Followers

Wednesday, December 26, 2012

कविता - दामिनी के मुजरिमों की सज़ा

बलात्कार के अपराध के दोषियों लिए मात्र मौत की सज़ा ही उपयुक्त हो सकती है,
इतने जघन्य कृत्य के लिए इसके अतिरिक्त और कोई सज़ा भी क्या हो सकती है,
मग़र मैं एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर रहा हूं जिसपर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है -
इनकी तथाकथित मृत्यु के पश्चात इनकी अस्थियों की क्या नियति हो सकती है?

ये लोग जो कि पूर्णतयः दुष्चरित्र हैं इनकी अस्थियां भी तो पवित्र नहीं हो सकती हैं,
उन्हें समुद्र में प्रवाह करें तो भविष्य में वो सुनामी जैसी विपदा का रूप ले सकती हैं,
उन्हें ज़मीन में गाड़ें तो भविष्य में भूकंप जैसी परिस्थितियों का जन्म हो सकता हैं -
उन्हें वातावरण में विसर्जित करें तो वो सम्पूर्ण वातावरण को दूषित कर सकती हैं।

अगर ऐसा सब कुछ करने से ऐसी अमानवीय परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं,
ऐसी परिस्थितियां जो कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए हानिकारक हो सकती हैं,
तो उचित यही होगा कि मृत्युपरांत इनकी लाशें जंगली जानवरों को सौंप दी जाएं -
मनुष्य जाति की हानि भी ना हो और ये किसी के लिए लाभकारी भी हो सकती हैं।

Wednesday, December 19, 2012

नज़म - जज़्बा-ए-वफ़ा

दोस्ती नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
प्यार पैग़ाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर खुशी में जज़्ब है जज़्बा-ए-वफ़ा -
मोहब्बत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

खुशबू से नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
सतरंग से नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
सात सुरों का संगम है जज़्बा-ए-वफ़ा -
नाम है मौसीकी जज़्बा-ए-वफ़ा का।

ईमान नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
ऐतमाद नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
आदमी का वजूद है जज़्बा-ए-वफ़ा -
अख़्लाक नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

इन्सानियत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
रूहानियत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हकीकतन हर शै में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
कायनात है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

पाकीज़गी से है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
खुलूस से तो है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
पैदा करो तो सही अपने अंदर जज़्बा-ए-वफ़ा -
एहसास से ही तो नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

इनायत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
करम नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर फ़ल्सफ़े का निचोड़ है जज़्बा-ए-वफ़ा -
अकीदत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

रिज़्क नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बरकत में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर एक नायाब शै में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
शान-औ-शौकत में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

गुरूग्रंथ-औ-गीता में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बाइबल नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर इल्म-औ-सुखन में है शुमार जज़्बा-ए-वफ़ा -
कुरान में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

पारसाई में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
राअनाई में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बहुत ही बड़ी जागीर है जज़्बा-ए-वफ़ा -
खुदाई नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

राम और रहीम नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
नानक एवं ईसा में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर पयम्बर के पैग़ाम में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
रब्ब में मौजूद है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

Saturday, December 15, 2012

नज़म - माथे पे त्योरी

जनाब-ए-वाला, आपसे इश्क ही तो किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो,
जनाब-ए-वाला, कोई गुनाह तो नहीं किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

इश्क हो जाए किसी को किसी से, क्या यह कहीं किसी के बस में हुआ करता है,
हमारे भी बस से बाहर था जो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

कौन किसी के काबिल है और कौन किसी के काबिल नहीं है, खुदाई देन है इश्क,
यह खुदाई देन हमें मिली है तो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

इश्क रुतबा, मयार, मज़हब और ज़ातपात कभी नहीं पूछा करता, सिर्फ़ हो जाता है,
हमें भी बस हो गया है इश्क तो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

लगता है कि हमारी बातों से आप मुतमइन हो गए हो जो मंद मंद मुस्कुरा रहे हो,
हमने आपको मुतमइन कर ही दिया है तो फिर आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

नज़म - खून का रिश्ता

कल रास्ते में फ़रीद साहब मिल गए, मिलकर उनको तो मन मेरा हर्षाया,   
मेरे एक दोस्त मेरे साथ थे, उनसे फ़रीद साहब का मैंने मिलाप करवाया,
मैंने दोस्त को बताया कि फ़रीद साहब के साथ तो खून का रिश्ता है मेरा -
मेरे दोस्त हैरान थे कि फ़रीद साहब से खून का रिश्ता मेरा कैसे हो पाया।

मैंने कहा कि ज़माने की रस्मों ने मुझे हिंदु और उन्हें मुसलमां बनाया,
लेकिन उनके इंसानी अख़्लाक ने उनके साथ मेरा खून का रिश्ता बनाया,
कल हस्पताल में जब मैं ज़िंदगी-औ-मौत की जद्द-औ-जहद कर रहा था -
तो फ़रीद साहब ने अपना खून देकर मेरी ज़िंदगी को नया जामा दिलाया।

तख़्लीक-ए-कायनात के दौरान यजदां ने तो सबको फ़क्त इन्सां बनाया,
लेकिन दुन्यावी रिवायतों ने उन्हें हिंदु, सिख, इसाई-औ-मुसलमां बनाया,
तोड़ दो इन मज़हबी दीवारों को और कायम करो सबसे ऐसा एक रिश्ता -
जो परे हो इन रिवायतों-औ-दीवारों से जैसे सहरा में हो इक ग़ुल खिलाया।

Saturday, December 8, 2012

नज़म - मेरी कलम

बहुत रोका, बहुत टोका मैंने अपनी कलम को पर वोह अपनी करनी से बाज़ नहीं आई,
किस्सा-ए-हकीक़त-ए-हाज़िरा को ज़माने में आम करने में उस ने ज़रा भी देर नहीं लगाई,
पूरे का पूरा हर्फ़-ए-अमल वोह फ़र्राटे से लिखती आई और ज़रा भी बुज़दिली नहीं दिखाई,
पर ज़माने मे चोरी, लूट, खसोट, बदमाशी, गुंडागर्दी व दहशतगर्दी मे कोई कमी नहीं आई।

चोर हो, भाई हो या नेता, आपस में सभी एक हैं, यह लिखने में वोह ज़रा भी नहीं घबराई,
इस ज़माने में कोई भी इदारा ले लो, इन सभी कुकृत्यों से अछूता वोह ज़रा भी नहीं पाई,
ज़माने की जुबान पर ताले लगे हैं तो क्या, कलम नें अपनी कथनी में कमी नहीं दिखाई,
जो चोर और पोलीस आपस में हैं भाई भाई, नेता व भाई के रिश्ते में भी कमी नहीं आई।

सुनो, कान खोलकर, सुनो, यह आवाम की ही पुरज़ोर आवाज़ है जो कलम नें है यहीं उठाई,
देखो, आंखें खोलकर, देखो, शीशे में तुम्हारी अपनी ही सूरत है जो कलम नें है यहीं दिखाई,
बोलो, मुहं खोलकर, बोलो, यही तो हकीकत-ए-हाज़िरा है जो कलम नें तुम्हें है यहीं समझाई,
बापू के तीन बंदर ही बनकर मत रह जाओ वरना कहोगे कि तुमने है मुंह की यहीं खाई।

नज़म - आप मिलो तो सही

साथ आपका अगर रहे तो दोंनों जहां हम भुला देंगे, आप मिलो तो सही,
इस जहां के अंदर ही इक नया जहां हम बसा लेंगे, आप मिलो तो सही।

ज़िंदगी के सफ़र में एक हमसफ़र का साथ होना निहायत ही लाज़मी है,
हमसफ़र बन जाओ, आपको दिल में हम सजा लेंगे, आप मिलो तो सही।

आप अगर साथ देने का वादा करो तो फिर इस ज़माने का हमें क्या डर,
तमाम दुनियां की मुखालफ़त झेलकर हम भुला देंगे, आप मिलो तो सही।

वफ़ा परस्ती हमारा शोबा और इकरार-ए-वफ़ा शौक़ आपका तो क्या ग़म,
ग़ैरों से हमें मतलब क्या, एक दूजे से हम निभा लेंगे, आप मिलो तो सही।

सादादिली हमारी तो जगज़ाहिर है, यह एक ही नज़र में आप जान जाओगे, 
आंखों ही आंखों में बात दिल की आपको हम बता देंगे, आप मिलो तो सही।

एक बहुत ही मशहूर कहावत है जग में कि एक हाथ दूसरे हाथ को धोता है,
आप और हम दोनों मिल जाएं तो सब ग़म मिटा देंगे, आप मिलो तो सही।

लबों पर हो आराइश हंसी की और फूलों की मानिंद मुस्कुराहट हो चेहरे पर,
फिर देखो, आपकी खातिर जान तक भी हम लुटा देंगे, आप मिलो तो सही।

नज़म - ईमानदारी के जरासीम

कल एक पुराने दोस्त मिल गए, बेचारे बहुत ही खस्ता हाल में नज़र आते हैं,
हालांकि यह महाशय आयकर कार्यालय में इंस्पैक्टर के ओहदे से जाने जाते हैं,
मैंने कुरेदा, "अरे भाई, यह क्या हालत बना रखी है, आप कुछ लेते क्यों नहीं -
आपके कार्यालय में तो सभी लेते हैं और दोनों हाथों से दौलत समेटे जाते हैं"।

कहने लगे, "बात तो आपकी ठीक है, ये वोह अपनी मजबूरी में करते जाते हैं,
और मैं मजबूर हूं आप अपनी मजबूरी से, मेरे हालात उनसे अलग हो जाते हैं",
मैंने कहा, "तुम्हारे हालात उनसे अलग हो जाते हैं, यह बात कुछ समझा नहीं" -
बोले, "लेने-देने की बात होती है तो मां-बाप द्वारा दिए संस्कार आढ़े आ जाते हैं"।

मैंने कहा, "यह क्या कहते हैं आप? मां-बाप द्वारा दिए संस्कार आढ़े आ जाते हैं,
अरे दोस्त, आयकर कार्यालय में कार्यरत होकर संस्कार आपके आढ़े आ जाते हैं,
आप तो एक अजूबा हो, भाई, आपको देखने के लिए तो टिकट ही लगानी पड़ेगी" -
हंसकर बोले,"मैं क्या करूं, दोस्त, मेरे अंदर ईमानदारी के जरासीम घुस जाते हैं"।

नज़म - रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल

मुद्दतों दुनियां वाले अपने ग़मों को हमारे दिल की पनाह में लाने आए,
देख कर यह कैफियत हमारे अपने भी हम पर अपना हक जमाने आए, 
और जब कभी भी हमने खोल कर रख डाली फ़ैहरिस्त अपने ग़मों की -
तो ग़ैर तो ग़ैर ही रहे, हमारे अपनों के लबों पर भी सौ सौ बहाने आए।

दर्द जब कभी भी हद्द से गुज़र गया, दुनियां वाले हमें और सताने आए,
ताज़ा ज़ख्मों पर मरहम तो छोड़ो, पुराने ज़ख्मों पर नमक लगाने आए,
अपने कातिल की तो इक इक अदा पर कुर्बान जाने को दिल चाहता है –
जो कि खुद ही क़त्ल करके खुद ही रूबरू-ए-ज़माना आंसू बहाने आए। 

जब कभी ज़माने के रूबरू अपनी रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल हम सुनाने आए,
तो हर किसी की जुबां पर फ़क्त अपने ही रंज-औ-ग़म के अफ़साने आए,
यह तो तुम ही एक महरम हो हमारे जो कि हमारे दर्द को बांट लेते हो -
वरना ये ज़माने के लोग तो मौका ब मौका हमारे गम को बढ़ाने आए।

Tuesday, May 22, 2012

नज़म - सच और झूठ

सच क्या है, सच एक हकीकत है, सच सदा हमें सही राह दिखाता है,
झूठ क्या है, झूठ एक छलावा है, झूठ सदा ग़लत राह पर लगाता है।

झूठ का ऐतबार ही क्या है, झूठ तो फ़रेब है शुरुआत से आख़िर तक,
झूठ ऐय्यार है, सौ भेस बदल लेता है, झूठ हमेशा मन को लुभाता है।

झूठ का मन भावन रूप आदमी को इस कदर बहका देता है कि वोह,
झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में नहीं हिचकिचाता है।

सच माना कि कड़वा होता है और आसानी से हज़म नहीं होता है पर,
सच का हमेशा बोलबाला होता है और वोह अपनी छाप छोड़ जाता है। 

सच हर हाल में फ़तेहयाब है, सच तो सच है आग़ाज़ से अंजाम तक,
सच में तो सूरज का नूर समाया हुआ है, सच हमें रौशनी दिखाता है।

झूठ की औकात ही क्या है, वक्ती तौर पर भले ही झूठ जीत जाए पर,
सच और झूठ की लड़ाई में सच के मुकाबिल झूठ टिक नहीं पाता है।

नज़म - पोशीदगी-ए-उल्फ़त

अफ़साने उल्फ़त हमारी के यूं चर्चा में कैसे आ गए, यह आप बेहतर जानते हैं,
हमारे दिल की लगी के बाबत कैसे जान गए लोग, यह आप बेहतर जानते हैं,
दिल की अदल बदल के वक्त हम दोनों ने अहद लिया था एक पोशीदगी का -
पोशीदगी-ए-उल्फ़त के इस अहद को किसने तोड़ा, यह आप बेहतर जानते हैं।

ज़माने की नज़रें तीर की मानिंद हमको छेदती रही, यह आप बेहतर जानते हैं,
हमने सदा अपनी ज़ुबान को सात तालों में बंद रखा, यह आप बेहतर जानते हैं,
हमें हमेशा यही चिंता सताती रही कि कहीं आपका नाम जग ज़ाहिर न हो जाए -
पोशीदगी-ए-उल्फ़त की इस गिरह को किसने खोला, यह आप बेहतर जानते हैं।

पोशीदा बातों को आपने जग ज़ाहिर क्यों होने दिया, यह आप बेहतर जानते हैं,
क्यों मोहब्बत को ऐसे बदनामी का चोगा पहना दिया, यह आप बेहतर जानते हैं,
आपने शायद यही सोचा होगा कि अक्सर बदनामी में भी रास्ते निकल आते हैं -
और इस मसले का भी कोई कारामद हल निकल आए, यह आप बेहतर जानते हैं।

नज़म - फ़सल-ए-गुल

आज घर से निकला था मैं गुलशन से फ़सल-ए-गुल को हासिल करने के लिए,
गुलों की इस फ़सल की दरकार थी मुझे अपनी महबूबा को पेश करने के लिए,
चंद फूल गुलाब के अगर मैं ले भी लूंगा तो गुलशन का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा -
मेरी महबूबा का दिल खिल उठेगा मुझे खुद को उसपर निस्सार करने के लिए।

गुल गुलशन में गुलफ़ाम बने फिरते हैं अपनी खूबसूरती के चर्चे सुनने के लिए,
गुलों का यूं गुलशन में इतराना जायज़ भी है गुलशन की तशहीर करने के लिए,
यह बात गुलों के दिमाग़ में घर कर गई है कि रौनक-ए-दुनियां फक्त इन्हीं से है –                                                       और बुलबुल नें भी इन्हें सर पे चड़ा रखा है खुद को जांनिस्सार करने के लिए।

एक वजह यह भी है मेरे पास गुलों को अपनी महबूबा के रूबरू करने के लिए,
जिस ग़ुरूर में गुल चमन में उड़ते फिरते हैं उस ग़ुरूर को फ़ना करने के लिए,
ताउम्र गुल गुलशन में रहे और अपने से खूबसूरत किसी शै के कभी रूबरू न हुए -
महबूबा के रूबरू लाना लाज़मी था इन्हें इनसे खूबसूरत शै के रूबरू करने के लिए।

नज़म - हमारा प्यार

खुशियों की दौलत तुम्हें मुबारक और ग़मों का खज़ाना हमारा हो,
मुनाफ़े के सब सौदे तुम्हें नसीब और घाटे का हर सौदा हमारा हो,
तुम्हारी खुशियों में जब भी इज़ाफ़ा हो तो महज़ यही दुआ करना -
खुशियां कुछ हमारे हिस्से में भी आ जाएं और ग़मों में खसारा हो।

मोहब्बत में गिले-शिकवे बेमानी होते हैं, मानीखेज प्यार हमारा हो,
रेले ग़म और खुशी के तो फ़ानी होते है, रवां फ़क्त प्यार हमारा हो,
ज़माने की रंगरलियां हों या दुनियावी दौलत, ये सभी वक्ती होते हैं -
बाद फ़ना इश्क के जो किस्से कहानी होते हैं, वैसा प्यार हमारा हो।

प्रीत बनी रहे सभी से और सबके दिल में कायम प्यार हमारा हो,
वैर और द्वैत ना हो किसी से भी और सबके साथ प्यार हमारा हो,
चार दिन की यह ज़िंदगी सबके साथ प्रेम-औ-प्यार से गुज़र जाए -
हर किसी की मोहब्बत का जो भूखा हो, बस वैसा प्यार हमारा हो।

नज़म - रुखसतनामा

चाहा तो यही था हमने कि तल्खियां सारे ज़माने की अपने सीने में भर लेते,
इतनी कूव्वत ही ना थी कि एक हंसते खेलते दिल को हम शोलों से भर लेते,
रोटी रोज़ी के मसलों में यूं उलझे रहे कि अपने पराए की समझ ही नहीं पड़ी -
चलो यह तो अच्छा ही हुआ वरना दुनियां भर के और मसले घर में भर लेते। 

घर छोड़कर निकल तो पड़े हैं, जाने कभी इस जानिब हम फिर रुख कर लेते,
खुदा नें तौफ़ीक़ नहीं दी वरना तस्वीर घर परिवार की हम आंखों में भर लेते,
यह तो खबर ही नहीं है कि अब के बिछड़े फिर कभी हम मिलेंगे भी या नहीं -
वरना नज़ारे इस मुलाक़ात के हम अपने दिल के एक एक कोने में भर लेते।

ज़लज़ला सा एक उतरा तो था आंखों में, आंखों की खुश्की कम कैसे कर लेते,
हस्बा-ए-हाल नें रोने ही ना दिया वरना तो आंखों को हम समंदर से भर लेते,
दिन ढलने को है वक़्त-ए-शाम आने को है, वक़्त-ए-रुखसत किससे मिलना है -
बेमकसद सा सवाल है, बस में होता तो सारी कायनात को आंखों में भर लेते।

नज़म - तेरा नाम - मेरा नाम

साहिल पे गीली रेत पर लिख कर मिटा क्यों देती हो तुम मेरा नाम,
डरती हो इन लहरों से तुम, ये लहरें कभी मिटा नहीं सकती मेरा नाम,
रेत पर लिखा नाम लहरें अगर मिटा भी दें तो इस में परेशानी क्या है -
रेत से मिटने के बाद इन लहरों के आंचल में जुड़ जाता है मेरा नाम।

पुकार के देखो तो सही इन लहरों को, इन लहरों से गूंजेगा मेरा नाम,
जब भी पुकारोगे तुम इन्हें हमेशा याद ये दिलाएंगी तुम्हें मेरा नाम,
इनसे पुराने नाते भी है हमारे, शायद इन्हीं में समाए थे हम पिछ्ले जन्म -
इसीलिए तो आजतक इन लहरों में लिपटा हुआ है तेरा नाम मेरा नाम।

जब से मिला है हमको यह जीवन, जुड़ा हुआ है तेरा नाम मेरा नाम,
जब तलक कायम रहेगा हमारा जीवन, जुड़ा रहेगा तेरा नाम मेरा नाम,
भले ही जुड़े यह जीवन लहरों की डोरी से या जुड़े किसी और डोरी से -
जन्म जन्मांतर के हैं ये बंधन, यूं ही जुड़ा रहेगा तेरा नाम मेरा नाम।

नज़म - इंसान-औ-हैवान

इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है,
इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है,
जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते -
ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है।

शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है,
दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है,
अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका -
अपनी बढ़तरी को उन्हें औरों को एहसास-ए-कमतरी देते हुए भी देखा है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है,
अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है,
जीवन श्‍वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं -
इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।

नज़म - मक्‍तूल का ज़ब्त

मुझे कत्ल करने को आए हैं वोह पर इतना बनसंवर कर किस लिए,
हम तो वैसे ही मर जाते, जनाब, ये आराइश-औ-सजसंवर किस लिए,
आप तो मुस्कुरा कर कत्ल कीजिए और फिर कत्ल करके मुस्कुराइए -
कत्ल करने के मकसद से आए हैं तो अफ़सुर्दगी चेहरे पर किस लिए।

अब खंजर घोंप ही दिया है, मेरी जान ना निकलने का डर किस लिए,
आप इतने परेशान क्यों हैं, यह बदहवासी आपके चेहरे पर किस लिए,
आपने तो भरपूर वार किया है, मुतमइन रहिए, जान तो निकलेगी ही -
यह दूसरे वार की तैयारी क्यों, ये घबराहट आपके चेहरे पर किस लिए।

एक राज़ की बात कह दूं, मेरी जान नहीं निकल रही है मग़र किस लिए,
अभी भी आप मेरे रूबरू हैं, मेरी जान बस अटकी हुई है मग़र इस लिए,
बहुत ज़ब्त है मुझमें, इत्मीनान से जाओ, आप पलटे और जान निकली -
जब तलक आपके दीदार मय्यसर हैं, जान निकलने दूं मग़र किस लिए।

[मक्‍तूल = One who is killed] [ज़ब्त = Patience] [आराइश = Makeup]
[मकसद = Purpose] [अफ़सुर्दगी = Sadness] [खंजर = Dagger]
[बदहवासी = Restlessness] [मुतमइन = Satisfied] [रू-ब-रूü = In front]
[इत्मीनान = Assured] [दीदार = Full view] [मय्यसर = Available]

नज़म - अना के नताइज

अना के चलते मैं तो हमेशा ही ऊंची ऊंची हवाओं में उड़ा करता था,
मेरे घर में एक कमरे के अंदर कोने में एक आइना हुआ करता था,
आइना कभी भी झूठ नहीं बोलता, वोह तो हमेशा सच ही बोलता है -
लिहाज़ा वोह हमेशा मुझको मेरी असली सूरत दिखा दिया करता था।

मैं तो आइने की इस बेजा हरकत पर हमेशा नाराज़ रहा करता था,
पर आइना हमेशा ही मेरी खफ़्गी को नज़रंदाज़ कर दिया करता था,
एक दिन बेइंतेहा गुस्से में आकर मैंने उस आइने को तोड़ ही डाला -
पर टूटे आइने का हर टुकड़ा मुझे हकीकत-ए-हाज़िरा दिखा रहा था।

अना के रहते मेरी सोच में तल्खियों का शुमार भी हुआ करता था,
आज उसी सोच को आइने का हर टुकड़ा हकीकत बयान करता था,
भरम मेरी अना की बेबाकियों का कुछ यूं टूटा आइने के टूटने पर -
कि वजूद मेरी अना का टुकड़े टुकड़े हो मिट्टी में मिला करता था।

Thursday, March 8, 2012

नज़म - मुखौटे

वक्त-ए-हाल में तो हर शख्स अपने चेहरे पे एक मुखौटा पहन के आता है,
अख़लाक-औ-खुलूस से पारसा अल्फ़ाज़ में भी इक स्याहपन झलक जाता है,
इंसानी चेहरा तो महज़ ’टैबुला रासा' होता है, मुखौटा तो इसे शक्ल देता है -
इक मुखौटे में सोज़-ए-दिल अयां होता है तो इक रंग-औ-नूर लेके आता है।

मैं भी कई मुखौटे रखता हूं एवं हर मुखौटा वक्‍त-ए-ज़रूरत काम आता है,
मौके के मुताबिक मुख्तलिफ़ किस्म का इक मुखौटा सदा हाज़िर हो जाता है,
आप फ़रमाइश करके तो देखिए, ज़रूरत के मुताबिक मुखौटा पेश हो जाएगा -
एक बार मुखौटों को जो इस्तेमाल कर लेता है वोह इनका भक्‍त हो जाता है।

इक मुखौटा है ज़बरन सी मुस्कान लिए जो हर एक के दिल को मोह जाता है,
इक मुखौटा है ग़ुरूर से भरपूर जिसको देख कर दिल सभी का दहल जाता है,
हस्बा-ए-मामूल वक्‍ते ज़रूरत मुखौटे बदलना तो एक रिवायत सी होने लगी है -
लीजिए शरारत से भरपूर इक मुखौटा, सबका मन इसी मुखौटे में खो जाता है।

इक मुखौटा है मुर्दनी चेहरे वाला जो अक्सर मातमी मौकों पर ही काम आता है,
इक मुखौटा पुरनूर चेहरा लिए हुए है जो वक्‍त-ए-जश्‍नां ही इस्तेमाल आता है,
हर मुखौटे की अलग अहमियत होती है जो ज़रूरत के अनुसार काम आती है -
पेश है इक मुखौटा रंजो ग़म से चूर, यह दुखी दिल की पहचान सा हो जाता है।

क़त्ल करने के लिए कातिल भी तो इक कातिलाना सा मुखौटा लगाकर के आता है,
और फिर बाद में वोह मासूमियत से भरा इक नया सा मुखौटा लगाकर के आता है,
और भरपूर मासूमियत से वोह एक ही बात कहता है,"इलज़ाम यह मुझ पर क्यों?"
गवाह भले ही मुकर जाएं मग़र आस्तीन के ऊपर का लहु उसकी पोल खोल जाता है|

इक मुखौटा है खुराफ़ाती दिमाग़ वाला, यह 'भाई' लोगों की मिल्कियत हो जाता है,
इक मुखौटा है शराफ़त नकली लिए हुए जो नेता लोगों की धरोहर ही हो जाता है,
वाह साहब वाह, यह हुई ना बात, मुखौटे तो बहुत काम की चीज़ साबित होते हैं -
और देखिए मासूमियत से भरा यह मुखौटा भी, इससे हर दिल पसीज जाता है।

Sunday, January 22, 2012

नज़म - स्वप्न और यथार्थ

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि स्वप्न तो टूटेगा ही -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि तुम तो चले ही जाओगे -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ और स्वप्न को एक सा पाते हैं हम,
स्वप्न के टूटने के डर से डर जाते हैं हम,
यथार्थ का यथार्थ भी कुछ अलग नहीं है -
तुम से बिछुड़ने के डर से डर जाते हैं हम।