यह हाथ जो आज पत्थर ढो रहे हैं मेंहदी इन हथेलियों में रचा देते तो क्या था, पत्थरों और कांटों से उलझते हुए इन पाओं में भी महावर रचा देते तो क्या था, लेकिन यह चेहरा जो ज़माने की तानाज़नी और छींटाकशी से ज़र्द हो गया वरना - इस चेहरे में आफ़ताब की रौशनी और चांद की चांदनी को रचा देते तो क्या था। इन मुंतज़िर आंखों को यदि रात की कालिमा के काजल से सजा देते तो क्या था, वक्त की मार से पीले पड़े इन होठों पे सूरज की लालिमा सजा देते तो क्या था, लेकिन तकदीर-औ-तदबीर की कशमकश के मारे ऐसा कुछ भी न हो सका वरना - सिसकियां भरते हुए रूखे लबों पे खुशियों की मुस्कान जो सजा देते तो क्या था। चूड़ियों की खनक को भूली हुई कलाइयों में फिर चूड़ियां सजा देते तो क्या था, इस हसीन दोशीजा को ज़ेवरात-औ-आभूषणों से फिर से सजा देते तो क्या था, पर समाज के ये ठेकेदार विधवा-विवाह को आज भी अभिशाप कहते हैं वरना - सुनसान सड़क की तरह दिखती इस मांग को सिंदूर से सजा देते तो क्या था।
Thursday, July 29, 2010
कविता - एक अभिशाप
Labels: कविता at 9:39:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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