दुशमनों ने तो खैर दुशमनी निभाई जो छोड़ दी मंझदार में मेरी कश्ती, मेरे तो खुद अपने ही ले गए मोड़ कर तूफ़ान की जानिब मेरी कश्ती। ग़ैर की खातिर कौन अपनी जान जोखिम में डालने की जुर्रत करता है, किसी ग़ैरों से क्यों गिला करें जबकि मुश्किल ना थी बचानी मेरी कश्ती। तूफ़ान समुंदर में कुछ यूं उछाले मार रहा था कि उसके तेवर बता रहे थे, कि खुदा अगर कोई मोजज़ा कर दें तो वोह ही बचा सकते थे मेरी कश्ती। ऐसे ही मोजज़े के हकदार भी थे हम और खुदा ने मोजज़ा कर भी दिया, खुदा ने हम पर करम कर दिया उछाल के साहिल की तरफ़ मेरी कश्ती। ना जाने ऐन वक्त हमारा क्या भूला हुआ सितम नाखुदा को याद आया, कि रहमत-ए-खुदा को ठुकरा के साहिल पे ही डुबो दी उसने मेरी कश्ती।
Monday, October 18, 2010
नज़म - मेरी कश्ती
Labels: नज़म at 12:15:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment