वोह जो कुछ भी कहते हैं सुन लेते हैं बिना हील-औ-हुज्जत के हम, कहने को अपने पास बहुत कुछ है, हमने कहा कहा, ना कहा ना कहा। दुनियां में कितने ही मुकाम हैं, ज़िंदगी तो कहीं भी बसर हो सकती है, रहने को तो बहुत जगह है इस जहां में, रहा रहा, ना रहा ना रहा। ज़िंदगी का क्या है, वोह तो ज़ुल्म-औ-सितम सह के भी गुज़र जाती है, तुम तो ज़ुल्म-औ-सितम जारी रखो, हमने सहा सहा, ना सहा ना सहा। काम दरिया का तो है चलते ही जाना, वोह तो चलने में ही मसरूफ़ है, रवानी-ए-दरिया पे मत जाओ, पानी उसमें बहा बहा, न बहा ना बहा। मोहब्बत में कई मुकाम होते हैं, लेकिन इज़हार-ए-मोहब्बत लाज़मी है, इज़हार-ए-इश्क हम तो करते रहे, तुमने सुना सुना, ना सुना ना सुना। आवागमन के इस मेले में हर खास-औ-आम इशरत-ए-जहां मांगता है, हम तो फ़कीर हैं, मग़र कुछ हमको मिला मिला, ना मिला ना मिला। इंतेहाई जुस्तजू-ए-अल्फ़ाज़ एवं दिमाग़ी जद्द-औ-जहद से गज़ल होती है, पर बात तो वहीं आके अटकी है, किसी ने पढ़ा पढ़ा, ना पढ़ा ना पढ़ा। तख़्लीक-ए-कायनात के वक्त यजदां ने बनाया तो सबको इंसान ही था, मिजाज़ तो हर किसी का जुदा था, वोह बना बना, ना बना ना बना।
Thursday, August 19, 2010
गज़ल - गज़ल
Labels: ग़ज़ल at 9:44:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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