ग़रीबी रेखा से एक सीमा निर्धारित होती है ग़रीबों के निवास के लिए, इसके ऊपर का स्थान आरक्षित है केवल अमीरों के निवास के लिए, इस पर लगी एक तख़्ती के दोनों ओर "प्रवेश निशेध" लिखा होता है - ऊपर ग़रीबों के जाने पर रोक है और नीचे अमीरों के आने के लिए। सदियों से यह प्रथा चली आई है केवल ग़रीबों के अनुसरण के लिए, ग़रीब रेखा लांघ भी जाएं तो टिक नहीं पाते अपने संस्कारों के लिए, अमीर तो इसके ऊपर प्रसन्न हैं नित नए बदलते संस्कारों के चलते - निर्धारण रेखा का हो या संस्कारों का, सब बंदिशें हैं ग़रीबों के लिए। हां, कोई बंदिश नहीं अमीरों पर इसके ऊपर और ऊपर जाने के लिए, व कोई बंदिश नहीं ग़रीबों पर भी इसके नीचे और नीचे जाने के लिए, ग़रीबी-औ-अमीरी में फ़ासला मैंने बढ़ते हुए तो देखा है घटते हुए नहीं - दोनों ही परिस्थितियां दृढ़ हैं अपने स्थान पर सीमा पालन के लिए। वैसे तो ये बंदिशें सुदृढ़ हैं अपने अपने स्थान पर स्थाई तौर के लिए, किसी के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं है इधर से उधर जाने के लिए, पर यदि कोई भाग्य से सीमा रेखा के इधर या उधर निकल जाता है - तो ग़रीब हो या अमीर वहीं का होकर वोह रह जाता है सदा के लिए।
Tuesday, June 15, 2010
कविता - ग़रीबी रेखा
Labels: कविता at 8:56:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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