मुद्दतों दुनियां वाले अपने ग़मों को हमारे दिल की पनाह में लाने आए, देख कर यह कैफियत हमारे अपने भी हम पर अपना हक जमाने आए, और जब कभी भी हमने खोल कर रख डाली फ़ैहरिस्त अपने ग़मों की - तो ग़ैर तो ग़ैर ही रहे, हमारे अपनों के लबों पर भी सौ सौ बहाने आए। दर्द जब कभी भी हद्द से गुज़र गया, दुनियां वाले हमें और सताने आए, ताज़ा ज़ख्मों पर मरहम तो छोड़ो, पुराने ज़ख्मों पर नमक लगाने आए, अपने कातिल की तो इक इक अदा पर कुर्बान जाने को दिल चाहता है – जो कि खुद ही क़त्ल करके खुद ही रूबरू-ए-ज़माना आंसू बहाने आए। जब कभी ज़माने के रूबरू अपनी रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल हम सुनाने आए, तो हर किसी की जुबां पर फ़क्त अपने ही रंज-औ-ग़म के अफ़साने आए, यह तो तुम ही एक महरम हो हमारे जो कि हमारे दर्द को बांट लेते हो - वरना ये ज़माने के लोग तो मौका ब मौका हमारे गम को बढ़ाने आए।
Saturday, December 8, 2012
नज़म - रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल
Labels: नज़म at 3:51:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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