हालात-ए-हाज़िरा से मुझे बस एक यही शिकायत रही कि हमने क्या पाया, बहके बहके से सोच में हैं हम कि जो बच गया है, यहीं ये सब रह जाएंगे। कहने को बहुत कुछ था मन में पर हम किसी से भी कुछ नहीं कह सके, रफ़्ता रफ़्ता सब कुछ किसी न किसी से तो बातें हम ये सब कह जाएंगे। बहुत सारे सपने संजोए हुए थे मन में पर सब कुछ मन में ही रह गया, पलक पलक उम्मीदें थी पर सोचा ना था हवाई किले ये सब ढह जाएंगे। रौशनी सूरज की तो मेरे साथ ही है और मेरी तलाश चारों तरफ़ जारी है, फ़लक फ़लक जैसी ऊंचाइयां लिए हुए हूं, अरमान मेरे सब महक जाएंगे।
Wednesday, September 8, 2010
कविता - हालात-ए-हाज़िरा
Labels: नज़म at 3:48:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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