हम नहीं हैं वोह जो खुद भी हवाओं के रुख को साथ ले चल पड़ें, हम तो वोह हैं जो हवाओं के रुख को ही मोड़ने के लिए चल पड़ें। पहले हम अपने ही घर में खुद को अजनबी सा पाते थे मग़र अब, ग़ैरों में भी सब अपने से लगते हैं जब उन्हें अपना बनाने चल पडें। आज का चलन यह है कि एक भाई दूसरे भाई की जान के पीछे है, ज़रूरी है कि हम लोगों में भाईचारा बढ़ाने के मकसद से चल पड़ें। कौन अपना है और कौन बेगाना, नादान हैं जो यह सवाल उठाते हैं, ज़रूरी है कि हम ऐसे लोगों के इन सवालों के जवाब देने चल पडें। जहां में आकर फ़क्त एक मुसाफ़िर के मानिंद जीना काफ़ी नहीं है, ज़रूरी है कि हम हर फ़र्द के वक्त-ए-ज़रूरत साथ उसके चल पडें।
Monday, October 18, 2010
नज़म - मकसद
Labels: नज़म at 12:11:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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