कत्ल तुमने हमारा किया, तुम कातिल और मक्तूल हम हो गए, दुन्यावी अदालत में तो गवाहों के बयानात पर बरी तुम हो गए, मग़र दावा-ए-कत्ल नालिश हुआ तुम पे जब खुदा की अदालत में - यूं तो हम साफ़ मुकर गए पर ग़लत बयानी के मुजरिम हम हो गए। दायर हुआ हमपर मुकद्दमा झूठ बोलने का तो मुजरिम हम हो गए, खुदा की शतरंजी चाल तो देखो, गवाह की हैसियत से पेश तुम हो गए, सैय्याद अपने जाल में खुद आ गया, सच बोलो तो गुनाह-ए-कत्ल साबित - और झूठ बोल के बच निकलो तो झूठ बोलने के भी गुनहगार तुम हो गए। कर लो हासिल इबरत इसी वाक्या से तो हर मंज़िल से पार तुम हो गए, ऊपर क्या देखते हो, यहीं पर बहिश्त को पाने के हकदार भी तुम हो गए, खुदा मिल जाएगा यहीं पर, राह-ए-बहिश्त को ढूंढने को क्यों निकले हो तुम - प्रेम से जियो और औरों को भी जीने दो, हर मुश्किल से आज़ाद तुम हो गए।
Saturday, October 8, 2011
नज़म - मुकद्दमा-ए-कत्ल
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नज़म - हकीकत-ए-हाज़िरा
"कैसे हैं आप" लोग अमूमन यह सवाल हमसे करते हैं, "बस वक्त गुज़ार रहे हैं", यही हम अमूमन कह देते हैं, कुछ अजीब सा हो गया है वक्त गुज़ारने का सिलसिला - दिन गुज़र जाते हैं रोज़गार में, रातें नहीं काट पाते हैं। कहने को तूल-ए-ज़िंदगी के सिर्फ़ चार ही दिन बताते हैं, पर ये चार दिन भी काटने में सालों साल गुज़र जाते हैं, ज़िंदगी रोज़मर्रा के ढर्रे पर कुछ ऐसे निकल जाती है कि - कुछ तो मर मर के जीते हैं, कुछ जीते जी मर जाते हैं। यदि नहीं पीते हैं तो खौफ़-ए-हकीकत-ए-हाज़िरा सताते हैं, और अगर पीते हैं तो ग़म-ए-ज़िंदगी ज़हन पर छा जाते हैं, पीने और ना पीने की भी अजीब सी कशमकश है ज़िंदगी में - पीकर तो हम होश में रहते हैं और बिन पिए बहक जाते हैं।
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Wednesday, October 5, 2011
नज़म - खवाबों की बुनाई
आओ हम दोनों मिल कर आज कुछ कहते हैं और कुछ सुनते हैं, कुछ हम सुनाएं, सुनो आप और कुछ हम आप की सुनते है, इसी सुनने सुनाने में जो गुज़र जाए वही वक्त बेहतर होता है - चलो बातों के धागों को आगे बढ़ाकर ख्वाब कुछ हम बुनते हैं। कितने हसीन होते हैं ये ख्वाब जो हम दोनों मिलकर बुनते हैं, पर आपको तो खबर ही नहीं कि लोग क्या क्या बातें करते हैं, खैर, छोड़ो उनकी बातें, उनके पास तो और कोई काम ही नहीं होता - भूलकर ज़िंदगी की भाग दौड़ को कुछ कदम संग संग चलते हैं। तमाम उम्र यह जो हम जीते हैं, ख्वाब देखते हैं और बातें करते हैं, एक दूजे से हम लड़ते हैं और झगड़ते हैं, प्यार मोहब्बत करते है, सभी कारगुज़ारी में एक ही बात है जो काबिल-ए-ग़ौर है, ता-ज़िंदगी - यही दौलत हम कमाते हैं एवं यही मिल्कियत हासिल करते हैं।
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नज़म - वोह और हम
पहले तो ज़ख़्म-ए-दिल देते हैं वोह, फिर हंस देते हैं, और उन्हीं ज़ख़्मों को कुरेदते हैं और फिर हंस देते हैं, अपने ज़ख़्म हरे रखते हैं हम ताकि उनकी तवज्जो रहे - हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं। पहले जुमलों के तीर छोड़ते हैं वोह, फिर हंस देते हैं, उन तीरों को बा-असर देखते हैं और फिर हंस देते हैं, यह जुमले-बाज़ी ऐसे कुछ मुकाम पे पहुंच जाती है कि - हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं। प्यार के सिलसिले को जीतते हैं वोह, फिर हंस देते हैं, हमारी हार में अपनी जीत देखके वोह फिर हंस देते हैं, वजह शायद एहसास-ए-गुनाह-ए-बेनियाज़ी हो उनका कि - हम तो हंस देते हैं पर वोह ना जाने क्यों रो देते हैं।
Labels: नज़म at 3:57:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - कैंचियां
मेरठ की एक महिला का वहां आना हुआ जहां हम काम करते हैं, हमने मज़ाक मज़ाक में ही उनसे कह दिया कि लोगों से सुनते हैं, कि आपके मेरठ शहर की कैंचियां तो बहुत दूर दूर तक मशहूर हैं - दर्जी तो दर्जी, जेबकतरे तक भी वही कैंचियां ही इस्तेमाल करते हैं। वोह मुस्कुराकर बोली, "जी जनाब, हम भी तो यही बात सुनते हैं, और इसमें ग़लत भी क्या है जो वोह उन्हीं का इस्तेमाल करते हैं, आख़िर क्यों इस्तेमाल ना करें वोह अपने ही शहर की कैंचियों को - शहर की कैचिय़ां बेहतर हैं सो वोह उन्हीं का ही इस्तेमाल करते हैं। दर्जियों और जेबकतरों की बात को छोड़िए, लोग तो ऐसा भी कहते हैं, कि हम महिलाएं भी दिन रात इन कैंचियों का ही इस्तेमाल करते हैं, असल में हम महिलाएं तो इन कैचियों के चलते फिरते इश्तेहार ही हैं - हम तो अपनी ज़ुबान का इन कैचियों की तरह ही इस्तेमाल करते हैं"।
Labels: नज़म at 3:52:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
कविता - कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट (या रौंग)
काफ़ी समय पहले एक साहब हमारे साथ बैंक में काम करते थे, नाम तो था शांतिप्रिय पर छवि "एंगरी यंग मैन" वाली रखते थे, जवान थे और हर ग्राहक से बिना किसी बात झगड़ा कर बैठते थे - "कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट" बैंक मैनेजर अमूमन उन्हें समझाते थे। "कस्टमर इज़ आल्वेज़ राइट" सुन सुनकर बेचारे घुटकर रह जाते थे, एक दिन अचानक उन्होंने त्यागपत्र दे दिया पर बहुत खुश दिख रहे थे, शायद कोई बेहतर और अच्छे वेतन वाली नौकरी उनको मिल गई थी - जाते जाते वोह अपने नाम के अनुरूप सबसे खुश होकर मिल रहे थे। कल एयरपोर्ट पर अचानक वो मिल गए, हमें बहुत तपाक से मिले थे, हमने उनका हालचाल पूछा और पूछा आजकल वो कहां काम करते थे, हंसकर बोले आजकल वो वहां हैं जहां "कस्टमर हमेशा रौंग ही होता है" – मुझे हैरान देखकर बोले, "आजकल वो पोलीस विभाग में काम करते थे"।
Labels: कविता at 3:47:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - शहर-ए-खमोशां
चैन की नींद जो सो रहा था मैं ओढ़े कफ़न मैं अपने मजार में, शोर जो कुछ सुना मैंने तो बैठ गया उठ के मैं अपने मजार में, शोर-औ-गुल और शहर-ए-खामोशां में, आखिर माजरा क्या है यह - तकरीर हो रही थी, कायम रहे अमन और चैन शहर-ए-मजार में। तमाम उम्र चैन से तुमने सोने ना दिया अपनी खोखली तकरीरों से, और ना ही अब सोने दे रहे हो कब्र में अपनी खोखली तकरीरों से, तुम नेता हो तो संसद में जाओ और करो तकरीरें जितनी चाहो तुम - क्या दे सकोगे शहर-ए-खामोशां में हमें अपनी खोखली तकरीरों से। फ़क्त आदमखोर ही आदमखोर बसते हैं तुम्हारे इस फ़रेबी जहां में, हर एक बस्ती के गोशे गोशे को छानकर देख लिया फ़रेबी जहां में, इनकी सफ़ेदपोशी पर न जाओ, स्याह दिलों में भी झांक कर देखो - इसीलिए आशियाना बनाए बैठे हैं कब्रिस्तान में इस फ़रेबी जहां में।
Labels: नज़म at 3:42:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
गज़ल - गज़ल
तूफ़ान से रहम की गुज़ारिश करते हो तुम, बहुत नादान हो तुम, यह क्या करते हो तुम, जीने के लिए तूफ़ां का मुकाबिला करो ना - क्यों अपने मरने का सामान करते हो तुम। यूं तो मोहब्बत के नाम पर आहें भरते हो तुम, इज़हार-ए-मोहब्बत से फिर क्यों डरते हो तुम, और इज़हार-ए-हाल-ए-दिल में यह देरी क्यों - आज ही करो ना, कल पर क्यों रखते हो तुम। उम्र-ए-हयात कुछ ऐसे बसर करते हो तुम, जैसे हर्फ़-ए-ज़ीस्त पर सही करते हो तुम, यह जानते हुए कि पल की खबर नहीं है - सामान सौ बरस का मुहैय्या करते हो तुम।
Labels: ग़ज़ल at 3:39:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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