साँसें अगर साथ निभाती रहें तो चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं, जो दग़ा दे जाएं साँसें, फिर कहां चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं। अक्सर फ़र्ज़ अंजाम देने को लोग आ तो जाते हैं मिजाज़पुर्सी को, पर दूसरों की तो सुनते नहीं, अपने ही अफ़साने बयान करते हैं। आते देख उनको चिराग़ों की आबरू रखने को बुझा देते हैं चिराग़, रू-ब-रू उनके रुख-ए-रौशन बेचारे ये चिराग़ रौशन कहां रहते हैं। इक इक अदा तो उनकी कातिल है एवं हमी पर वोह नाज़िल है, मुस्कुराकर ही ज़िंदगी देते हैं वोह और मुस्कुराकर कत्ल करते हैं। बकौल जनाब-ए-ग़ालिब राह-ए-उल्फ़त तो आग का एक दरिया है, यह राज़ समझ लो तो मंज़िल के मील पत्थर साथ साथ चलते हैं। हर बूंद का नसीब नहीं पर एक बूंद तो सीप में मोती हो जाती है, आदमी तो सभी होते हैं पर सभी आदमी इंसां तो नहीं हुआ करते हैं। मैखाने में लोगों को फ़क्त मय, जाम-औ-मीना से ही काम रहता है, विरले ही होते हैं वोह जो मैखाने से भी बिन पिए लौटा करते हैं।
Monday, August 23, 2010
गज़ल - गज़ल
Labels: ग़ज़ल at 10:47:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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