ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की आदमी को रुला देती है, ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की ज़िंदगी को घुला देती है। ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, शराब निहायत ही मुफ़ीद साबित होती है, बाहरी ज़ख्मों को शराब सुखा देती है और अंदरूनी हों तो भुला देती है। ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, हल्दी भी उतनी ही मुफ़ीद साबित होती है, बाहरी ज़ख्मों को हल्दी भी सुखा देती है, अंदरूनी हों तो भुला देती है। ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, शराब-औ-हल्दी दोनों ही अग़र मुफ़ीद हैं, तो शराब का ही सहारा क्यों लें जो ज़ख्मों को हल्दी भी सुला देती है।
Monday, October 18, 2010
नज़म - ज़ख्म
Labels: नज़म at 11:51:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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