामोशी है हर-सू कि मद्धिम सी आवाज़ भी कोहराम मचा देती है,
इस कदर खामोशी है अपने इर्द गिर्द अपनी आवाज़ की गूंज भी सुनाई देती है,
हदूद-ए-खामोशी कुछ तो मुकरर हो जो आदमी किसी तरह तो इससे बर आए -
इस कदर खामोशी है अपने अंदर कि धड़कन-ए-दिल भी साफ़ ही सुनाई देती है।

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ओस की बूंदें

3. जब किसी गुलाब के फूल पर ओस का एक कतरा नज़र आता है,
तो यूं लगता है कि जैसे रुखसार पर आंसु टपक कर ठहर जाता है,
ओस के कतरे यूं तो पूरे माहौल में ठंडक पहुंचाते हैं पर यही कतरा -
आग भड़का देता है आंख से छलक कर जब रुखसार पर ढलक आता है ।

4. जब कभी ओस की बूंदें नज़र आती हैं किसी ग़ुलाब के पंखों के ऊपर,
तो छा जाते हैं तुम्हारे लरज़ते हुए लबों के साए मेरे ज़हन के ऊपर,
जब कभी ओस की बूंदें नज़र आ जाती हैं कहीं भी खुश्क पत्तों पर तो -
ऐसे लगता है कि रहमत तेरी की बरसात हो रही है बियाबानों के ऊपर।

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जोड़ तोड़ दिलों का

5. हमने उनसे कहा, "टुकड़े मेरे दिल के करके यूं फ़ज़ा में मत छोड़ो, ये उड़ जाएंगे",
मुस्कुरा कर वोह बोले, "हमारे लिए इनकी कशिश तो देखो, वापिस ये मुड़ आएंगे,
देखकर अपने दिल के टुकड़ों को परेशान मत होना, हम तो वोह तौफ़ीक रखते हैं -
कि एक नज़र डालेंगे हम तुम्हारे दिल के टुकड़ों पर, खुद-ब-खुद ये जुड़ जाएंगे"।

6. हमने भी मुस्कुरा कर कहा, "माना कि दिलों के जोड़ तोड़ में आप तौफ़ीक रखते हैं,
दिल को पत्थर सा सख्त और नाज़ुक शीशे सा रखने में हम भी तो तौफ़ीक रखते हैं,
हमारा दिल हाथ से गिर कर भले ही ना टूटे पर नज़र से गिर के फ़ौरन टूट जाता है -
हमारे दिल को नज़र से ना गिराइएगा, हालांकि इसकी भी आप तौफ़ीक रखते हैं"।

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उसका नाम

7. हर नियामत उसे मयस्सर होती है जो जिए जाता है उसके नाम के साथ,
याद फ़क्त उसकी दिल में बसा कर जो जिए जाता है उसके नाम के साथ,
परचम उसी की फ़तह का ज़मीं से फ़लक तक लहराता रहेगा कयामत तक -
कौन उस को मिटा सकता है जो वाबस्ता हो जाता है उसके नाम के साथ।

8. हो जाओ तुम भी हकीकत-ए-आशनां और जुड़ जाओ उसके नाम के साथ,
इबादत के लिए फ़क्त यही काफ़ी है कि जिए जाओ उसके नाम के साथ,
आज हम हैं पर कल रहेंगे या नहीं रहेंगे, इसकी खबर किस को रहती है -
बात यह हमेशा ज़हन में रखो कि जीना है फ़क्त उसी के नाम के साथ।

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9. खुद आ के घर, खुद आ के दीदार कर लो,
खुद आ के घर, खुदा के दीदार कर लो,
खुदा के घर, खुद आ के दीदार कर लो,
खुदा के घर, खुदा के दीदार कर लो।

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10. आज तो आज है, कल जो कल था उसके वजूद को निगल गया सिर्फ़ आज,
कल जो कल होगा वोह भी कल नहीं रहेगा, वोह भी बन जाएगा सिर्फ़ आज,
और अगर कल, आज एवं कल में कोई हकीकत है तो वोह भी है सिर्फ़ आज,
फिर क्यों सोचें एक कल की या दूसरे कल की, क्यों ना जिया जाए सिर्फ़ आज।  

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11. मुंतज़िर हैं हम कि फुरसत-ए-निगाह उन्हें जब मिले तो वोह हमसे नज़रें चार करें,
मुंतज़िर हैं हम कि संवरें तकदीर के तेवर वोह हम पे निगाह-ए-कर्म एक बार करें,
गुज़ारते जा रहे हैं अपनी ज़िन्दगी को हम महज़ यही हसरत-ए-खुशफ़हमी ले कर -
कि जिसके लिए निगाहें हमारी हमेशा मुंतज़िर हैं, कभी वोह भी तो हमारा इंतेज़ार करें।

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12. ज़िंदगी में कभी ना आने दो अना की जंग को,
अना को तर्क कर के मना लो अपने संग को,
ज़िंदगी में अना जो हावी हो गई तो समझ लो -
इश्क के नसीब में भर देगी जुदाई के रंग को।

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13. बेलौज़ मोहब्बत आपसे करते हैं हम, यकीन करके तो आप देखो,
हमारे लिए नायाब है आपकी मोहब्बत, यकीन करके तो आप देखो,
मोहब्बत-औ-प्यार में शक-औ-शुबह की गुंजाइश नहीं हुआ करती -
जान-औ-दिल दोनों आप पर सदके हैं, यकीन करके तो आप देखो।

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14. "हम और तुम - तुम और हम", इन लफ़्ज़ों की हकीकत क्या है?
रोज़ाना इस्तेमाल करते हैं हम इन्हें पर इनकी अहमियत क्या है?
कहने को तो ये फ़क्त दो लफ़्ज़ हैं पर हैं ये एक ही सिक्के के दो रुख -
वजूद दो लफ़्ज़ी सही इनका लेकिन कायनात बग़ैर इनके क्या है?

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15. तुम्हारे दहकते हुए रुख़सारों की सुर्खी नें बहार के मानी बदल डाले,
 तुम्हारी बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों नें घटा-औ-बरसात के मानी बदल डाले,
अब कशमकश रह ही कहां गई है, रात को भी रोक लिया है हमने -
तुम्हारे आने और आके चले जाने नें तो तिश्नगी के मानी बदल डाले।

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16. महबूब के यहां आ के महबूबा का बहुत ही प्यार से आवाज़ दे कर बुलाना,
महबूब का जोश-औ-खरोश से घर से बाहर आके अपने होश-औ-हवास खोना,
दर-हकीकत अहम वजह में महबूबा के जलवा-औ-जलाल का असर तो था ही -
पर दूसरी वजह इसकी तो महबूबा का अपने अब्बा जान को भी साथ ले के आना।

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17. अब तो खुद अपने आप को भी फ़रेब देने में माहिर हो गया हूं मैं,
 अय्याम की तल्खियों को हंस कर पी लेने में माहिर हो गया हूं मैं,
हस्बा-ए-मामूल है छुपा जाना ग़मों को मुस्कुराहटों की ओट ले कर -
ग़मों के बोझे तले दब के भी सिर उठा लेने में माहिर हो गया हूं मैं।

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18. आपकी गोद में सुखद जीवन की अनुभूति को मैंने पाया,
उस से पृथक तो उपलब्ध है केवल मृत्यु का घना साया,
मृत्युपरांत पुनर्जन्म की प्राप्ति में अटूट विश्वास है मेरा -
आप की गोद से दूर मेरा जीवन सर्वस्व ही कहां हो पाया।

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19. आप और हम जब तलक मिले न थे तो अनभिज्ञ थे हम वियोग के नाम से,
अब मिल गए हैं जब तो प्रति क्षण मन विचलित होता है वियोग के नाम से,
आपसे न मिलना प्रलय समान था, मिलनोपरांत वियोग भी प्रलय से कम नहीं -
 आप के साथ जीवन की अनुभूति है और आभास मृत्यु का है वियोग के नाम से।

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20. ग़म ही तो हैं जो शोला-ए-इश्क को भड़काते रहते हैं,
ग़म ही तो हैं जो पुतली के जैसे हमें नचाते रहते हैं,
इन का सहारा ही तो ज़िंदगी को सार्थक कर देता है -
ग़म ही तो हैं जो ज़िन्दगी को जीने को उकसाते रहते हैं।

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21. ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, मेरा दिल मेरे पहलू में धड़कने लगता है,
ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, शोला-ए-जज़्बात मेरा भड़कने लगता है,
ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, सराब ये सारे हकीकत लगने लगते हैं -
ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, तार तार सांसों का थिरकने लगता है।

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22. अपने अंदर तो अल्फ़ाज़ का एक हुजूम सा इकट्ठा कर के बोलो,
आपने हमसे यह क्यों कह दिया कि किताब-ए-अल्फ़ाज़ को ना खोलो,
बहुत आसान होता है किसी की भी ज़ुबान पर ताला लगा देना -
हम भी तो आपको तब मानें जो आप भी अपनी ज़ुबान ना खोलो।

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23. आपकी ज़ुल्फ़ों के पेच-औ-ख़म में खुद को उलझा हुआ ही पा रहे हैं हम,
दिमाग के पुर्ज़े तक घूम के रह गए हैं, कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं हम,
इन टेहड़े मेहड़े रास्तों से निकलना आसान भी है या नहीं, फिर सोचता हूं -
कि आखिर इनसे निकलने की ज़रूरत क्यों महसूस कर ही पा रहे हैं हम।

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24. तव्वको है उनसे कि देखें फिर एक बार उसी अंदाज़-ए-इज़हार से,
तव्वको है उनसे कि देखें फिर एक बार उसी अंदाज़-ए-इसरार से, 
जब मिले थे उनसे पहली बार और अपना दिल हार के चले आए थे -
तव्वको है उनसे कि देखें फिर एक बार उसी अंदाज़-ए-इकरार से। 

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25. अंधेरों के बंद दरवाजे आख़िर कब तक हम पे ढाएंगे सितम,
रात के कातिल अंधेरों के खुद-ब-खुद मिट जाएंगे सितम,
फ़क्त चंद पहरों की तो बात है, सुबह के सूरज को आने तो दो -
रौशनी के दरवाज़े सब खुल जाएंगे, फ़ना हो जाएंगे सितम।

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26. कितना आसान है कह देना कि मां बाप तो बस अपना फ़र्ज़ निभाए जाते हैं,
और मां बाप भी अपना यह फ़र्ज़ बेगर्ज़ होकर आसानी से निभाए जाते हैं,
माना कि यह फ़र्ज़ है मां बाप का पर यह फ़र्ज़ तो उनका कर्ज़ है आप पर –
यह जो कर्ज़ मां बाप का है आप पर, क्या आप भी उसको निभाए जाते हैं।

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27. "क्या बात है, संता सिंह, बहुत दांत निकाल रहे हो", रफ़ीक भाई बोले,
"अभी के अभी चौंतीस दांत तोड़ कर हाथ में दे दूंगा", रफ़ीक भाई बोले,
संता का दोस्त बंता बोला, "पर, रफ़ीक भाई, दांत तो बत्तीस ही होते हैं - 
"मुझे पता है, दो दांत मैंने तुम्हारे भी गिन लिए थे", रफ़ीक भाई बोले।

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28. एक्सियन साहब ने हंसते हुए ठेकेदार से कहा, "ठेकेदार साहब,
"तुम्हारा बनाया हुआ यह पुल अभी तक सलामत किसलिए है",
ठेकेदार ने भी मुस्कुराते हुए उन्हें जवाब दिया, "जनाब-ए-वाला,
अभी तक उसकी पेमैंट जो नहीं हुई, वोह सलामत इसलिए है"।

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29. मोहब्बत में जो ज़ुल्म-औ-सितम की इंतेहा करते हैं,
इश्क-औ-मोहब्बत के नाम को वोह बदख्वाह करते हैं,
कम-इल्म हैं वोह या फिर नावाकिफ़ हैं हकीकत से -
कि खुदा की शान में वोह एक संगीन गुनाह करते हैं।

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30. मेरे कमरे में उसका दबे पांव आ जाना भी गज़ब,
और चुपके से मेरी पेशानी को चूम लेना भी गज़ब,
और फिर मुझको मुस्कुराकर आंखें खोलता देखकर -
उसका पापा कहकर मुझसे लिपट जाना भी गज़ब।

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31. एहसास है तो रूदाद-ए-हयात है,
एहसास है तो सांसों का साथ है,
एहसास का ज़िंदा रहना ज़रूरी है -
एहसास है तो कायम कायनात है।

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32. काली रातें क्या बिगाड़ सकती हैं तुम्हारा या मेरा,
काली रातें तो आती हैं जाती हैं डालती नहीं हैं डेरा,
काली रातें आती हैं बनके मेहमान चंद घड़ियों की -
काली रातें दे जाती हैं जाते जाते इक उजला सवेरा।

33. आप मेरी खामोशी-ए-लब पर ही एतबार किए बैठे हैं,
मेरे दिल में कोई ग़म नहीं है, यह यकीन किए बैठे हैं,
आतिशफ़िशां में क्या है, फूटने पर ही नज़र आता है -
और आप हैं कि उसकी चुप्पी पर मुतमइन हुए बैठे हैं।

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34. साकिया खूब नाज़-औ-अंदाज़ से आप ने मेहरबानी की है हम पर,
इस कदर पिलाई है हमें कि होश-औ-हवास भी नहीं बाकी है हम पर,
और बावजूद इसके दस्तूर-ए-हिज्जाब आप फिर भी निभाए जाते हैं -
एक होशमंद को कर के बेहोश क्यों यह रस्म-ए-पर्दगी है हम पर।

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35. अजब थे, साकिया, आप के अंदाज़-ए-शौक-औ-सजावट के कल शब,
गज़ब थे, यकीनन, मंज़र आपकी इंतेहा-ए-शौक-औ-सजावट के कल शब,
हम तो सच में कायल  हो गए आपकी इंतेहा-ए-इनायत को देखकर –
आपकी बज़्म में सिर्फ़ हम थे, आप थे और और कोई ना थे कल शब।

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36. पाल लेते हैं इस जहां में जो जो भी मर्ज़-ए-इश्क,
इंतेहा-ए-दर्द से बहुत बहाने पड़ते हैं उनको अश्क,
पर असलियत में जीना तो बस उन्हीं का जीना है -
दुनियां वाले तो बस करते रह जाते हैं उनसे रश्क।

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37. रिवायतों को मानना, यह माना कि सदियों पुरानी कहानी है,
लेकिन रिवायतों का ग़ुलाम बन कर रह जाना भी नादानी है,
रिवायतों को मानते रहना ही अगर बवाल-ए-जान बन जाए -
तो फिर रिवायतों को तोड़ देना ही समझदारी की निशानी है।

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38. पीकर जाम-औ-मीना से अगर आप लड़खड़ा दिए तो क्या कमाल किया,
चश्म-ए-साकी से पीकर लड़खड़ाते तो हम समझते कुछ कमाल किया,
उनका तो सिर्फ़ अल्लाह ही हाफ़िज़ है जो बिन पिए ही डगमगाते रहते हैं -
हमारी तरह जो पी कर संभल जाते तो हम मानते कुछ कमाल किया।

39. अना चीज़ है वोह जो किसी के भी ज़हन पर कभी भी छा सकती है,
छीन सकती है होश-औ-हवास और तबाह और बर्बाद कर सकती है,
असलियत में अना वही पाल सकता है जिसकी सोच में यह हो कि -
एक अना ही तो है जो उस के एहसास-ए-कमतरी को छुपा सकती है।

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40. सहमे सहमे से क्यों नज़र आ रहे हैं ये तुम्हारे शहर के लोग,
चारसू बेबसी का आलम है, अफ़्सुर्दा हैं तुम्हारे शहर के लोग,
दहशतगर्दों या हुकुमरानों से दहशत खाए हुए हैं ये लोग या -
अपने ही किसी खौफ़ से खौफ़ज़दा हैं तुम्हारे शहर के लोग।

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41. तूफ़ान ने तो तसल्ली से उछाल दिया था मेरे सफ़ीने को साहिल पर,
तूफ़ान ने तो निहायत खैरियत से पहुंचा दिया था मेरे सफ़ीने को साहिल पर,
इसे नाकामी अपनी तदबीरों की समझें या फिर साज़िश मानें हालात की -
या कहें इसे बेरुखी तकदीर की जो डुबा दिया था मेरे सफ़ीने को साहिल पर।

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42. तुम से हमें ना कभी कोई शिकवा रहा और ना ही कभी कोई गिला,
हमें तो दुनियां से भी ना कोई शिकवा रहा और ना ही कभी कोई गिला,
तुम तो अपने होकर भी आगे बढ़ गए, तुमसे गिला करते भी तो कैसे –
तो दुनियां से भी हमें ना कोई शिकवा रहा और ना ही कभी कोई गिला।

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43. क्या कर दिया जो किसी के दिल से अपना दिल मैंने एक कर लिया,
किसी का बनने का और उसको अपना बनाने का मैंने दम भर लिया,
ऐसा क्या हो गया कि सभी लोग मेरे लिए दुआ ही दुआ मांग रहे हैं -
दिल को ही लगाया है किसी से, कोई गुनाह तो मैंने नहीं कर लिया।

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44. माज़ी की वोह बात जिसके ज़िक्र पर वोह शर्म से लाल हुए जा रहे थे,
और चेहरे की बदलती हुई रंगत में वोह हमें और भी ज़्यादा भा रहे थे,
हमारी शोख़ी भी देखिए, उसी बात को हम बार बार दोहराए जा रहे थे,
और रफ़्ता रफ़्ता उन की गुलाबी रंगत का हम लुत्फ़ उठाए जा रहे थे।
 45. अफ़सुर्दगी सी छाई हुई थी उनके दिल में हमारे ग़म में साथ देने के लिए,
हमारे दिल पे हाथ उन्होंने रख दिया हमारे दिल को तसल्ली देने के लिए,
तस्कीन-ए-दिल तो हमें क्या मिलती, उल्टा शोला-ए-इश्क और भड़क उठा -
यही हसरत है कि हाथ दिल पर यूं ही रखे रखें ताउम्र साथ देने के लिए।

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46. अनगिनत रातें उनके बग़ैर काटकर दिल नें कहा, "अब हम और सब्र ना कर पाएंगे,
आज तक जो नहीं आए, आने वाले वक्त में क्या वोह हमारी आस पर उतर पाएंगे,
उम्मीद कभी नाउम्मीद नहीं होती है, उम्मीद कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती -
हमने फिर सब्र का दामन थाम लिया कि ज़रूर वोह हमारी आस पूरी कर पाएंगे। 

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47. दूर से मेरी आंखों में चमक देखकर लोग यह समझ जाते हैं कि मेरे रू-ब-रू तुम आए हो,
सोते सोते मेरे लबों पर मुस्कुराहट देखकर लोग समझ जाते हैं कि सपने में तुम छाए हो,
दिलरुबा की दिलरुबाई मुझ पर हावी हो जाती है तो लोग समझ जाते हैं कि तुम भाए हो,
आंखों में तुम हो, ख्वाबों में तुम हो, दिल में तुम हो, मेरे रोम रोम में तुम ही समाए हो।

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48. तबीब ने मेरी नब्ज़ पर हाथ रखकर कहा, "तुम्हारा तो मर्ज़ ही ला-इलाज है",
हबीब ने मेरे दिल पर हाथ रखकर कहा, "घबरा मत, खुदा बड़ा ही कारसाज़ है",
रकीब ने मेरे गले पर हाथ रखकर कहा, "तेरा जीना मरना तो अब मेरे हाथ है" -
मैंने हंसकर रकीब से कहा, "वाह, क्या बात है, यही तो मेरा आख़िरी इलाज है"।

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49. रस्म-ए-दुनियां को ही अगर निभाना है तो जाओ,
और जाकर तुम रस्म-ए-दुनियां ही को निभाओ,
और रस्म-ए-दुनियां को छोड़ कर अगर आ सको - 
तो फिर आ जाओ और रस्म-ए-इश्क को निभाओ।

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50. आज वोह कुछ खास ही मूड में थे, मुस्कुरा कर यूं बोले, "आप तो नायाब हो,
हर कोई आप की शख़्सियत में उलझ कर रह जाता है, आप तो लाजवाब हो"  
उनकी बात की तस्दीक करने की खातिर हमने अपने अंदर झांक कर कहा -
"बात तो आपकी ठीक ही है पर मेरे हर फ़ल्सफ़े की आप ही तो किताब हो।"

51. तमाम उम्र हर पल हमने तुमसे, फ़क्त तुमसे बेलौज़ मोहब्बत की है,
पर तुमने यह क्या किया, हमारे साथ सय्यादों वाली सियासत की है,
पर कटवाकर जब हम खुद को कैदी मान चुके थे इश्क के पिंजरे का -
कैद से छुटकारा दिला कर तुमने हमें आज़ाद होने की इजाज़त दी है।

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52. यह माना हमने कि उनके आते ही ज़ोरों से धड़कने लगता है हमारा दिल,
हालात-ए-दिल को समझना लाज़िम है, सुनें तो क्या कहता है हमारा दिल,
"कमज़ोरी-ए-दिल को मद्द-ए-नज़र रखो और धड़कन-ए-दिल पर काबू रखो -
ऐसा न हो कि हमारे इस मौका-ए-जशनां पर जवाब दे जाए हमारा दिल।"

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53. दिल का अल्हड़पन जब भी कभी दिमाग़ की सुचारू सोच के आड़े हो जाता है,
तो दिग्गज से दिग्गज खिलाड़ी भी अपने वर्तमान के समक्ष आपा खो जाता है,
यह माना कि दुनियावी मामलों में दिमाग़ की सोच को बेहतर समझा जाता है,
पर प्यार मोहब्बत के फ़ैसलों में दिल का कहा मानना ही बेहतर हो जाता है।

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54. सुरमई सी रंगत लिए हुए क्या पुरनूर और बेमिसाल चेहरा है आपका,
आंखें बेचारी चुंधिया कर रह जाती हैं, क्या पुरजलाल चेहरा है आपका,
यकीनन आपके चेहरे की चमक या तो माहताबी है या फिर आफ़ताबी -
निगाहें वहीं टिककर रह जाती हैं, क्या रौशन जमाल चेहरा है आपका।

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55. बज़्म-ए-इल्म-औ-सुखन है यह, चले आओ मेरे दोस्तो,
जो कुछ हासिल करके ले जा सको, ले जाओ मेरे दोस्तो,
अदब-औ-अदीब की ये बातें फिर कब और कहां मिलेंगी -
जितनी भी तुम ले कर जाना चाहो, ले जाओ मेरे दोस्तो।

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56. वाइज़ों की एक एक लम्हा बयां की गई इन रंगीं बयानियों पे मत जाओ,
शेख़ साहब के किए गए जन्नत दिलाने के इन हसीन वादों पे मत जाओ,
रंगीनियां और जन्नती रौनकें ढूंढ रहे हो, मिल जाएंगी ये उनकी आग़ोश में -
उनके इंकार में झलक इकरार की भी है, उनकी न नुक्करियों पे मत जाओ।

57. कागज़ के फूल गुलदस्तों में पड़े पड़े ही अपनी खूबसूरती पर इतराते हैं,
कौन समझाए इन्हें कि बाज़ारी रंग जिन्हें ओड़कर वोह इतना इतराते हैं,
आरज़ी हैं और चार दिन के मौसमी उतार-चढ़ाव में ही फीके पड़ जाते हैं,
फूलों की असल पहचान होती है खुशबू से जिसपर असली गुल इतराते हैं।

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58. किताब-ए-हयात के पहले चंद वर्कों में तो लिखावट निहायत ही खूबसूरत होती है,
ज़िंदगी का सफ़र ज्यूं ज्यूं आगे बढ़ता है तो लिखावट कुछ कम खूबसूरत होती है,
शुरुआती वर्कों में होती है बंदे की तकदीर जो कातिब-ए-तकदीर ने लिखी होती है,
फिर आती है तफ़सील उसकी तदबीरों की जो अपने हाथों से उसने लिखी होती है।

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59. कई औरों को किसी के सजदे में गिरा देख कर मैं भी उसके सजदे में गिर गया,
मुझ को उस के सजदे में गिरा देख कर कोई और भी उसके सजदे में गिर गया,
इस तरह से हुई इब्तेदा और बन गई एक लंबी फ़ैहरिस्त खुदा के गुनाहगारों की -
खुदा तो फ़क्त तू ही है, मुझको माफ़ करना मैं किसी और के सजदे में गिर गया।

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60. लिखने वाले नें मेरी ज़िंदगी के सफ़र का निचोड़ खुद ही जमा दिया,
और कातिब-ए-तकदीर नें उसे कागज़ पर लिखकर मुझे थमा दिया,
उस पर लिखा था, "तदबीरों का बादशाह बन, तकदीर की मत सोच -
समझ ले, खुद मंज़िल नें राह-ए-मंज़िल को तेरी तकदीर बना दिया"।

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61. कल रास्ते में चलते चलते मुझे वोह मिल गई सारी दुनियां को जिसकी तलाश है,
मैंने पूछा कि कौन हो तुम और इन अंजान रास्तों पर तुम को किसकी तलाश है,
कहने लगी, "बहुत से लोग यहां ज़िंदा होने के बावजूद मुर्दा जिस्म लिए फिरते हैं -
मैं ज़िंदगी हूं, मैं ऐसे ही लोगों में जान फूंकने आई हूं, मुझको उन्हीं की तलाश है"।

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62. काम के सिलसिले में अमूमन होता है मेरा आना जाना इसी रास्ते से,
रास्ते नें भी जैसे तस्लीम कर लिया है मेरा आना जाना इसी रास्ते से,
जब भी इस राह में तुम मेरे हमराह होते हो, सफ़र जल्दी कट जाता है -
रास्ते को भी जैसे अच्छा लगता है तेरा मेरा आना जाना इसी रास्ते से।

63. इश्क अगर गुनाह है तो इस गुनाह में तुम और हम दोनों शामिल हुए,
तो फिर ये कर्ज़-ए-वाज्बात-ए-इश्क अकेले हम पर ही क्यों नाज़िल हुए,
ज़ाहिरी तौर पे इस गुनाह में तुम और हम दोनों बराबर के शरीक थे -
फिर वोह कर्ज़ तुम पे भी नाज़िल क्यों ना हुए जो कि हम पे नाज़िल हुए।

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64. आपका यह कहना है कि हम बेवफ़ा हैं और बेवफ़ाई करते हैं,
आपका यह कहना बिल्कुल सही है कि हम बेवफ़ाई करते हैं,
लेकिन यह कहना सरासर इल्ज़ाम है हमपर कि हम बेवफ़ा हैं -
हम बेवफ़ा नहीं हैं, हम तो पूरी वफ़ा के साथ बेवफ़ाई करते हैं।

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65. वोह भी वक्त था कि हम उनको ख़त लिखा करते थे उनके जवाब के लिए,
और हफ़्ता दो हफ़्ता हम इंतेज़ार भी किया करते थे उनके जवाब के लिए,
आज के तकनीकी युग जैसी शिद्दत कभी भी ना थी उनके जवाब के लिए,
पांच मिनट बाद ही हम नाराज़गी ज़ाहिर कर देते हैं उनके जवाब के लिए।

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66. सजाया गया गुलों को जब गुंचों में तो गुंचे मुस्कुरा उठे,
मुस्कुराता देख गुंचों को उनमें सजे गुल भी मुस्कुरा उठे,
ग़ुमां था गुंचों को अपनी खूबसूरती पर पर नादां थे वोह -
उनकी खूबसूरती तो गुलों से है जो गुंचों में मुस्कुरा उठे।

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67. बहुत करते थे दावा पारसाई का, पारसाई उनकी कहां खो गई,
हया की मूरत हव्वा की बेटी, सिर से रिदा उसकी कहां खो गई,
इल्ज़ाम औरों की ज़्यादती का उस पर धरें भी तो कैसे धरें -
नाज़ों से पला आदम का बेटा, आंखों से हया उसकी कहां खो गई। 

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68. ज़ख़्मों में जब नमक मिलता है तो ज़ख्म नासूर बन जाते हैं,
इसीलिए तो लोग ज़ख़्मों पर नमक छिड़ककर लुत्फ़ उठाते हैं,
मग़र आंसुओं में मिलकर तो नमक की तासीर बदल जाती है -
इसीलिए हम अपने ज़ख्मों को आंसुओं से धोकर सुकून पाते हैं।

 69. रोज़ आ जाते हो तुम, मांगने मुझसे मेरी खुशियों का हिसाब,
कभी तो आ जाओ तुम, मांगने मुझसे मेरी ग़मियों का हिसाब,
तुम क्या जानो रातों को जाग जागकर क्यों तारे गिनता हूं -
जाने कब आ जाओ तुम, मांगने मुझसे मेरी तन्हाइयों का हिसाब।

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70. यह क्या कि एक ही लम्हे में तर्क-ए-ताल्लुक आपने हमसे कर दिया,
एक झटका दिया और उलझे हुए दामन को अलग कांटों से कर दिया,
नताइज दिल के टूटने का अन्देशा और दामन के चाक होने की सूरत -
इस कदर भी बेरुखी क्या किनारा आपने दोनों ही सूरतों से कर दिया।

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71. सितम यूं न ढाया करो कि छलक जाएं आंसु मेरी आंखों की दहलीज से,
लेकिन जब कभी बेसाख़्ता छलक आएं आंसु मेरी आंखों की दहलीज से,
खुश ना हुआ करो, कमज़ोरी के ये वक्ती लम्हे चुटकी बजाते गुज़र जाते हैं -
वापसी का रुख ले लेते हैं, ना टपक पाएं आंसु मेरी आंखों की दहलीज से।

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72. हर बार इक नया ज़ख़्म देते हो और साथ ही ज़ब्त रखने को कहते हो,
ज़ख़्मों को तो कुरेदते रहते हो लेकिन लबों को सिए रखने को कहते हो,
वाह, पैमाना-ए-हद्द-ए-बर्दाश्त को भी हमारे ही हाथों में थमा दिया आपने -
धीरे धीरे दर्द को बढ़ाते हो और पैमाने पर नज़र रख्नने को कहते हो।

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73. तू नहीं आती तो ज़हन में याद तेरी उभर आती है,
और यादों के झरोखों से परछाई तेरी उभर आती है,
जब बहले से नहीं बहलता दिल परछाई एवं याद से -
तो याद और परछाई से तस्वीर तेरी उभर आती है।

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74. हमारी मैनोशी पे तानाज़न हैं दावेदार ये पारसाई के,
मुफ़्त में हमें बदनाम करते हैं दावेदार ये पारसाई के,
पर्दा उठाओ, इनकी हकीकत दिखाओ, हम भी तो देखें -
खुद किस हद्द तक मुक्कदस हैं दावेदार ये पारसाई के।

75. हम आ गये हैं हंगामा-ए-शोर-औ-गुल लेकर, फूल हर सू अब खिले रहेंगे,
बड़ो आगे और फैलाओ बाहें और मिल जाओ गले, दिल ऐसे ही मिले रहेंगे, 
हम तो वोह हैं जो सन्नाटों के सीने को भी चीर कर मारते हैं किलकारियां -
हम भी तो आज देखें कि यह खामोश लब आखिरकार कब तक सिले रहेंगे।

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76. तेरी इन मद मस्त आंखों की झील में मैं डूब डूब जाता हूं,
हिचकोले खा कर उभरता हूं और फिर मैं डूब डूब जाता हूं,
यूं तो इस झील से बाहर निकलना कुछ मुश्किल काम नहीं -
डूबना इस में अच्छा लगता है मुझे, मैं डूब डूब जाता हूं।

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77. अना की राह में कहीं भी कोई दोराहा नहीं नज़र आता है,
अना का यह सफ़र तो हमें बस एक ही रास्ता दिखाता है,
अना अपनी को इस तरह से ढीला छोड़ देना सही नहीं है -
अना का वाहिद रास्ता सीधा जुदाई की तरफ़ ले जाता है।

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78. तूफ़ान-ए-हवादिस से हमको डराते क्यों हो, हम नहीं हैं इनसे डरने वाले,
ऐसे ऐसे तूफ़ानों से हमको डराते क्यों हो, यह तो दिलों में हैं हमने पाले,
हम तो वोह हैं तूफ़ान जिनके बिछौने होते हैं और घटाएं होती हैं ओढ़नी -
तुम तो जाओ अपनी फ़िक्र करो, ऐसे तूफ़ानों से हम नहीं हैं टलने वाले।

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79. तमाम खलकत की तख़लीक के बाद उसको बसाना भी तो लाज़िम था,
लिहाज़ा खुदा के लिए सारी कायनात ही को बनाना भी तो लाज़िम था,
मसला वर्जित फल का उठाना तो खुदा का एक वाजिब सा तरीका था -
खुल्द से आदम को निकालने के लिए कोई बहाना भी तो लाज़िम था।

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80. तमाम उम्र खरीद फ़रोख्त की परिंदों की, बदले में बददुआ ही लिखी थी,
सैय्याद बहुत खुश था छोड़कर परिंदे को, शायद कुछ दुआ ही लिखी थी,
लेकिन बिल्ली नें धर दबोचा परिंदे को, ऐसे ही लिखा था उसके लेखे में -
सवाब तो उसके नसीब में था नहीं, लेखे में उसके बददुआ ही लिखी थी।

81. रोबिनसन करूसो की तरह ज़िंदगी अकेले ही नहीं जिए जाते हैं हम,
हम तो फ़र्द हैं माशरे के, हर एक फ़र्द के साथ साथ निभाते हैं हम,
कमज़र्फ़ इंसान हम नहीं हैं, मय पी कर तो होश नहीं गंवाते हैं हम,
मय तो मातहती में रहती है हमारी, पी कर तो संभल जाते हैं हम|

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82. एक दिन खुरपी ले कर मैं ज़मीन को खुरचने में लगा था,
मेरे एक दोस्त नें पूछा कि यह मैं क्या करने में लगा था,
मैंने कहा "हमारे चारित्रिक मूल्य यहां पर ही कहीं दफ़न हैं -
उनको पुनर्जीवन देने को मैं ज़मीन को खुरचने में लगा था"।

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83. पांव छलनी हुए कांटों से, दुख उनका तो कोई जानता ही नहीं,
मुश्किलात राह-ए-आशिकी की भी तो कोई पहचानता ही नहीं,
लेकिन फिर भी एक लम्हे को भी रूह अपनी नहीं ज़ख्मी हुई -
फ़राख़दिली हमारी भी आप देखिए, दिल है के मानता ही नहीं।

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84. लोग जब हमारी बात सुनते नहीं तो धमाका करना लाज़मी हो जाता है,
लोग जब हमारी बात समझते नहीं हैं तो समझाना लाज़मी हो जाता है,
माना कि मजमा लगाना ना हमारा शौक है और ना आदत में शुमार है -
लोग जब समझकर नासमझ बनें तो मजमा लगाना लाज़मी हो जाता है।

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85. बेपर्दा इस तरह आप क्यों फिरा करते हो इन बर्फ़ की चट्टानों में,
आग लगाने का आप क्यों सिला करते हो इन बर्फ़ की चट्टानों में,
धुआं सा इन बर्फ़ की चट्टानों से अमूमन जो उठता नज़र आता है -
उसे असली शक्ल आप क्यों दिया करते हो इन बर्फ़ की चट्टानों में।

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86. जिस बात के ज़िक्र पर वोह शरमाकर बल खाए जा रहे थे,
उसी बात को हम अपने शोख़ अंदाज़ में दोहराए जा रहे थे,
हमारे शोख़ मिजाज़ पर उनका तो शरमाए जाना लाज़मी था -
पर हम तो मुस्कुराए जा रहे थे और लुत्फ़ उठाए जा रहे थे।.

87. खुल्द से आदम को निकाल बाहर करना, क्या, उसकी खता थी?
एक मोहब्बत भरे दिल को उसका रखना, क्या उसकी खता थी?
मोहब्बत एक पाक जज़बा है, उसके लिए सज़ा वाजिब है क्या -
मोहब्बत की खातिर हव्वा से फल ले लेना, क्या उसकी खता थी?

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88. माज़ी को नज़र अंदाज़ कर के यूं ताल्लुक आप हमसे कता ना कीजिए,
कुछ नहीं तो आपसी मिलने जुलने का सिलसिला तसलीम कर लीजिए,
आपको मानना होगा आपसे जुदा होके हमारा तो वजूद फ़ना हो जाएगा -
हबीब समझकर सही, डूबते के पास तिनके का सहारा तो रहने दीजिए।

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89. तमाम उम्र ज़माने भर के सितम सहते रहे हम,
खामोशियों को ही मुकद्दर बनाकर रहते रहे हम,
वक्त-ए-शाम की हम को खबर ही नहीं होने पाई -
ना जाने कैसे कतरा कतरा करके बहते रहे हम।

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90. दोस्तो, फूल हूं एक खिलता हुआ सा मैं,
जहां देखो खुशी को बिखेरता हुआ सा मैं,
मुश्किलें लाख पड़ें, कोई ग़म नहीं है मुझे -
कांटों के दर्मियान भी हंसता हुआ सा मैं।

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91. तमाम उम्र जिस के साथ हम साथ निभाने की बात करते रहे,
तमाम उम्र जिस के साथ हम हाथ मिलाने की बात करते रहे,
जिसको हम हमेशा ही अपना दस्त-ए-रास्त तसलीम करते रहे -
वोही हमारे साथ दुश्मनी की बिसात जमाने की बात करते रहे।

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92. अपने खज़ीना-ए-शेर-औ-नग़मा को आज हम बाज़ार की चौपाल में लिए बैठे हैं,
इंतज़ार-ए-खरीददार की कोई हद्द मुअय्यन नहीं, हम सुबह से शाम किए बैठे हैं,
हमारी दौलत की क्या कीमत लगाए खरीददार, इससे नहीं कोई सरोकार हमको -
लेने वाला आल्लाह ज़र्फ़ होना चाहिए, हम मुफ़्त में देने की भी हुंकार दिए बैठे हैं।


93. यकीनन खुदा अपनी खुदाई से ही मिट्टी से आदमी को बना देता है,
पर कुछ तो खास शय और भी है जो खुदा मिट्टी में मिला देता है,
तासीर इस करामाती मिलावट की तो विरला ही कोई समझ पाता है -
पर जो समझ जाता है खुद को आदमी से इंसान वोही बना लेता है।

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94. दिल की लगी पे हमने उनके हुज़ूर में अपनी दरख्वास्त पेश कर दी,
सुन कर हमारी अर्ज़-ए-तमन्ना उन्हों ने चुप्पी सी अख्तियार कर ली,
देखकर उनकी खामोशी मायूस तो हुआ दिल पर शायद हमारी अर्ज़ी -
ज़ेर-ए-सोच होगी उनके, यही सोचकर हमने एक उम्मीद घर कर ली। 

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95. हम जलाते हैं चराग़ अपने घरों की तारीकी मिटाने के लिए,
आप करते हो चराग़ां अपने घरों को जशन मनाने के लिए,
खफ़ा ना होना मेरे इस तरह के बेखौफ़ अंदाज़-ए-बयां पर –
करते हैं रौशन चराग़ हम तो जहां में रौशनी फैलाने के लिए।

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96. दुशमन अगर दुशमनी निभाने पे उतर आए तो समझा दो ना उसे,
आप तो दिल में सिर्फ़ दोस्ती का जज़्बा रखते हो, बता दो ना उसे,
दुशमनी के बदले दुशमनी तो किसी मज़हब में भी जायज़ नहीं है -
आप खुद दोस्ती की पहल करके, सबक दोस्ती का पढ़ा दो ना उसे।

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97.  दफ़अतन राब्ते इस तरह से टूटे कि लगा जुदा हो जाएंगे हम तुम,
पर हमें था यह यकीन कि ताउम्र अहद-ए-वफ़ा निभाएंगे हम तुम,
टूटे तार भी जुड़ गए, फ़ासले भी मिट गए, रास्ते सब आसां हो गए -
अब कोई रंज नहीं, मलाल नहीं, मंज़िलों तक पहुंच पाएंगे हम तुम।

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98. नुमाइश फूलों की लगी हुई थी, चारों ओर फूल मुस्कुरा रहे थे, खिलखिला रहे थे,
नुमाइश देखने हमारे वोह भी आ गए, फूल बेचारे अब यहां वहां मुंह छुपा रहे थे,
खूबसूरती फीकी पढ़ गई थी फूलों की जैसे कोहरे की चादर ने ढक लिया हो उसे -
फूलों के ऊपर तो घनी उदासी सी छाई हुई थी पर हमारे वोह अब मुस्कुरा रहे थे।

99. कितने श्वास लिखवा के लाए थे हम और कितने मनफ़ी हो गए अपने खाते में,
यह हिसाब रखना भी लाज़मी है कि कितने श्वास बाकी रह गए हमारे खाते में,
धार्मिक दृष्टिकोण से भी देखें तो कर्मों का लेखा जोखा रखना भी लाज़मी होता है -
इसी पर निर्भर होता है जमा, घटा के बाद की बकाया राशि का कार्मिक खाते में।

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100. एक शख्स पर साइल ने निगाह कुछ पाने की उम्मीद से डाली,
बदले में उस शख्स ने हिकारत भरी एक निगाह साइल पे डाली,
मग़र शर्मिंदगी का एहसास उस मग़रूर शख्स को तो ले ही डूबा -
साइल ने जब उस शख्स को लम्बी उम्र जीने की दुआ दे डाली।

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101. हौसला वोह पैदा कर अपने जिगर में कि चट्टान भी फिसल जाए,
असर वोह पैदा कर तू आह-औ-बुका में कि पत्थर भी पिघल जाए,
दुशमनी ना कर किसी से, कोई दुशमनी करे तो सिखा दे उसे सबक -
दोस्ती का ताकि दुशमनी का इरादा उसके ज़हन से ही निकल जाए।

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102. रेत की तरह यह ज़िंदगी हाथों से मुख मोड़ती हुई निकल जाती है,
रेत के छोटे छोटे कण ज़िंदगी हाथों में छोड़ती हुई निकल जाती है,
रेत के छोटे छोटे कण कुछ भी नहीं हैं, कुछ यादें हैं, कुछ सपने हैं -
ये यादें और सपने, अतीत के पन्नों में जोड़ती हुई निकल जाती है।

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103. दिल बेचारा तो बेज़ुबां है, बेचारा हालात-ए-हाज़िरा भी न कह पाए है,
बात अपनी कहने को बेचारा ज़ुबान पर मुनहस्सर होकर रह जाए है,
असहाय इतना भी न हो जाए कोई कि बात भी अपनी न कह पाए है,
लेकिन ज़ुबान जब साथ देती है तो दिल का ग़ुबार सारा बह जाए है।

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104. यह सोहबत का ही तो असर है जो कांटे भी गुलों का सा मिजाज़ रखते हैं,
यह सोहबत का ही तो असर है जो हम भी शायरों का सा मिजाज़ रखते हैं,
गुलों की सोहबत नसीब नहीं हुई जो आप भी कांटों का सा मिजाज़ रखते हैं,
हबीबों की सोहबत नसीब नहीं हुई जो आप राकीबों का सा मिजाज़ रखते हैं।

105. लोग खामोशी हमारी पर मुख्तलिफ़ किस्म के सवाल उठाते हैं,
और शोख़ी हमारी भी देखिए कि हम मुस्कुरा कर टाल जाते हैं,
हमारी मानीखेज खामोशी पर लोग क्या क्या अटकलें लगाते हैं -
जिसको जो भी समझ आता है वैसे ही अफ़साने ढाल लाते हैं।

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106. मैखाने में जब कभी भी आप आ जाते हो तो शराब बेअसर सी होने लगती है,
मैखाने में साकी के हाथों से पैमाने छूटने लगते हैं, शराब बिखरने लगती है,
मैखाने में जब कभी हम आ जाते हैं तो शराब आबे-हयात सी लगने लगती है,
मैखाने में बेवज़ू आने और बावज़ू आने वाली बात समझ में आने लगती है।

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107. मिटा दो अपने दिल से कदूरतें सारी, उतारकर फैंक डालो अना की ओढ़नी,
समेट लो अपने दिल में सारे जहां का प्यार, पहन लो भाईचारे की ओढ़नी,
बेनकाब कर देगी दुनियां तुम्हें अगर पहने रहोगे तुम यह अना की ओढ़नी,
समेटे रहेगी आबरू तुम्हारी अगर पहने रहोगे तुम यह भाईचारे की ओढ़नी।

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108. बिछाकर कांटों को हमारी राहों में अब वोह हो रहे हैं खुद भी पशेमां,
पूछते फिर रहे हैं हर किसी से हमारी कांटों भरी मुसाफ़त की दास्तां,
मेरे किस्सा-ए-मुसाफ़त में क्या रखा है, सुनो कांटों की रूदाद-ए-हिज्रां,
कांटे तकलीफ़ हमें क्या देते, जुदा होके फूलों से थे वोह खुद ही परेशां।

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109. नाम से शदाद थे वोह और खुदा की खुदाई के दावे करते थे,
दुनियां में वोह एक नई जन्नत को बसाने के दावे करते थे,
नादान थे, ला-इल्म थे वोह, सच ना हुए खुदाई के दावे उनके -
फ़ना-औ-बेनाम-ओ-नमूद हो गए जो खुदाई के दावे करते थे। 

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110. रोज़-ए-जज़ा अल्लाह के इंसाफ़ पर एक वाजिब सा ऐतराज हमने दाखिल कर दिया,
खुदा के बही खाते पर एक बहुत ही अहम सवालिया निशां हमने नाज़िल कर दिया,
रियाज़ी का हुनर जो अल्लाह नें हमको बख़्शा था, शायद इसी रोज़ काम आना था -
हमारी तूल-ए-ज़िन्दगी में रोज़-ए-हिज्रां की गिनती को क्यों उसने शामिल कर दिया।
 111. जुदाई के गहरे समुंद्र में डुबो कर मुझे हाल मेरा आप ग़ैरों से पूछते क्यों हो,
दर्द के चढ़ते उतरते भंवर में छोड़ कर मुझे हाल मेरे चेहरे का देखते क्यों हो,
आप शायद ये सब सिर्फ़ मेरे बर्दाश्त के मादे को परखने के लिए करते होगे -
दिल के सुकून के लिए यकीनन नहीं वरना छुप छुप के आंसू बहाते क्यों हो।

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112. इश्क, प्रेम, प्यार और मोहब्बत से ही तो दिन-औ-रात है,
इश्क में छिपी नम्रता-औ-आजिज़ी अल्लाह की सौगात है,
साहिब के दरबार में अना की नहीं, प्रेम प्यार की बात है,
इश्क अल्लाह का नाम है और इश्क अल्लाह की ज़ात है।

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113. सुबह सुबह सूरज की रौशनी अपने आंचल में लालिमा ले के आती है,
दोपहर आते आते यही लालिमा सूरज की सफ़ेद धूप में बदल जाती है,
सफ़र के अंतिम पढ़ाव पर यह धूप शाम को फिर लालिमा दे जाती है,
यह लालिमा कहीं और नई सुबह की लालिमा के रूप में उभर आती है।

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114. रम्ज़-ए-इश्क इस तरह से अयां हो जाए, अच्छा तो ना था,
सात तालों में दफ़न भेद यूं बयां हो जाए, अच्छा तो ना था,
पोशीदगी को कायम रखने में हमने कोई कसर ना छोड़ी थी -
हमारी आंखें ही चुगलखोरी पर उतर आएं, अच्छा तो ना था।

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115. बेहतर यही है कि शाकिर हम अपने ही रिज़्क पे रह पाएं,
लिहाज़ा ज़रूरी है कि हम हाथ अपनी जेब ही में रखे आएं,
बजाए इस के कि अपनी नज़र दूसरों के रिज़्क पर ही रहे -
और ऐसा ना हो कि अपने हाथ उन की जेब में चले जाएं।

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116. ईश्वर, अल्लाह, नानक और ईसा के नाम हम दोहराते हैं,
हमारे ऊपर पढ़ी हुई हर तकलीफ़ से हम निजात पाते हैं,
साहिबे जहां की गफ़्फ़ारी में शक नहीं पर उसके नाम को -
गिनकर के माला, सिमरनी, तस्बीह एवं कंठी फिराते हैं। 

117. जो भी हालात-ए-हाज़िरा हम खुदा की इस कायनात में देख पाते हैं,
हकीकतन उनसे हट कर कई वाक्यात ऐसे भी देखने में आ जाते हैं,
जो दिमाग़ी सोच से अलग होते हैं और अजूबे-औ-मोजज़े कहलाते हैं,
दिमाग़ भले ही इन को ना माने, ये केवल दिल के दायरे में आते हैं। 

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118. पहले तो आपका मन आपको मृगतृष्णा के भंवर में फंसा देता है,
फिर सराबों की राह पे आपको सुंदर सुंदर सपनों में लगा देता है,
छोड़ दो अपने मन की ताबेदारी को और चल पड़ो परमार्थी राह पर -
वरना तो आपके जीवन को चौरासी के गोरखधंधे में उलझा देता है।

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119. कहीं पर आग लगी होने का हो जब इशारा, कुछ धुआं सा वहां भी नज़र आता है,
दिल की लगी से सुलग रहा हो दिल हमारा, कुछ धुआं सा वहां भी नज़र आता है,
कुछ धुआं सा कहीं उठता नज़र आए, कहा जाता है वहां आग का होना लाज़मी है -
बर्फ़ के कारखानों में आग होती नहीं खुदारा, कुछ धुआं सा वहां भी नज़र आता है।

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120. रात मेरी तो गुज़र जाती है तारे गिनते गिनते, रात ढल जाए पर दिन नहीं जाए,
दिन नहीं कटता लोगों को बर्दाश्त करते करते, रात ढल जाए पर दिन नहीं जाए,
तलवार तो एक तरफ़ से वार करती है पर ये दुनियां वाले दोतरफ़ा वार करते है -
दोधारी तलवार है दुनियां, जीते हैं कटते कटते, रात ढल जाए पर दिन नहीं जाए।

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121. यह एक महज़ ख्वाब-औ-खयाल तो है, लोग जिसको जन्नत कहते हैं,
महज़ एक ख्वाब-औ-खयाल जो है फिर क्यों  इसको जन्नत कहते हैं,
भले ही एक ख्वाब-औ-खयाल सही, काश हम यह हकीकत जान पाते -
कि यह महज़ ख्वाब-औ-खयाल क्या है, लोग किसको जन्नत कहते हैं?

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122.  बकौल जनाब कृष्ण बिहारी ’नूर’ साहब, आइना तो झूठ बोलता ही नहीं है,
पर जनाब यह आइना सच को भी तो सच के तराज़ू में तोलता ही नहीं है,
यकीन नहीं आता तो आइने के रू-ब-रू होकर दिल पे हाथ रखकर देख लो -
आइने में आपका अक्स दिल के दरवाजे को बाईं तरफ़ खोलता ही नहीं है।




123. ग़म-ए-इश्क इस कदर बढ़ गए हैं कि नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो चली है ये तन्हाई,
ला-इल्म हैं ये चारागर जो यहां वहां ढूंढते फिरते हैं मेरा इलाज-ए-ग़म-ए-तन्हाई,
दोनों जहां-औ-खज़ीना-ए-ज़नबील-ए-उमरू को भी हासिल नहीं ये दावा-ए-मसीहाई,
मोजज़ाई ज़नबील को भी मयस्सर नहीं है नुस्खा-ए-मोहब्बत की कोई कीमिआई।

MEANINGS

[नाकाबिल-ए-बर्दाश्त = Beyond Toleration] [चारागर = Doctor] [ला-इल्म = Ignorant]
[खज़ीना = Treasure] [ज़नबील = Invisible Sack] [उमरू =  Umru Bin Umayya was
known to be a trusted ally of Hazrat Ameer Hamza (Prophet's Uncle) and the amazing
thing about his zanbeel was that it was said to contain each and everything of the world
but still it would never get filled / empty] [दावा-ए-मसीहाई = Surety of treatment] 
[मोजज़ाई = Christmatic] [नुस्खा-ए-मोहब्बत = Formula of Love] [कीमिआई = Chemistry]

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भगवान और शैतान

124. कल राह में शैतान मिल गया, बोला, "तुम मेरी पार्टी में आ जाओ, सभी ऐश करते हैं,
ये भाई लोग और नेता लोग मेरी ही पार्टी से हैं, मेरी छवि को ही सभी कैश करते हैं,
भगवान की पार्टी में तुम क्या उम्मीद लेकर जी रहे हो, मृत्युपरांत स्वर्ग की प्राप्ति की -
मेरी पार्टी में लोग जीते जी स्वार्गिक आनंद की अनुभूति पाते हैं, सभी ऐश करते हैं"।

125. मैने कहा, "हम दल बदलने वाले नहीं, भगवान की पार्टी में खुश हैं और ऐश करते हैं,
हमें भाई लोगों और नेता लोगों से क्या लेना जो लोगों की मजबूरियों को कैश करते हैं,
भगवान की पार्टी में हमें स्वार्गिक आनंद की अनुभूति स्थाई तौर पर ही प्राप्त होती है -
तुम्हारी पार्टी के लोग तो अस्थाई तौर पर ही आनंद प्राप्त करते हैं और ऐश करते हैं"।

अशआर

चंद चुनींदा अशआर

 1. उनको हमारे साथ शायद अदावत है, हमारी बात ही वो नहीं करते हैं,
लेकिन हमें तो निस्बत है उनसे, हम हमेशा उनकी बात ही करते हैं।

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2. ज़ुबां से भले ही वोह कुछ ना कहें पर खामोश रहकर के सब कुछ कह देते हैं,
वोह साहिब-ए-हुनर अलग ही होते हैं जो ज़ुबान-ए-खामोशी को समझ लेते हैं।

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3. हमारी दुखती रग पे हाथ रखते हो हमें परेशां करने को आप,
कैसे कैसे तरीके ईज़ाद करते रहते हो हमसे खिलवाड़ करने को आप। 

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4. हंस हंस कर मिलते हैं ग़ैरों से और हमपर सितम ढाते हैं,
हम इसी में खुश हैं किसी बहाने उनको हम याद तो आते हैं।

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5. कुछ कुछ होता है दिल में जब उनसे कहीं मुलाकात होती है,
बहुत कुछ होता है दिल में जब उनसे नहीं मुलाकात होती है।

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6. गुज़ारते जा रहे हैं ज़िंदगी को हम महज यही खुशफ़हमी लेकर,
जिसके लिए निगाहें मुंतज़िर हैं हमारी, वोह भी तो राह देखे हमारी।

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7. बंदे के पेट पर पत्थर तो बांध दिया तुमने पर रोटी भी तो उसको दिया करो,
बंदे अपने को भूखे पेट सुला के ज़ात अपनी को छोटी भी तो न किया करो।

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8. ज़ह-ए-नसीब, तुम्हारी बेरुखी भी हम कबूल हंस कर करते हैं,
इस बहाने ही सही, निगाह-ए-करम तो आप हम पर करते हैं।

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9. अरे भाई, बंधे हैं हाथ मेरे और वोह कह रहे हैं कि उनका दम घुटा जा रहा है,
उनके गले पर ही तो बंधे हैं हाथ मेरे, इसीलिए तो उनका दम घुटा जा रहा है।

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10. हमेशा ही गुरेज़ रही है हमें यह मानने में कि मोहब्बत की अलग ही ज़ुबान होती है,
लेकिन संपूर्ण सिंह कालरा 'गुलज़ार' जी ने 'कोशिश' बनाकर यकीन दिला ही दिया।

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11. यूं तो अनगिनत जगह ज़िंदगी बसर करने को मिल जाती,
कुछ और बात होती आपके दिल में जगह जो मिल जाती।

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12. इस कदर शोर बरपा था जब आपकी बातों के चलते टूटा था हमारा दिल,
कि इस शोर के चलते हमारे दिल के टूटने की आवाज़ दब के रह गई।

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13. खुलकर कहो जो भी कहना है, बहुत दम है हम में, कुछ भी कहोगे सह जाएंगे,
हद क्या होगी, नाकाबिल-ए-बर्दाश्त ही तो होगा, मरेंगे फिर भी नहीं, सह जाएंगे।

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14. आफ़तों से बचकर के निकल जाना तो दयानतदारी का सबूत ही है,
पर आफ़तों को झेल जाना तो यकीनन दिलेरी का सबूत ही है।

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15. लिखते हो मेरा नाम अपनी हथेली पर और उसको मिटा देते हो,
लिख रखा है जो मेरा नाम अपने दिल पर, उसे मिटाओ तो मानें।

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16. हमेशा कस्में खाता हूं कि ना मिलूं उनसे पर दिल कस्मों को जानता ही नहीं,
फिर पहुंच जाता हूं उनसे मिलने की खातिर दिल है कि यह मानता ही नहीं।

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17. उसे सच्चे दिल से आप पुकार कर तो देखो, अपने आस पास ही पाओगे उसे,
सुख दुख तो एक ही सिक्के के दो रुख हैं फिर क्यों दुख में ही पुकारोगे उसे।

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18. बच के रहिए उन लम्हों से जाते जाते जो दिल के तारों को छेड़ जाते हैं,
दिल और जिगर दोनों छलनी हो जाते हैं उन तीरों से ये जो छोड़ जाते हैं।

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19. मैं कब से इस सोच में था कि कुछ तो लिखूं हाल-ए-दिल-ए-बेकरार,
पर क्या करूं सोचने सोचने में ही और बढ़ गई बेकरारी-ए-दिल मेरी।

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20 जब कभी भी कोई किसी के ग़ैरत-औ-वकार पे तंज कर देता है,
वोह खुद के ग़ैरतमंद होने पे सवालिया निशान खड़ा कर लेता है।

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21. हमारे द्वारा कहे गए अनेकानेक शब्द हमारे स्वयं को ही उजागर करते हैं,
क्योंकि हमारे शब्द हमारे मस्तिष्क के प्रतिबिम्ब को ही धारण करते हैं।

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22. हर सिम्त ऐसे सहमे सहमे से क्यों नज़र आए हैं तुम्हारे शहर के लोग,
हालात के सताए हैं या हुक्मरानों का खौफ़ खाए हैं तुम्हारे शहर के लोग।

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23. उनकी मस्त आंखों की गहराई में खुद को हमने डुबो तो दिया,
पर ऐन मौके पर उन्होंने पलकें झपका के कैद हमको कर लिया।

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24. एक साहब ने हमसे पूछा, "क्या आपने अपनी ज़िंदगी सारी यहीं बिताई है",
हमने हंसकर जवाब दिया, "अभी कुछ बची है, ज़िंदगी सारी नहीं बिताई है"।

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25. रंग-ए-हिना का उनके हाथों में इक डेरा सा बन गया है,
जैसे अर्श पर इन्द्रधनुषी रंगों का बसेरा सा बन गया है।

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26. तड़प वोह मिली है तुमसे कि चाहता तो सारे जहां को तड़पा देता इस तड़प से,
पर नहीं, शुक्रगुज़ार हूं मैं तुम्हारा, जज़्बा-ए-परतौ मिला है मुझे इस तड़प से ।

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27. बहुत ज़ब्त किया था, लब सी लिए थे मैंने, सोचा था कि कुछ ना कहेंगे हम,
पर सब राज़ खोल दिए इन्होंने, बहुत बेबाक निकलीं, धोखा दे गईं ये निगाहें ।

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28. हम नहीं हैं वोह जो साथ मरने की और साथ जीने की कस्में खाते हैं,
हम तो वोह हैं जो साथ मरने की नहीं, साथ जीने की कस्में खाते हैं।

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29. एक्सरे प्लेट अपने दिल की जब हमने महिला डाक्टर को दिखाई तो,
डाक्टर साहिबा लजा कर बोलीं, "वाह क्या बात है, दिल हो तो ऐसा"।

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30. उस पलड़े का वज़न ही क्या, भले ही रहें नेमतें हज़ार शामिल उस में,
पलड़ा तो मेरा ही भारी रहेगा, रहेगा जो तुम्हारा प्यार शामिल उस में।

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31. ये आराइश-औ-नाज़-औ-अंदाज़ की ज़हमत उठाने की ज़रूरत ही क्या थी,
हमें कत्ल करने को तो सबसे बड़ी तलवार आपकी सादगी और हया थी।

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32. तेज़ हो जाती हैं धड़कनें दिल की पास जब चले आते हो आप,
रुक के रह जाती हैं धड़कनें दिल की दूर जब चले जाते हो आप।

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33. राजा बनने के जो ख्वाहिशमंद होते हैं ज़माने में, खेल खेलते हैं हर प्रकार के,
हम तो हकीर बंदे हैं खुदा के, ना तो हैं हम राज के और ना ही राज दरबार के।

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34. यह तो हम ही हैं कि बंद आंखों में भी आपका ही अक्स रहता है हमारी आंखों में,
और आंखें खुली होती हैं जब तो आपका अक्स ही रक्स करता है हमारी आंखों में।

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35. अब कभी किसी लुटे हुए राहगीर का पता नहीं पूछ्ता हूं मै,
पहचान लेता हूं उसे मैं जब आइने के रू-ब-रू होता हूं मैं।

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36. यूं तो गुनाहगारी में भी लज़्ज़तें बेशुमार थी,
मग़र पारसाई में तो सरूर की भरमार थी।

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37. लहद मेरी पर जब आए तो मुस्कुराकर उन्होंने यह कहा,
"चलो पहली मर्तबा ही सही, नए कपड़े तो नसीब हुए इसे"।

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38. अरमान कुछ इस तरह से सुलग रहे हैं, ना जलें हैं ना बुझें हैं,
जैसे कोई गीली लकड़ियां सुलग रही हैं, ना जलें हैं ना बुझें हैं।

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39. जायज़ा लेना चाहते हैं आप तख़लीक-ए-कायनात करने वाले की परेशानियों का,
तो ले लीजिए ना जायज़ा किसी मौजूदा ट्रैफ़िक पोलीसमैन की परेशानियों का।

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40. मेरे मौला, जब कभी भी मेरी ज़ीस्त के दिनों का हिसाब करना,
तो गिनती-ए-रोज़-ए-हिज्रां उससे मनफ़ी करना नहीं भूलना।

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41. रह गए खड़े सब के सब बावफ़ा अपनी फ़ैरिस्त-ए-वफ़ा के साथ,
जबकि इक बेवफ़ा ने निभाई बेवफ़ाई अपनी समूची वफ़ा के साथ।

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42. बेमानी हो जाती है ज़िन्दगी जब कोई जज़्बात से खेल जाता है,
काबिल-ए-तरीफ़ वोह होता है जो बावजूद इसके झेल जाता है।

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43. जज़्बा-ए-कामिल को लेकर तैयार हो खड़े हुए जब आप तो,
दरवाजे पर दस्तक हुई, जाओ देखो, यकीनन मंज़िल ही होगी। 

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44. पंखुड़ी नाज़ुक सी किसी गुलाब की जब कभी देखता हूं,
तो बेसाख़्ता ज़हन पर छा जाते हैं तेरे लरज़ते हुए लब।

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45. पा जाते हैं निजात ज़हर-ए-ज़िंदगी से एक ही झटके में ये मरने वाले,
तफ़सील ज़िंदगी की दुश्वारियों की दे सकते हैं ज़िंदगी बसर करने वाले।

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46. दिल ख्वाहिशमंद था कि जब भी मिलेंगे वोह तो यह बात होगी और वोह बात होगी,
पर क्या खबर थी कि जब मिलेंगे वोह तो ना यह बात होगी और ना वोह बात होगी।

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47. जज़्ब किया हर तूफ़ान को सीने में, कभी उफ़ तक नहीं की है,
सारे हौसले पस्त हो गए, तुम्हारे इंकार ने वोह तारीकी पैदा की है।

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48. हमारे लाख मनाने पर भी वोह जब नहीं मानते हैं, 
तो हम सोचते हैं चलो एक बार फिर कोशिश कर लेते हैं।

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49. आलिम, इल्म; इल्म बिन आलिम; बिन आलिम तालीम नहीं,
हाकिम, हुक्म; हुक्म बिन हाकिम; बिन हाकिम तामील नहीं।

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50. खुदाया, कभी भी किसी मरीज़-ए-दिल के ये हालात ना हो जाएं,
कि मिज़ाज़पुर्सी के लिए आए लोग मरने की दुआ देके चले जाएं।

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51. इस कदर शोर मचाया मेरे दिल की धड़कनों ने उनके आने की खुशी में कि,
उनके दिल की धड़कनों की आवाज़ सर्गोशियों की मानिन्द खामोश हो गई।

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52. यह क्या किया, मेरे मोहतरिम, अपने खत के हाशिए में जगह दे दी मुझे,
अब देखते जाओ, रफ़्ता रफ़्ता कैसे मुक्क्मल मजमून में छा जाता हूं मैं।

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53. मिस्र में बच्चे डैडी की बनिस्बत अपनी ममी के ज़्यादा नज़दीक क्यों हो जाते हैं,
वोह बेचारे भी क्या करें क्योंकि मरने के बाद उनके डैडी भी तो ममी हो जाते हैं।

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54. एहसास ज़िन्दा होने के आज रह रह के मुझमें क्यों उठ रहे हैं,
यकीनन यह इश्क के जरासीम ही हैं जो मुझमें कुलबुला रहे हैं।

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55. हर तरफ़ अल्फ़ाज़ का इस कदर शोर रहता है कि कान बहरे हो जाते हैं,
पर खामोशी शोर जब मचाती है तो दिमाग़ के पुर्ज़े हिलने शुरू हो जाते हैं।

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56. आज तक लोगों से यही सुनते आए हैं कि खंडहर बताते हैं इमारत बुलंद थी,
यह भी कोई कहने की बात है, खंडहर बुलंद हैं तो इमारत अज़ीम रही ही होगी।

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57. हम अपनी खुदमुख्तारी का ऐलान तो बहुत पहले से ही कर दिए होते,
अगर इस बारे में अपनी बीवी से पूछने की कभी हिम्मत कर लिए होते। 

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58. दुनियांदारी में पर्दादारी, इस बात पर बहस मुबाहिस तो वाजिब है,
आप तो महशर में भी पर्दा किए बैठे हैं, यह कहां तक वाजिब है।

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59. हमने कभी भी अपने अश्कों को ग़मों की दास्तान बनने नहीं दिया,
कल्ब से निकलना तो लाज़िम था पर आंखों से छलकने नहीं दिया।

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60. राह-ए-ज़िंदगी में यूं तो कई मुख्तलिफ़ रास्ते पेश आए,
पर तेरे साथ के बग़ैर सभी नामुकम्मल रास्ते पेश आए।

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61. तीरगी मेहमान है फ़क्त चंद घड़ी की,  इसका जाना लाज़िम है,
फिर तीरगी से घबराना कैसा जब रौशनी का आना लाज़िम है।

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62. मैं तो हमसफ़र ही ढूंढता रह गया था, तमाम सफ़र-ए-हयात,
हमसफ़र ढूंढने ढूंढने में ही हो गया था तमाम, सफ़र-ए-हयात।

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63. तर्क-ए-ताल्लुक तो हम सारी दुनियां से कर लेते आपकी खातिर पर,
तर्क-ए-ताल्लुक आपसे, वोह भी दुनियां की खातिर, नहीं, कभी नहीं।

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64. रूदाद-ए-दर्द-ए-दिल को जब जब भी मैंने कागज़ पर जगाया है,
मेरे आंसुओं ने सावन की झड़ी बनकर मेरे लिखे को मिटाया है।

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65. जुदाई के रास्तों में वापसी का कोई मोड़ नहीं होता,
इन रास्तों पर न जाने से बेहतर कुछ और नहीं होता।

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66. जिबह करके मुझ को पांव के नीचे दबाकर रख लिया उसने,
जान जब तक बाकी रही मुझमें, फड़फड़ाने नहीं दिया उसने।

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67. किस कदर नाज़ था हमें उनसे राब्ते का, किसी को हम हिसाब क्या देते।
यक्लख़्त तर्क-ए-ताल्लुक कर दिया उन्होंने, दिल को हम जवाब क्या देते।

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68. जब से तहरीर दी है एहद-ए-तर्क-ए-ताल्लुक को हमने,
दुशमन बना लिया है अपने दिल-ए-नाज़ुक को हमने।

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69. तुमने तो हालांकि ऐलानिया कर दिया है हमसे तर्क-ए-ताल्लुक,
मग़र हमारे दिल नें कुबूल नहीं किया है तुमसे तर्क-ए-ताल्लुक।

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70. हालांकि रास्ता जो पकड़ा था, वोह टेढ़ा मेढ़ा था पर रास्ता बदला नहीं हमने,
नतीजा, मंज़िल हमारे रू-ब-रू है वरना तो शायद रास्ते ही बदलते रह जाते। 

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71. सिंदबाद का सेलर, कोलंबस और कैप्टन कुक क्या तलाश रहे थे और क्या पा लिया,
यह तो वाहिद साहिब-ए-जुस्तजू हम थे जो तेरी ही तलाश में थे और तुम्हें पा लिया।

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72. नुक्तावरों से सुना कि जहां धुआं होता है वहां आग का होना ज़रुरी है,
पर कुछ धुआं सा तो हमने बर्फ़ के कारखानों से उठते हुए भी देखा है।

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73. बर्फ़ के सीने में सुलगती हुई आग को फ़ानी होते हमने देखा है,
उस आग की तपिश से इस को पानी पानी होते हमने देखा है।

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74. यह क्या आप आ गए लेकर अपनी वफ़ाओं की फ़ैहरिस्त हमें दिखाने,
आप आंखें फेर लेते हो, आपकी तस्वीर में आंखें फेरने का चलन नहीं।

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75. ज़िक्र छिड़ते हैं जब भी हमारी वफ़ाओं के, तो शुरू हो जाते हैं चर्चे आपकी जफ़ाओं के,
और आप हैं कि मुशतहिर करते फिर रहे हैं, ज़माने भर में अफ़साने अपनी वफ़ाओं के।

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76. लोगों के तो सीधे तीर भी अक्सर अपना निशाना चूक जाते हैं,
पर आपकी तो तिरछी नज़र के तीर भी सीधे दिल पे आते हैं।

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77. जब भी दिल-ए-बेताब के भुलावे में आकर फ़ैसला लिया है हमने,
चंद नई मुश्किलात को अपनी ज़िन्दगी में बुलावा दिया है हमने।

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78. कफ़न नाउम्मीदी का क्यों पहना रहे हो उम्मीद को,
दफ़न नाउम्मीदी को कर दो, ज़िंदा रखो उम्मीद को।

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79. आज तो बयान कर ही डालो तुम हर ख्वाहिश जो तुम्हें हमसे है,
ख्वाहिश है पूरी कर ही डालें हम हर ख्वाहिश जो तुम्हें हमसे हैं।

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80. खुदा की देन है ज़िंदगी, इसका एहतराम तो लाज़मी है,
मौत दर पर जब देगी दस्तक तो वापसी भी लाज़मी है।

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81. चेहरे पर छाई हुई इन झुर्रियों की भयानक तस्वीर को मत देखो तुम,
निशां अनगिनत तूफ़ानों के पैबस्त हो रखे हैं इन टेहड़े मेड़े रास्तों पर।

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82. दिल दिया उन्होंने हमको अपना मानकर, यह तो थी उनकी फ़राख़दिली,
पर दिल के बदले अब दिल मांगते हैं वोह, यह तो है उनकी सौदागिरी।

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83. ज़िंदगी में जो कुछ भी खोया, उसी का सोचकर बिखरा हुआ हूं मैं,
ज़िंदगी में जो कुछ भी मिला, उसी का सोचकर निखरा हुआ हूं मैं।

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84. शब-ए-हिज्रां की कशमकश मत पूछिए कैसे रैन हमने बिताई,
 कभी मच्छरों ने गीत गाया तो कभी खटमलों ने सुर मिलाई।

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85. तस्वीर आप की दिल में हम यूं छुपाए हुए हैं,
जब याद आती है नज़र झुका कर देख लेते हैं।

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86. हमारे लहु के एक एक कतरे से नाम तेरा गूंजता है,
मार डालो, काट डालो, फिर भी तो नाम तेरा गूंजता है।

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87. मिट गई तीरगी ज़िंदगी हमारी से हमेशा ही के लिए,
ज़िंदगी हमारी में हुई आप की आमद रौशनी की तरह।

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88. मायूसियां इस कदर बढ़ गईं कि आशाओं का गला हमने खुद ही दबा डाला,
काम आंधियों का आसान कर दिया, अपना दिया हमने खुद ही बुझा डाला।

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89. बड़े से बड़े मसले को है दिया अंजाम हमने, इसका हमें हमेशा से नाज़ है,
आज के मसले नें अपनी कमर ही तोड़ दी है, यह जो मसला-ए-प्याज़ है।

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90. माना कि मैं एक आंसु हूं, फ़क्त एक बूंद समझकर अनदेखा ना कर मुझे,
सागर समेटा हुआ है मैंने अपने अंदर, फैलाव में भी एवं स्वाद में भी।

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91. आए सज धज के मेरी मैय्यत पर, ग़रीब का वक्ते दफ़न देखते चलो,
नए कपड़े तो नसीब हुए ही होंगे, ग़रीब का उजला कफ़न देखते चलो।

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92. हमने पूछा उनसे, "यह आपने एक आंख छुपा क्यों रखी है",
हंस कर बोले वोह, "हम सब को एक ही आंख से देखते हैं"।

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93. कैसे छोड़ देते तेरे शहर को हम तुझे देख लेने के बाद,
कैसे छोड़ देते जन्नत को जन्नत को देख लेने के बाद।

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94. गले का हार बनकर आए तो सतकार योग्य है शोहरत,
पांव की ज़ंजीर बन जाए तो दुतकार योग्य है शोहरत।

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95. सुलगती जा रही है ज़िंदगी शमा की मानिंद, फ़र्क इतना है,
कि जलना शमा का तो फ़क्त रात भर के लिए ही होता है।

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96. मुझे कब अपने सवाल के एवज़ में कोई कमाल चाहिए था,
राब्ता यूं ही रहे कायम, सवाल के एवज़ में सवाल चाहिए था।

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 97. तुम भले ही इसे खता कहो पर मोहब्बत तो हम तुम्ही से करेंगे,
हमारे खाते में एक और खता ही तो बढ़ेगी, यह खता हम ख़ुशी से करेंगे।

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98. गुल कभी भी फ़ना नहीं होते, हवाओं में अपनी महक छोड़ जाते हैं,
शायर कभी भी फ़ना नहीं होते, किताबों में अपनी चहक छोड़ जाते हैं। 

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99. गिले शिकवों को फ़ौरी तौर पर निपटा लेना ही बेहतर काम होता है,
वगरना जुदाई के रास्तों पर भटकना ही तो आख़िरी अंजाम होता है।

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100. ज़िंदगी खुशनुमा तो हया-औ-सादगी के रंग-औ-खुशबू से ही होती है,
रंग तो कागज़ के फूलों में भी होते हैं पर उनमें खुशबू नहीं होती है।

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101. बहुत नादान हो जो शहर-ए-खामोशां में शमा-ए-ज़िंदगी की शुआएं ढूंढते हो,
बहुत नादान हो जो आज के आम आदमी में खोई हुई खास अदाएं ढूंढते हो।

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102. आइने में अपने ही अक्स से नज़रें मिलाने से डरता कौन है,
नीयत हो साफ़ तो सच्चाई के रू-ब-रू होने से छुपता कौन है।

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103. मत बोल ऐसे बोल कि लोग तुम्हें नज़रों से गिरा दें,
बस बोल ऐसे बोल कि लोग तुम्हें नज़रों में बसा लें।

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104. कागज़ के फूलों की आराइश पे ही मुन्हसर मत रहने दो ज़िंदगी को,
कभी बरसात भी आ घेरती है, इससे बेखबर मत रहने दो ज़िंदगी को।

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105. सतकार कीजे उस दिल का जो मिलकर दिल से दिल की लगी को समझ जाए,
क्या कीजे उस दिल का जो मिलकर दिल से दिल की लगी को ना समझ पाए।

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106. मोहज़्ज़ब लहज़ा और नर्म आवाज़, इतनी भली और मीठी बातें आपकी,
आप वाकेई इतने अच्छे हैं या मंजे हुए खिलाड़ी हैं सियासती दाव पेचों के।

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107. हम नहीं हैं वोह जो मंज़िल को तलाशते हुए हम मंज़िल तक पहुंचे,
हम वोह रुतबा रखते हैं कि हमें तलाशते हुए मंज़िल हम तक पहुंचे।

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108. आज के दौर में लोग अपनों को भी अपना कहने में शर्माते हैं,
हम तो वोह साहिब-ए-किरदार हैं जो ग़ैरों को भी अपनाते हैं।

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109. दफ़अतन तोड़ देना ताल्लुक, यह भी ना सोचना क्या गुज़रेगी किसी पर,
दामन अगर उलझ जाए कांटों में तो उसको भी एहतियात से छुड़ाते हैं।

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110. वोह तो ठानकर आए थे कि जारी रखेंगे सितम चाहे हम बेज़ार हो जाएं,
ठानकर हम भी आए थे कि सहते रहेंगे सितम चाहे हम बेज़ार हो जाएं।

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111. मिट्टी से बने हैं हम, देह तो हमारी मिट्टी में ही बिखर जाएगी,
यह रूह जो कभी मिटती ही नहीं तो यह हमारी रूह किधर जाएगी?

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112. बेरुखी इस कदर ना दिखाया करो, बादल हमारी आंखों में घुमड़ घुमड़ आते हैं,
अश्कों के अनगिनत समुंद्र सैलाब बनकर हमारी आंखों में उमड़ उमड़ आते हैं।

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113. फ़राख़दिली हमारी से आप हमारे दिल पर काबिज़ हुए,
काबलियत अपनी से आप हमारी रूह पर काबिज़ हुए।

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114. सारे चिराग़ फ़िज़ूल थे मौजूद ना थी जब तेरी रौशनी मेरे जहां में,
सारे चिराग़ फ़िज़ूल हैं मौजूद है जो अब तेरी रौशनी मेरे जहां में।

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115. रम्ज़ जो पोशीदा था दिलों की गहराइयों में, ना जाने कैसे बयां हो गया,
आंखें चुगलखोर निकली, सात तालों में दफ़न राज़ ऐसे अयां हो गया।

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116. दिल के बहकावे में आ जाते हैं हम तो सराबों को हकीकत मान लेते हैं,
दिमाग से जब काम ले लेते हैं हम तो सराबों की हकीकत जान लेते हैं।

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117. उलझ जाए दामन तो छुड़ाते हैं बड़ी एहतियात से, दामन कहीं तार तार ना हो पड़े,
तर्क-ए-ताल्लुक दफ़अतन करते हैं, यह नहीं सोचते दिल कहीं ज़ार ज़ार ना रो पड़े।

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118. दुआ के लिए उठाता हूं हाथ तो यही मांगता हूं कि रब्ब बख्श दे मेरी मन्नत मुझे,
और कुछ मिले या ना मिले, एक तुम मिल जाओ तो मिल जाए मेरी जन्नत मुझे।

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119. यदि आप ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो, इच्छा शक्ति को प्रबल बनाओ,
ज्ञान प्राप्ति कोई कठिन कार्य नहीं, उसके लिए पहले साधन तो जुटाओ। 

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120.  सौदागरों के इस शहर में सुई से लेकर हवाई जहाज़ तक तो सब मिल जाएगा,
पर मांस का वोह लोथड़ा जिसे लोग दिल कहते हैं, एक वही नहीं मिल पाएगा।

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बाप और बेटा

121.   बदलते दौर में हालात बदले तो हैं लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं बदले, 
मां पहले भी बाप और बेटे के बीच माध्यम थी और आज भी है।

122.   पहले बेटा बाप से बात करने के लिए अपनी मां की मदद लेता था,
आज बाप बेटे से बात करने के लिए उसकी मां की मदद लेता है।

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खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बन्दे से खुद पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है।                  - अलामा इकबाल

123. खुदी को कर बुलंद पर इतना ना कर कि खुदी खुदी से अना हो जाए,
और अना इस कदर हावी हो जाए कि अना अना से खुदा हो जाए।

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हम वोह स्याह नसीब हैं 'तारिक' कि शहर में,
खोलें दूकान कफ़न की तो सब मरना छोड़ दें|                                              - तारिक अज़ीज़

124. स्याह नसीब को यूं न कोसो, उम्र कैद का कैदी नहीं है यह,
यह तो फ़क्त चार दिन की अंधेरी रात है, फिर चांदनी रात है।

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चंद कलियां नशात की चुनकर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूं,
तेरा मिलना खुशी की बात सही, तुझ से मिलकर उदास रहता हूं।   - साहिर लुधियानवी

125. अब तो एक आदत सी बना ली है हमने आंसु पीने की और ग़म खाने की,
अब तो तुम आ भी जाते हो तो फ़िक्र लगा लेता है दिल तुम्हारे जाने की।