हम हमेशा ही जमा के निशान का इंतेख़ाब करते आए हैं अपने रिश्तों में, निशां मनफ़ी के तो कभी कहीं ज़िक्र में ही नहीं आए हैं अपने रिश्तों में। माना कि रिश्तों को मिलाना फ़क्त ऊपर वाले के हाथों में ही होता है पर, बरकरार ये सिलसिले तो अपने आप ही रखते आए है अपने रिश्तों में। जब भी मिले हैं सुख हमको ज़िंदगी में, खैरमक्दम किया है हमने उनका, सुखों का पाना एवं भोगना सदा मज़बूती बनाते आए हैं अपने रिश्तों में। आंखों से टपके हुए आंसू हमेशा से कारामद साबित हुए राह-ए-ज़िंदगी में, दुख अश्कों की लड़ी में पिरोए ताकि आंच नहीं आए है अपने रिश्तों में। समुंदर तो नहीं हैं पर बड़े बड़े तूफ़ानों को अपने सीने में हमने संजोया है, खुद को हम दो नहीं, एक ही तस्लीम करते आए हैं अपने रिश्तों में।
Sunday, October 31, 2010
नज़म - हमारे रिश्ते
Labels: नज़म at 4:02:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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1 comment:
I APPRICIATE THE SINCEARLTY TOWARDS honesty . BUT atamhatya , I DO NOT RECOMEND , IT COULD BE MURDER INSTEAD
as i think
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