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Sunday, August 19, 2007

कविता - मुझे मानव ही बना रहने दो

अनमोल हैं ये मानव मूल्य, मुझे मानव ही बना रहने दो,
देव मूल्यों से अनभिज्ञ हूं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

मानव योनी में जन्म लिया है मैंने, पूज्य तो मैं हूं नहीं,
अपने वर्तमान में प्रसन्न हूं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

देवत्व की सामर्थ्य नहीं है, कहीं मानवता भी न बिसर जाए,
क्यों मुझे देव बनाने पर तुले हो, मुझे मानव ही बना रहने दो।

मानव बना रह के शायद मैं सुकार्थ जीवन व्यापन कर सकूं,
देव बनकर अहंकार ना हो जाए, मुझे मानव ही बना रहने दो।

यह तो कलियुग है, इसमें मानव तो दानवता पे उतर आता है,
क्षणभंगुर से इस जीवन में देव नहीं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

माना कि देव बन भी जाऊं पर क्या देवत्व को संभाल पाऊंगा,
देव से तो मानव बनना कठिन होगा, मुझे मानव ही बना रहने दो।

चुरासी के जेलखाने से निकास मानव जीवन द्वारा ही संभव है,
इसे पाने को देवगण भी इच्छुक हैं, मुझे मानव ही बना रहने दो।

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