जब कभी भी दिल में आपके पास आने की आस उभर आई है, आपके हसीन लबों पर दबी दबी सी एक मुस्कान उभर आई है। जब कभी भी आए हो आप और आपको रू-ब-रू हमने पाया है, तो इक नज़म आपकी खातिर गुनगुनाने की सोच उभर आई है। वोह बात जो एक अरसे से यादों की कब्र में दफ़न हो चुकी थी, वही बात फिर आज ना जाने हमारे ज़हन में कैसे उभर आई है। आपकी जिस बात ने हमारी ज़िंदगी के रुख को ही पलटा दिया, याद करके उसको हमारे लबों पे भीनी सी मुस्कान उभर आई है। हमेशा हमें तवक्को रही है कि आप मुस्कुराकर मिला करो हमसे, पर हमें मिल कर आपके चेहरे पर यह उदासी क्यों उभर आई है। रुख से पर्दा उठाओ तो जाने बर्क-ए-तज्जली ने कुछ किया तूर पर, हमें भी ऐसा नज़ारा देखकर होश खो देने की आस उभर आई है। शब्दार्थ [बर्क-ए-तजल्ली = करामाती बिजली - जब हज़रत मूसा (मोज़ेज़) पहली मर्तबा अल्लाह से मिलने कोहितूर पर्वत पर गए तो अल्लाह के जलाल (करामाती बिजली) से कोहितूर पर्वत जल गया और हज़रत मूसा (मोज़ेज़) कुछ पलों के लिए बेहोश हो गए)
Saturday, June 26, 2010
नज़म - आप और हम
Labels: नज़म at 7:43:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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