धड़कन-ए-दिल थमने को हो लेती हैं जब मुद्दतों उनसे मुलाकात नहीं होती, जब होती है निगाहें जमने लगती हैं और लब सिल जाते हैं, बात नहीं होती। ताज का साथ हो और रू-ब-रू चांद हो तो जवानी मदमस्त हो जाती है, रहमत खुदा की अपने संग होती है, चांदनी रात में बरसात नहीं होती। मुश्तहिर कर दो इन सब दानिशवरों में कि आज आ जाएं हमारे मुकाबिल, इश्क-औ-मोहब्बत हैं अपने मज़हब, अपने दिन तो होते हैं रात नहीं होती। कायम करो दिल में कयाम-ए-मोहब्बत और जीत लो नेमतें दोनों जहां की, ऐतमाद, अख़लाक, खुलूस, इल्म-औ-सुखन से बढ़कर कोई सौगात नहीं होती।
Monday, October 18, 2010
नज़म - रहमत-ए-खुदा
Labels: नज़म at 12:08:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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