लोग कुछ ग़लत करते हैं तो हम उन्हें कम-ज़र्फ़ बताते हैं, और अगर हम ग़लत करते हैं तो हालात अपने बुरे बताते हैं। जब कभी हम गिरते हैं और लोग हंस कर निकल जाते हैं, तो हम उनको उनके अख़लाक की दुहाई देने लग जाते हैं। पर उस वक्त हमारा अख़लाक आख़िर कहां खो जाता है, जब कोई और गिरता है और हम हंसकर निकल जाते हैं। फ़क्त औरों को छोटा कह देने से हम बड़े नहीं हो जाते हैं, दूसरों को छोटा बता के हम अपनी अना को जगाते हैं। किसी को कोई हर्फ़-ए-ग़लत कहना कोई दानिशमंदी नहीं है, इस तरह तो हम अपने एहसास-ए-कमतरी की मोहर लगाते हैं। ठीक-औ-ग़लत के फ़ैसले लेने की ज़र्ब-औ-तक्सीम ही मुख़्तलिफ़ है, किसी को ग़लत कह कर हम तो आल्लाह ज़र्फ़ नहीं हो जाते हैं। बहुत आसान होता है किसी की जानिब एक उंगली का उठा देना, उस वक्त देखें, इशारे तीन उंगलियों के खुद हमारी ओर हो जाते हैं। MEANINGS [कम-ज़र्फ़ = Lower Intellect] [अख़लाक = Sense of Responsibility] [हर्फ़-ए-ग़लत = Wrong word] [दानिशमंदी = Rationality] [एहसास-ए-कमतरी = Inferiority complex] [मोहर = Stamp] [ज़र्ब-औ-तक्सीम = Multiplication & Division] [मुख़्तलिफ़ = Different] [आल्लाहज़र्फ़ = Higher Intellect] [जानिब = Towards]
Tuesday, August 31, 2010
नज़म - हम और हमारा रव्वैया
Labels: नज़म at 12:23:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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