आज घर से निकला था मैं गुलशन से फ़सल-ए-गुल को हासिल करने के लिए, गुलों की इस फ़सल की दरकार थी मुझे अपनी महबूबा को पेश करने के लिए, चंद फूल गुलाब के अगर मैं ले भी लूंगा तो गुलशन का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा - मेरी महबूबा का दिल खिल उठेगा मुझे खुद को उसपर निस्सार करने के लिए। गुल गुलशन में गुलफ़ाम बने फिरते हैं अपनी खूबसूरती के चर्चे सुनने के लिए, गुलों का यूं गुलशन में इतराना जायज़ भी है गुलशन की तशहीर करने के लिए, यह बात गुलों के दिमाग़ में घर कर गई है कि रौनक-ए-दुनियां फक्त इन्हीं से है – और बुलबुल नें भी इन्हें सर पे चड़ा रखा है खुद को जांनिस्सार करने के लिए। एक वजह यह भी है मेरे पास गुलों को अपनी महबूबा के रूबरू करने के लिए, जिस ग़ुरूर में गुल चमन में उड़ते फिरते हैं उस ग़ुरूर को फ़ना करने के लिए, ताउम्र गुल गुलशन में रहे और अपने से खूबसूरत किसी शै के कभी रूबरू न हुए - महबूबा के रूबरू लाना लाज़मी था इन्हें इनसे खूबसूरत शै के रूबरू करने के लिए।
Tuesday, May 22, 2012
नज़म - फ़सल-ए-गुल
Labels: नजम at 10:15:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva
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