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Tuesday, November 9, 2010

कविता - नसीब अपना अपना

शोख़-औ-रंगीन पहरन उनको मुबारक, चाक-ए-गरेबां अपना नसीबा,
जहां की रौनकें उनको मुबारक, तीरगी-ए-शब-ए-हिज्रां अपना नसीबा।

गुंचा-ए-गुलों की उनको भरमार, अपने हिस्से में आएं कांटे बेशुमार,
बहारें गुलशनां उनको मुबारक, सूखे पात-ए-खिज़ां अपना नसीबा।

चलें वोह तो सारा जहां चले, जो हम चलें तो साया भी ना साथ हो,
महफ़िल-ए-कहकहां उनको मुबारक, अश्क-ए-फ़रोज़ां अपना नसीबा।

सब करम साकी के उनके नाम, अपने हिस्से में आएं खाली जाम,
बज़्म-ए-चरागां उनको मुबारक, शाम-ए-ज़ुल्मत कदां अपना नसीबा।

खुशियां दोनों जहां की उनको मयस्सर, ग़म-ए-दौरां अपना मुकद्दर,
रंगीनियां ज़माने की उनको मुबारक, अंधेरे तमाम अपना नसीबा।

Sunday, October 31, 2010

नज़म - हमारे रिश्ते

हम हमेशा ही जमा के निशान का इंतेख़ाब करते आए हैं अपने रिश्तों में,
निशां मनफ़ी के तो कभी कहीं ज़िक्र में ही नहीं आए हैं अपने रिश्तों में।

माना कि रिश्तों को मिलाना फ़क्त ऊपर वाले के हाथों में ही होता है पर,
बरकरार ये सिलसिले तो अपने आप ही रखते आए है अपने रिश्तों में।

जब भी मिले हैं सुख हमको ज़िंदगी में, खैरमक्दम किया है हमने उनका,
सुखों का पाना एवं भोगना सदा मज़बूती बनाते आए हैं अपने रिश्तों में।

आंखों से टपके हुए आंसू हमेशा से कारामद साबित हुए राह-ए-ज़िंदगी में,
दुख अश्कों की लड़ी में पिरोए ताकि आंच नहीं आए है अपने रिश्तों में।

समुंदर तो नहीं हैं पर बड़े बड़े तूफ़ानों को अपने सीने में हमने संजोया है,
खुद को हम दो नहीं, एक ही तस्लीम करते आए हैं अपने रिश्तों में।

Monday, October 18, 2010

नज़म - हुस्न-ए-कामिल

जब कभी भी अपने दिल की गहराइयों से हम उन्हें पुकारते हैं,
सुनके फ़रियाद आते हैं वोह तो हम हुस्न-ए-कामिल को निहारते हैं।

ऐसे लगता है जैसे कोई हूर उतर आई हो जन्नत से इस ज़मीं पर,
कंवल खिल उठते हैं दिल के जब उन्हें अपने दिल में हम उतारते हैं।

नज़र उठती है जो उनकी जानिब तो फिर संभल नहीं पाते हैं हम,
गेसु अपने वोह कुछ ऐसे नाज़-औ-अंदाज़ से शानों पर बिखेरते हैं।

ज़ुल्फ़-ए-पेचां की तस्सवुरी में कुछ इस तरह से उलझ जाते हैं हम,
दिल को थाम लेते हैं और उनके काकुल-ए-पेचां को हम संवारते हैं।

उनके काकुल और रुख़सार से बड़कर और जन्नत क्या हो सकती है,
जैसे मिली हो बख्शिश-ए-फ़िर्दौस हमको, कुछ यूं हम इसे गुज़ारते हैं।

नज़म - मेरी कश्ती

दुशमनों ने तो खैर दुशमनी निभाई जो छोड़ दी मंझदार में मेरी कश्ती,
मेरे तो खुद अपने ही ले गए मोड़ कर तूफ़ान की जानिब मेरी कश्ती।

ग़ैर की खातिर कौन अपनी जान जोखिम में डालने की जुर्रत करता है,
किसी ग़ैरों से क्यों गिला करें जबकि मुश्किल ना थी बचानी मेरी कश्ती।

तूफ़ान समुंदर में कुछ यूं उछाले मार रहा था कि उसके तेवर बता रहे थे,
कि खुदा अगर कोई मोजज़ा कर दें तो वोह ही बचा सकते थे मेरी कश्ती।

ऐसे ही मोजज़े के हकदार भी थे हम और खुदा ने मोजज़ा कर भी दिया,
खुदा ने हम पर करम कर दिया उछाल के साहिल की तरफ़ मेरी कश्ती।

ना जाने ऐन वक्त हमारा क्या भूला हुआ सितम नाखुदा को याद आया,
कि रहमत-ए-खुदा को ठुकरा के साहिल पे ही डुबो दी उसने मेरी कश्ती।

नज़म - मेरा माज़ी

मेरा माज़ी तो खज़ाना है एक, मैं इसको बहुत संभाल करके रखता हूं,
हाल में जब जी परेशान होता है तो इसी से दिल लगा के रखता हूं।

मेरे इस खज़ाने में पैबस्त हैं मेरी अनगिनत भूली बिसरी हसीन यादें,
इन हसीन यादों की पूंजी को मैं सात तालों में बंद कर के रखता हूं।

माना कि मेरे माज़ी की इन यादों में शुमार ज़माने की तल्खियां भी हैं,
पर मैं तो इन तल्ख यादों को भी हर घड़ी खुशगवार बना के रखता हूं।

इन खट्टी मीठी यादों से ही तो ज़ाहिर होते हैं ज़िंदगी के दोहरे रुख,
इसलिए मैं हसीन यादों की तिजोरी में तल्खियां भी जमा के रखता हूं।

नज़म - मकसद

हम नहीं हैं वोह जो खुद भी हवाओं के रुख को साथ ले चल पड़ें,
हम तो वोह हैं जो हवाओं के रुख को ही मोड़ने के लिए चल पड़ें।

पहले हम अपने ही घर में खुद को अजनबी सा पाते थे मग़र अब,
ग़ैरों में भी सब अपने से लगते हैं जब उन्हें अपना बनाने चल पडें।

आज का चलन यह है कि एक भाई दूसरे भाई की जान के पीछे है,
ज़रूरी है कि हम लोगों में भाईचारा बढ़ाने के मकसद से चल पड़ें।

कौन अपना है और कौन बेगाना, नादान हैं जो यह सवाल उठाते हैं,
ज़रूरी है कि हम ऐसे लोगों के इन सवालों के जवाब देने चल पडें।

जहां में आकर फ़क्त एक मुसाफ़िर के मानिंद जीना काफ़ी नहीं है,
ज़रूरी है कि हम हर फ़र्द के वक्त-ए-ज़रूरत साथ उसके चल पडें।

नज़म - रहमत-ए-खुदा

धड़कन-ए-दिल थमने को हो लेती हैं जब मुद्दतों उनसे मुलाकात नहीं होती,
जब होती है निगाहें जमने लगती हैं और लब सिल जाते हैं, बात नहीं होती।

ताज का साथ हो और रू-ब-रू चांद हो तो जवानी मदमस्त हो जाती है,
रहमत खुदा की अपने संग होती है, चांदनी रात में बरसात नहीं होती।

मुश्तहिर कर दो इन सब दानिशवरों में कि आज आ जाएं हमारे मुकाबिल,
इश्क-औ-मोहब्बत हैं अपने मज़हब, अपने दिन तो होते हैं रात नहीं होती।

कायम करो दिल में कयाम-ए-मोहब्बत और जीत लो नेमतें दोनों जहां की,
ऐतमाद, अख़लाक, खुलूस, इल्म-औ-सुखन से बढ़कर कोई सौगात नहीं होती।

नज़म - मुख़्तसर सा सफ़र ज़िन्दगी का

जब कभी भी किसी भी जगह पर अज़ान पढ़ने की रसम होती है,
बतौर-ए-दस्तूर उस जगह पर नमाज़ पढ़ने की भी रसम होती है।

फ़ज्र, ज़ोहर, असर, मग़रिब या इशा, नमाज़ भले ही कोई भी रहे,
हर वक्त की नमाज़ से पहले अज़ान के पढ़ने की भी रसम होती है।

एक दस्तूर है नए जन्मे बच्चे के कान में अज़ान को पढ़े जाने का,
लेकिन एक इसी अज़ान के बाद नमाज़ ना पढ़ने की रसम होती है।   

वक्त-ए-रुखसत नमाज़-ए-जनाज़ा को पढ़ना तो लाज़मी होता ही है,
मग़र इस एक नमाज़ से पहले अज़ान ना पढ़ने की रसम होती है।

अज़ान से लेकर नमाज़ तक मुख़्तसर सा सफ़र है ज़िन्दगी का,
शुरू में अज़ान एवं आखिरी वक्त नमाज़ पढ़ने की रसम होती है।

नज़म - दोस्त और उनकी दोस्ती

दोस्तों का हर सितम हम गवारा कर ही लेंगे,
जो बर्दाश्त के काबिल ना होगा तो सह ही लेंगे।

दोस्त बेवफ़ाई पर ही उतर आएं तो क्या हासिल,
दोस्ती निबाही है तो बेवफ़ाई भी निभा ही लेंगे।

उम्र भर निबाहने का दम भरने वाले ये दोस्त,
ज़हर जो पिलाने आए हैं तो वोह भी पी ही लेंगे।

दोस्तों की दोस्ती के बिना जीना मुश्किल होगा,
अगर यूं भी जीना पड़ेगा तो हम जी ही लेंगे।

मेरे मौला दोस्तों की दुशमनी से हमें बचाओ,
दुशमनों को दोस्त बनाकर हम निभा ही लेंगे।

नज़म - दिल-औ-दिमाग़

दिल-औ-दिमाग़ में जब कभी भी किसी मुद्दे पर जद्द-औ-जहद होती है,
दिमाग़ क्योंकि माहिर है अय्यारी में, हर नुक्ते पर नज़र उसकी होती है।

लेकिन दिल तो सिर्फ़ एक खुशगवार नतीजे का ही ख्वाहिशमंद होता है,
अब इसे सही कहो या ग़लत, उसकी सोच तो बस एक तरफ़ा ही होती है।

सब ज़र्ब और तक्सीम दिमाग़ की दिल को नागवार गुज़रने लगती है,
लिहाज़ा दिमाग़ के हाथ खड़े हो जाते हैं और जीत तो दिल की होती है।

लेकिन कभी कभी हालात काबू से कुछ इस तरह बाहर हो जाते हैं,
दिल तो बेबस होता ही है, दिमाग़ की सोच भी नाकाम ही होती है।

माना कि हर वक्त-ए-सहर-औ-शाम दिल तो सब्ज़ बाग दिखाए है,
फ़तह तो दिमाग़ की शाइस्ता सोच को अहमियत देने से ही होती है।

नज़म - ज़ख्म

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की आदमी को रुला देती है,
ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की ज़िंदगी को घुला देती है।

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, शराब निहायत ही मुफ़ीद साबित होती है,
बाहरी ज़ख्मों को शराब सुखा देती है और अंदरूनी हों तो भुला देती है।

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, हल्दी भी उतनी ही मुफ़ीद साबित होती है,
बाहरी ज़ख्मों को हल्दी भी सुखा देती है, अंदरूनी हों तो भुला देती है।

ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी,  शराब-औ-हल्दी दोनों ही अग़र मुफ़ीद हैं,
तो शराब का ही सहारा क्यों लें जो ज़ख्मों को हल्दी भी सुला देती है।

Wednesday, September 8, 2010

कविता - हालात-ए-हाज़िरा

हालात-ए-हाज़िरा से मुझे बस एक यही शिकायत रही कि हमने क्या पाया,
बहके बहके से सोच में हैं हम कि जो बच गया है, यहीं ये सब रह जाएंगे।

कहने को बहुत कुछ था मन में पर हम किसी से भी कुछ नहीं कह सके,
रफ़्ता रफ़्ता सब कुछ किसी न किसी से तो बातें हम ये सब कह जाएंगे।

बहुत सारे सपने संजोए हुए थे मन में पर सब कुछ मन में ही रह गया,
पलक पलक उम्मीदें थी पर सोचा ना था हवाई किले ये सब ढह जाएंगे। 

रौशनी सूरज की तो मेरे साथ ही है और मेरी तलाश चारों तरफ़ जारी है,
फ़लक फ़लक जैसी ऊंचाइयां लिए हुए हूं, अरमान मेरे सब महक जाएंगे।

नज़म - हाथों की लकीरें

मेरे हाथों की लकीरें जब एक मुअय्य्न मोड़ पर जाकर खत्म हो जाती हैं,
तो दिल में यह सवाल उठता है क्यों ये वहां पर जाकर खत्म हो जाती हैं।
    
यह देख कंवल दिल के खिल उठते हैं वो वहां जा के खत्म नहीं होती हैं,
बल्कि तुम्हारे हाथों में छपी लकीरों में वहां पर जाकर जज़्ब हो जाती हैं।

यह हम दोनों आज जो साथ साथ हैं यह केवल लकीरों का ही तो खेल है,
ज़िंदगी में मिलन या जुदाई, ये बातें लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

कल क्या होगा, क्यों होगा, कैसे होगा, है कोई जिस को यह सब खबर है,
ज़िंदगी में सब ज़र्ब-औ-तक्सीम इन्हीं लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

दिल में उठते वलवले कहते हैं कि मैं ज़माने को फ़तेहयाब करके दिखाऊंगा,
पर ज़िंदगी की दौड़ में सभी तदबीरें लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

नज़म - यह बात मैं हर बार कहता हूं

बेतक्कलुफ़ होकर आप हमारे घर पे आओ, मैं खुश आमदीद कहता हूं,
तक्कलुफ़ को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं। 

सादगी तो आपकी कुदरत है खुदा की तो आराइश की क्या ज़रूरत है,
आराइशों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

हया से बढ़कर अदा और क्या हो सकती है, कोई यह बताए मुझे,
अदाओं को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

कहावत मशहूर है नहीं मोहताज ज़ेवर का जिसे खूबी खुदा ने दी,
सजावट को दरकिनार कर के आओ, यह मैं बात हर बार कहता हूं।

वादा नहीं करो हमसे मुलाकात का, बस चले आओ हमसे मिलने,
वादों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

दिल में बसे हुए हो आप हमारे जन्म जन्मांतर से, युग युगांतर से,
युगों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

Tuesday, August 31, 2010

नज़म - हम और हमारा रव्वैया

लोग कुछ ग़लत करते हैं तो हम उन्हें कम-ज़र्फ़ बताते हैं,
और अगर हम ग़लत करते हैं तो हालात अपने बुरे बताते हैं।

जब कभी हम गिरते हैं और लोग हंस कर निकल जाते हैं,
तो हम उनको उनके अख़लाक की दुहाई देने लग जाते हैं।

पर उस वक्त हमारा अख़लाक आख़िर कहां खो जाता है,
जब कोई और गिरता है और हम हंसकर निकल जाते हैं।

फ़क्त औरों को छोटा कह देने से हम बड़े नहीं हो जाते हैं,
दूसरों को छोटा बता के हम अपनी अना को जगाते हैं।

किसी को कोई हर्फ़-ए-ग़लत कहना कोई दानिशमंदी नहीं है,
इस तरह तो हम अपने एहसास-ए-कमतरी की मोहर लगाते हैं।

ठीक-औ-ग़लत के फ़ैसले लेने की ज़र्ब-औ-तक्सीम ही मुख़्तलिफ़ है,
किसी को ग़लत कह कर हम तो आल्लाह ज़र्फ़ नहीं हो जाते हैं।

बहुत आसान होता है किसी की जानिब एक उंगली का उठा देना,
उस वक्त देखें, इशारे तीन उंगलियों के खुद हमारी ओर हो जाते हैं।

MEANINGS

[कम-ज़र्फ़ = Lower Intellect] [अख़लाक = Sense of Responsibility]
[हर्फ़-ए-ग़लत = Wrong word] [दानिशमंदी = Rationality]
[एहसास-ए-कमतरी = Inferiority complex] [मोहर = Stamp]
[ज़र्ब-औ-तक्सीम = Multiplication & Division] [मुख़्तलिफ़ = Different]
[आल्लाहज़र्फ़ = Higher Intellect] [जानिब = Towards]

Wednesday, August 25, 2010

गज़ल - गज़ल

भले ही दिलेरी और बेबाकी के ज़राबख्तर को अपने साथ रखो,
सादगी-औ-हया की अमूल्य पोशाक को भी तो अपने साथ रखो।

मानाकि  खुशियों का इक खज़ीना आप अपने साथ रखते हो,
दूसरों में खुशियां बांटने के जज़्बे को भी तो अपने साथ रखो।

मोहब्बत में लोग दिल की इक नवेकली सोच से काम लेते हैं,
दिमाग़ी फ़ैसले और शाइस्ता सोच को भी तो अपने साथ रखो।

उल्फ़त में तो यकीनन आदमी की सोच इक तरफ़ा हो जाती है,
दो वक्त की रोटी के जुगाड़ की सोच को भी तो अपने साथ रखो।

मैं तो बहुत रईस हूं और हर जानिब चर्चे हैं मेरे रईसी ठाठ के,
दर पे आए हुए साइल की दी दुआ को भी तो अपने साथ रखो।

ज़िंदगी में रोबिनसन करूसो बनके जीना भी कोई मुश्किल नहीं,
लेकिन माशरे का इक फ़र्द होने का फ़र्ज़ भी तो अपने साथ रखो।

ज़िंदगी जीते जीते हर आदमी दुनियां में इशरत-ज़दा हो जाता है,
मौत का एहसास दिल में रखने का मादा भी तो अपने साथ रखो।

नसीबा बन बन भटकने का प्रभु श्री राम ने अपने गले लगाया था,
उनके ’मर्यादा पुरुषोत्तम’ होने के जज़्बे को भी तो अपने साथ रखो।

कर्म करके फल की इच्छा को रखना सब के लिए लाज़मी होता है,
श्रीकृष्ण के अर्जुन को ’गीता ज्ञान’ की याद भी तो अपने साथ रखो।

Monday, August 23, 2010

गज़ल - गज़ल

साँसें अगर साथ निभाती रहें तो चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं,
जो दग़ा दे जाएं साँसें, फिर कहां चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं।

अक्सर फ़र्ज़ अंजाम देने को लोग आ तो जाते हैं मिजाज़पुर्सी को,
पर दूसरों की तो सुनते नहीं, अपने ही अफ़साने बयान करते हैं।

आते देख उनको चिराग़ों की आबरू रखने को बुझा देते हैं चिराग़,
रू-ब-रू उनके रुख-ए-रौशन बेचारे ये चिराग़ रौशन कहां रहते हैं।

इक इक अदा तो उनकी कातिल है एवं हमी पर वोह नाज़िल है,
मुस्कुराकर ही ज़िंदगी देते हैं वोह और मुस्कुराकर कत्ल करते हैं।

बकौल जनाब-ए-ग़ालिब राह-ए-उल्फ़त तो आग का एक दरिया है,
यह राज़ समझ लो तो मंज़िल के मील पत्थर साथ साथ चलते हैं।

हर बूंद का नसीब नहीं पर एक बूंद तो सीप में मोती हो जाती है,
आदमी तो सभी होते हैं पर सभी आदमी इंसां तो नहीं हुआ करते हैं।

मैखाने में लोगों को फ़क्त मय, जाम-औ-मीना से ही काम रहता है,
विरले ही होते हैं वोह जो मैखाने से भी बिन पिए लौटा करते हैं।

Thursday, August 19, 2010

गज़ल - गज़ल

वोह जो कुछ भी कहते हैं सुन लेते हैं बिना हील-औ-हुज्जत के हम,
कहने को अपने पास बहुत कुछ है, हमने कहा कहा, ना कहा ना कहा।

दुनियां में कितने ही मुकाम हैं, ज़िंदगी तो कहीं भी बसर हो सकती है,
रहने को तो बहुत जगह है इस जहां में, रहा रहा, ना रहा ना रहा।

ज़िंदगी का क्या है, वोह तो ज़ुल्म-औ-सितम सह के भी गुज़र जाती है,
तुम तो ज़ुल्म-औ-सितम जारी रखो, हमने सहा सहा, ना सहा ना सहा।

काम दरिया का तो है चलते ही जाना, वोह तो चलने में ही मसरूफ़ है,
रवानी-ए-दरिया पे मत जाओ, पानी उसमें बहा बहा, न बहा ना बहा।

मोहब्बत में कई मुकाम होते हैं, लेकिन इज़हार-ए-मोहब्बत लाज़मी है,
इज़हार-ए-इश्क हम तो करते रहे, तुमने सुना सुना, ना सुना ना सुना।

आवागमन के इस मेले में हर खास-औ-आम इशरत-ए-जहां मांगता है,
हम तो फ़कीर हैं, मग़र कुछ हमको मिला मिला, ना मिला ना मिला।

इंतेहाई जुस्तजू-ए-अल्फ़ाज़ एवं दिमाग़ी जद्द-औ-जहद से गज़ल होती है,
पर बात तो वहीं आके अटकी है, किसी ने पढ़ा पढ़ा, ना पढ़ा ना पढ़ा।

तख़्लीक-ए-कायनात के वक्त यजदां ने बनाया तो सबको इंसान ही था,
मिजाज़ तो हर किसी का जुदा था, वोह बना बना, ना बना ना बना।

Thursday, July 29, 2010

कविता - एक और अभिशाप

आज फिर मखमली सी हथेलियां मेंहदी से रचाई गई,
आज फिर मरमरी से इन पाओं में महावर रचाई गई,
दुख-दर्द से पड़े ज़र्द चेहरे को कृत्रिम सी सफ़ेदी दे कर -
आज फिर इस चेहरे पर लालिमा सूरज की रचाई गई।

आज फिर ये वीरान सी आंखें काजल से सजाई गई,
आज फिर इन सूखे पड़े होठों पर लाली सजाई गई,
मग़र ये लब जो जाने कब से सिसकियां भर रहे थे -
आज इनपे एक क्षीण सी मुस्कान भी ना सजाई गई।

आज फिर सूनी पड़ी ये कलाइयां चूड़ियों से सजाई गई,
आज फिर उजड़ी पड़ी मांग सिंदूर के रंग से सजाई गई,
सती-प्रथा के हामी समाज के ठेकेदारों के इसरार पर -
आज फिर एक विधवा पति की चिता पर बिठाई गई।

कविता - एक अभिशाप

यह हाथ जो आज पत्थर ढो रहे हैं मेंहदी इन हथेलियों में रचा देते तो क्या था,
पत्थरों और कांटों से उलझते हुए इन पाओं में भी महावर रचा देते तो क्या था,
लेकिन यह चेहरा जो ज़माने की तानाज़नी और छींटाकशी से ज़र्द हो गया वरना -
इस चेहरे में आफ़ताब की रौशनी और चांद की चांदनी को रचा देते तो क्या था।

इन मुंतज़िर आंखों को यदि रात की कालिमा के काजल से सजा देते तो क्या था,
वक्त की मार से पीले पड़े इन होठों पे सूरज की लालिमा सजा देते तो क्या था,
लेकिन तकदीर-औ-तदबीर की कशमकश के मारे ऐसा कुछ भी न हो सका वरना -
सिसकियां भरते हुए रूखे लबों पे खुशियों की मुस्कान जो सजा देते तो क्या था।

चूड़ियों की खनक को भूली हुई कलाइयों में फिर चूड़ियां सजा देते तो क्या था,
इस हसीन दोशीजा को ज़ेवरात-औ-आभूषणों से फिर से सजा देते तो क्या था,
पर समाज के ये ठेकेदार विधवा-विवाह को आज भी अभिशाप कहते हैं वरना -
सुनसान सड़क की तरह दिखती इस मांग को सिंदूर से सजा देते तो क्या था।

Thursday, July 1, 2010

नज़म - जीवन संगिनी

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से फूल झरते हैं,
फूल जो उन के मुख से झरते है हम उनको चुनते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ाना नए गुलदस्ते सजते हैं,
इस तरह घर में ही बहार-ए-चमन से हम मिलते हैं।

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से मोती चमकते हैं,
मोतियों की इस चमक से हम झोली भर लिया करते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ ही नए नए फ़ानूस सजते हैं,
इस तरह घर में ही चांद-औ-सूरज की रौशनी भरते हैं।

ज़िंदगी के चमन में उनकी हंसी के गुल सदैव महकते हैं,
ज़िंदगी की चमक में हम उनकी हंसी की चमक भरते हैं,
बनके जीवन संगिनी मेरे जीवन में वोह कुछ यूं सजते हैं,
सफ़र-ए-हयात में अपने सब कदम साथ ही साथ उठते हैं।

Saturday, June 26, 2010

नज़म - आप और हम

जब कभी भी दिल में आपके पास आने की आस उभर आई है,
आपके हसीन लबों पर दबी दबी सी एक मुस्कान उभर आई है।

जब कभी भी आए हो आप और आपको रू-ब-रू हमने पाया है,
तो इक नज़म आपकी खातिर गुनगुनाने की सोच उभर आई है।

वोह बात जो एक अरसे से यादों की कब्र में दफ़न हो चुकी थी,
वही बात फिर आज ना जाने हमारे ज़हन में कैसे उभर आई है।

आपकी जिस बात ने हमारी ज़िंदगी के रुख को ही पलटा दिया,
याद करके उसको हमारे लबों पे भीनी सी मुस्कान उभर आई है।

हमेशा हमें तवक्को रही है कि आप मुस्कुराकर मिला करो हमसे,
पर हमें मिल कर आपके चेहरे पर यह उदासी क्यों उभर आई है।

रुख से पर्दा उठाओ तो जाने बर्क-ए-तज्जली ने कुछ किया तूर पर,
हमें भी ऐसा नज़ारा देखकर होश खो देने की आस उभर आई है।

शब्दार्थ

[बर्क-ए-तजल्ली = करामाती बिजली - जब हज़रत मूसा (मोज़ेज़)
पहली मर्तबा अल्लाह से मिलने कोहितूर पर्वत पर गए तो अल्लाह
के जलाल (करामाती बिजली) से कोहितूर पर्वत जल गया और
हज़रत मूसा (मोज़ेज़) कुछ पलों के लिए बेहोश हो गए)

Wednesday, June 23, 2010

Tuesday, June 15, 2010

कविता - ग़रीबी रेखा

ग़रीबी रेखा से एक सीमा निर्धारित होती है ग़रीबों के निवास के लिए,
इसके ऊपर का स्थान आरक्षित है केवल अमीरों के निवास के लिए,
इस पर लगी एक तख़्ती के दोनों ओर "प्रवेश निशेध" लिखा होता है -
ऊपर ग़रीबों के जाने पर रोक है और नीचे अमीरों के आने के लिए।

सदियों से यह प्रथा चली आई है केवल ग़रीबों के अनुसरण के लिए,
ग़रीब रेखा लांघ भी जाएं तो टिक नहीं पाते अपने संस्कारों के लिए,
अमीर तो इसके ऊपर प्रसन्न हैं नित नए बदलते संस्कारों के चलते -
निर्धारण रेखा का हो या संस्कारों का, सब बंदिशें हैं ग़रीबों के लिए।

हां, कोई बंदिश नहीं अमीरों पर इसके ऊपर और ऊपर जाने के लिए,
व कोई बंदिश नहीं ग़रीबों पर भी इसके नीचे और नीचे जाने के लिए, 
ग़रीबी-औ-अमीरी में फ़ासला मैंने बढ़ते हुए तो देखा है घटते हुए नहीं -
दोनों ही परिस्थितियां दृढ़ हैं अपने स्थान पर सीमा पालन के लिए।

वैसे तो ये बंदिशें सुदृढ़ हैं अपने अपने स्थान पर स्थाई तौर के लिए,
किसी के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं है इधर से उधर जाने के लिए,
पर यदि कोई भाग्य से सीमा रेखा के इधर या उधर निकल जाता है -
तो ग़रीब हो या अमीर वहीं का होकर वोह रह जाता है सदा के लिए।

कविता - कमल

Tuesday, June 1, 2010

Monday, May 31, 2010

Tuesday, May 18, 2010

Friday, April 9, 2010

Wednesday, March 24, 2010

Monday, March 22, 2010

Sunday, February 28, 2010

Saturday, February 20, 2010

Friday, February 19, 2010

Monday, February 15, 2010

नज़म - ज़हर-ए-ज़िंदगी

नज़म - तेरा शहर

नज़म - वादा-ए-वफ़ा

नज़म - ख़्वाबों की ताबीर

नज़म - उसके नाम के साथ

नज़म - रूठना मनाना

नज़म - तूल-ए-ज़िंदगी

दो रुबाइयां - राज़दार

नज़म - खेल तदबीरों का

नज़म - मुकाबिल

कविता - सीधी सड़क

नज़म - सैय्याद का शिकार

नज़म - कहर

नज़म - अभी कुछ देर ठहर जाओ

नज़म - जान लेवा

नज़म - नए ज़ख़्म

नज़म - राह-ए-हयात

नज़म - मुस्कुराहट

नज़म - फिरदौस

नज़म - मुकद्दमा-ए-क़त्ल

नज़म - दिल और दिमाग

नज़म - मैं कौन हूँ

नज़म - ज़िंदगी में दखल

नज़म - खुदा