सच क्या है, सच एक हकीकत है, सच सदा हमें सही राह दिखाता है, झूठ क्या है, झूठ एक छलावा है, झूठ सदा ग़लत राह पर लगाता है। झूठ का ऐतबार ही क्या है, झूठ तो फ़रेब है शुरुआत से आख़िर तक, झूठ ऐय्यार है, सौ भेस बदल लेता है, झूठ हमेशा मन को लुभाता है। झूठ का मन भावन रूप आदमी को इस कदर बहका देता है कि वोह, झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में नहीं हिचकिचाता है। सच माना कि कड़वा होता है और आसानी से हज़म नहीं होता है पर, सच का हमेशा बोलबाला होता है और वोह अपनी छाप छोड़ जाता है। सच हर हाल में फ़तेहयाब है, सच तो सच है आग़ाज़ से अंजाम तक, सच में तो सूरज का नूर समाया हुआ है, सच हमें रौशनी दिखाता है। झूठ की औकात ही क्या है, वक्ती तौर पर भले ही झूठ जीत जाए पर, सच और झूठ की लड़ाई में सच के मुकाबिल झूठ टिक नहीं पाता है।
Tuesday, May 22, 2012
नज़म - सच और झूठ
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नज़म - पोशीदगी-ए-उल्फ़त
अफ़साने उल्फ़त हमारी के यूं चर्चा में कैसे आ गए, यह आप बेहतर जानते हैं, हमारे दिल की लगी के बाबत कैसे जान गए लोग, यह आप बेहतर जानते हैं, दिल की अदल बदल के वक्त हम दोनों ने अहद लिया था एक पोशीदगी का - पोशीदगी-ए-उल्फ़त के इस अहद को किसने तोड़ा, यह आप बेहतर जानते हैं। ज़माने की नज़रें तीर की मानिंद हमको छेदती रही, यह आप बेहतर जानते हैं, हमने सदा अपनी ज़ुबान को सात तालों में बंद रखा, यह आप बेहतर जानते हैं, हमें हमेशा यही चिंता सताती रही कि कहीं आपका नाम जग ज़ाहिर न हो जाए - पोशीदगी-ए-उल्फ़त की इस गिरह को किसने खोला, यह आप बेहतर जानते हैं। पोशीदा बातों को आपने जग ज़ाहिर क्यों होने दिया, यह आप बेहतर जानते हैं, क्यों मोहब्बत को ऐसे बदनामी का चोगा पहना दिया, यह आप बेहतर जानते हैं, आपने शायद यही सोचा होगा कि अक्सर बदनामी में भी रास्ते निकल आते हैं - और इस मसले का भी कोई कारामद हल निकल आए, यह आप बेहतर जानते हैं।
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नज़म - फ़सल-ए-गुल
आज घर से निकला था मैं गुलशन से फ़सल-ए-गुल को हासिल करने के लिए, गुलों की इस फ़सल की दरकार थी मुझे अपनी महबूबा को पेश करने के लिए, चंद फूल गुलाब के अगर मैं ले भी लूंगा तो गुलशन का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा - मेरी महबूबा का दिल खिल उठेगा मुझे खुद को उसपर निस्सार करने के लिए। गुल गुलशन में गुलफ़ाम बने फिरते हैं अपनी खूबसूरती के चर्चे सुनने के लिए, गुलों का यूं गुलशन में इतराना जायज़ भी है गुलशन की तशहीर करने के लिए, यह बात गुलों के दिमाग़ में घर कर गई है कि रौनक-ए-दुनियां फक्त इन्हीं से है – और बुलबुल नें भी इन्हें सर पे चड़ा रखा है खुद को जांनिस्सार करने के लिए। एक वजह यह भी है मेरे पास गुलों को अपनी महबूबा के रूबरू करने के लिए, जिस ग़ुरूर में गुल चमन में उड़ते फिरते हैं उस ग़ुरूर को फ़ना करने के लिए, ताउम्र गुल गुलशन में रहे और अपने से खूबसूरत किसी शै के कभी रूबरू न हुए - महबूबा के रूबरू लाना लाज़मी था इन्हें इनसे खूबसूरत शै के रूबरू करने के लिए।
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नज़म - हमारा प्यार
खुशियों की दौलत तुम्हें मुबारक और ग़मों का खज़ाना हमारा हो, मुनाफ़े के सब सौदे तुम्हें नसीब और घाटे का हर सौदा हमारा हो, तुम्हारी खुशियों में जब भी इज़ाफ़ा हो तो महज़ यही दुआ करना - खुशियां कुछ हमारे हिस्से में भी आ जाएं और ग़मों में खसारा हो। मोहब्बत में गिले-शिकवे बेमानी होते हैं, मानीखेज प्यार हमारा हो, रेले ग़म और खुशी के तो फ़ानी होते है, रवां फ़क्त प्यार हमारा हो, ज़माने की रंगरलियां हों या दुनियावी दौलत, ये सभी वक्ती होते हैं - बाद फ़ना इश्क के जो किस्से कहानी होते हैं, वैसा प्यार हमारा हो। प्रीत बनी रहे सभी से और सबके दिल में कायम प्यार हमारा हो, वैर और द्वैत ना हो किसी से भी और सबके साथ प्यार हमारा हो, चार दिन की यह ज़िंदगी सबके साथ प्रेम-औ-प्यार से गुज़र जाए - हर किसी की मोहब्बत का जो भूखा हो, बस वैसा प्यार हमारा हो।
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नज़म - रुखसतनामा
चाहा तो यही था हमने कि तल्खियां सारे ज़माने की अपने सीने में भर लेते, इतनी कूव्वत ही ना थी कि एक हंसते खेलते दिल को हम शोलों से भर लेते, रोटी रोज़ी के मसलों में यूं उलझे रहे कि अपने पराए की समझ ही नहीं पड़ी - चलो यह तो अच्छा ही हुआ वरना दुनियां भर के और मसले घर में भर लेते। घर छोड़कर निकल तो पड़े हैं, जाने कभी इस जानिब हम फिर रुख कर लेते, खुदा नें तौफ़ीक़ नहीं दी वरना तस्वीर घर परिवार की हम आंखों में भर लेते, यह तो खबर ही नहीं है कि अब के बिछड़े फिर कभी हम मिलेंगे भी या नहीं - वरना नज़ारे इस मुलाक़ात के हम अपने दिल के एक एक कोने में भर लेते। ज़लज़ला सा एक उतरा तो था आंखों में, आंखों की खुश्की कम कैसे कर लेते, हस्बा-ए-हाल नें रोने ही ना दिया वरना तो आंखों को हम समंदर से भर लेते, दिन ढलने को है वक़्त-ए-शाम आने को है, वक़्त-ए-रुखसत किससे मिलना है - बेमकसद सा सवाल है, बस में होता तो सारी कायनात को आंखों में भर लेते।
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नज़म - तेरा नाम - मेरा नाम
साहिल पे गीली रेत पर लिख कर मिटा क्यों देती हो तुम मेरा नाम, डरती हो इन लहरों से तुम, ये लहरें कभी मिटा नहीं सकती मेरा नाम, रेत पर लिखा नाम लहरें अगर मिटा भी दें तो इस में परेशानी क्या है - रेत से मिटने के बाद इन लहरों के आंचल में जुड़ जाता है मेरा नाम। पुकार के देखो तो सही इन लहरों को, इन लहरों से गूंजेगा मेरा नाम, जब भी पुकारोगे तुम इन्हें हमेशा याद ये दिलाएंगी तुम्हें मेरा नाम, इनसे पुराने नाते भी है हमारे, शायद इन्हीं में समाए थे हम पिछ्ले जन्म - इसीलिए तो आजतक इन लहरों में लिपटा हुआ है तेरा नाम मेरा नाम। जब से मिला है हमको यह जीवन, जुड़ा हुआ है तेरा नाम मेरा नाम, जब तलक कायम रहेगा हमारा जीवन, जुड़ा रहेगा तेरा नाम मेरा नाम, भले ही जुड़े यह जीवन लहरों की डोरी से या जुड़े किसी और डोरी से - जन्म जन्मांतर के हैं ये बंधन, यूं ही जुड़ा रहेगा तेरा नाम मेरा नाम।
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नज़म - इंसान-औ-हैवान
इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है, इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है, जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते - ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है। शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है, दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है, अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका - अपनी बढ़तरी को उन्हें औरों को एहसास-ए-कमतरी देते हुए भी देखा है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है, अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है, जीवन श्वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं - इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।
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नज़म - मक्तूल का ज़ब्त
मुझे कत्ल करने को आए हैं वोह पर इतना बनसंवर कर किस लिए, हम तो वैसे ही मर जाते, जनाब, ये आराइश-औ-सजसंवर किस लिए, आप तो मुस्कुरा कर कत्ल कीजिए और फिर कत्ल करके मुस्कुराइए - कत्ल करने के मकसद से आए हैं तो अफ़सुर्दगी चेहरे पर किस लिए। अब खंजर घोंप ही दिया है, मेरी जान ना निकलने का डर किस लिए, आप इतने परेशान क्यों हैं, यह बदहवासी आपके चेहरे पर किस लिए, आपने तो भरपूर वार किया है, मुतमइन रहिए, जान तो निकलेगी ही - यह दूसरे वार की तैयारी क्यों, ये घबराहट आपके चेहरे पर किस लिए। एक राज़ की बात कह दूं, मेरी जान नहीं निकल रही है मग़र किस लिए, अभी भी आप मेरे रूबरू हैं, मेरी जान बस अटकी हुई है मग़र इस लिए, बहुत ज़ब्त है मुझमें, इत्मीनान से जाओ, आप पलटे और जान निकली - जब तलक आपके दीदार मय्यसर हैं, जान निकलने दूं मग़र किस लिए। [मक्तूल = One who is killed] [ज़ब्त = Patience] [आराइश = Makeup] [मकसद = Purpose] [अफ़सुर्दगी = Sadness] [खंजर = Dagger] [बदहवासी = Restlessness] [मुतमइन = Satisfied] [रू-ब-रूü = In front] [इत्मीनान = Assured] [दीदार = Full view] [मय्यसर = Available]
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नज़म - अना के नताइज
अना के चलते मैं तो हमेशा ही ऊंची ऊंची हवाओं में उड़ा करता था, मेरे घर में एक कमरे के अंदर कोने में एक आइना हुआ करता था, आइना कभी भी झूठ नहीं बोलता, वोह तो हमेशा सच ही बोलता है - लिहाज़ा वोह हमेशा मुझको मेरी असली सूरत दिखा दिया करता था। मैं तो आइने की इस बेजा हरकत पर हमेशा नाराज़ रहा करता था, पर आइना हमेशा ही मेरी खफ़्गी को नज़रंदाज़ कर दिया करता था, एक दिन बेइंतेहा गुस्से में आकर मैंने उस आइने को तोड़ ही डाला - पर टूटे आइने का हर टुकड़ा मुझे हकीकत-ए-हाज़िरा दिखा रहा था। अना के रहते मेरी सोच में तल्खियों का शुमार भी हुआ करता था, आज उसी सोच को आइने का हर टुकड़ा हकीकत बयान करता था, भरम मेरी अना की बेबाकियों का कुछ यूं टूटा आइने के टूटने पर - कि वजूद मेरी अना का टुकड़े टुकड़े हो मिट्टी में मिला करता था।
Labels: नजम at 9:49:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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