हम हमेशा ही जमा के निशान का इंतेख़ाब करते आए हैं अपने रिश्तों में, निशां मनफ़ी के तो कभी कहीं ज़िक्र में ही नहीं आए हैं अपने रिश्तों में। माना कि रिश्तों को मिलाना फ़क्त ऊपर वाले के हाथों में ही होता है पर, बरकरार ये सिलसिले तो अपने आप ही रखते आए है अपने रिश्तों में। जब भी मिले हैं सुख हमको ज़िंदगी में, खैरमक्दम किया है हमने उनका, सुखों का पाना एवं भोगना सदा मज़बूती बनाते आए हैं अपने रिश्तों में। आंखों से टपके हुए आंसू हमेशा से कारामद साबित हुए राह-ए-ज़िंदगी में, दुख अश्कों की लड़ी में पिरोए ताकि आंच नहीं आए है अपने रिश्तों में। समुंदर तो नहीं हैं पर बड़े बड़े तूफ़ानों को अपने सीने में हमने संजोया है, खुद को हम दो नहीं, एक ही तस्लीम करते आए हैं अपने रिश्तों में।
Sunday, October 31, 2010
नज़म - हमारे रिश्ते
Labels: नज़म at 4:02:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 1 comments
Monday, October 18, 2010
नज़म - हुस्न-ए-कामिल
जब कभी भी अपने दिल की गहराइयों से हम उन्हें पुकारते हैं, सुनके फ़रियाद आते हैं वोह तो हम हुस्न-ए-कामिल को निहारते हैं। ऐसे लगता है जैसे कोई हूर उतर आई हो जन्नत से इस ज़मीं पर, कंवल खिल उठते हैं दिल के जब उन्हें अपने दिल में हम उतारते हैं। नज़र उठती है जो उनकी जानिब तो फिर संभल नहीं पाते हैं हम, गेसु अपने वोह कुछ ऐसे नाज़-औ-अंदाज़ से शानों पर बिखेरते हैं। ज़ुल्फ़-ए-पेचां की तस्सवुरी में कुछ इस तरह से उलझ जाते हैं हम, दिल को थाम लेते हैं और उनके काकुल-ए-पेचां को हम संवारते हैं। उनके काकुल और रुख़सार से बड़कर और जन्नत क्या हो सकती है, जैसे मिली हो बख्शिश-ए-फ़िर्दौस हमको, कुछ यूं हम इसे गुज़ारते हैं।
Labels: नज़म at 12:16:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - मेरी कश्ती
दुशमनों ने तो खैर दुशमनी निभाई जो छोड़ दी मंझदार में मेरी कश्ती, मेरे तो खुद अपने ही ले गए मोड़ कर तूफ़ान की जानिब मेरी कश्ती। ग़ैर की खातिर कौन अपनी जान जोखिम में डालने की जुर्रत करता है, किसी ग़ैरों से क्यों गिला करें जबकि मुश्किल ना थी बचानी मेरी कश्ती। तूफ़ान समुंदर में कुछ यूं उछाले मार रहा था कि उसके तेवर बता रहे थे, कि खुदा अगर कोई मोजज़ा कर दें तो वोह ही बचा सकते थे मेरी कश्ती। ऐसे ही मोजज़े के हकदार भी थे हम और खुदा ने मोजज़ा कर भी दिया, खुदा ने हम पर करम कर दिया उछाल के साहिल की तरफ़ मेरी कश्ती। ना जाने ऐन वक्त हमारा क्या भूला हुआ सितम नाखुदा को याद आया, कि रहमत-ए-खुदा को ठुकरा के साहिल पे ही डुबो दी उसने मेरी कश्ती।
Labels: नज़म at 12:15:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - मेरा माज़ी
मेरा माज़ी तो खज़ाना है एक, मैं इसको बहुत संभाल करके रखता हूं, हाल में जब जी परेशान होता है तो इसी से दिल लगा के रखता हूं। मेरे इस खज़ाने में पैबस्त हैं मेरी अनगिनत भूली बिसरी हसीन यादें, इन हसीन यादों की पूंजी को मैं सात तालों में बंद कर के रखता हूं। माना कि मेरे माज़ी की इन यादों में शुमार ज़माने की तल्खियां भी हैं, पर मैं तो इन तल्ख यादों को भी हर घड़ी खुशगवार बना के रखता हूं। इन खट्टी मीठी यादों से ही तो ज़ाहिर होते हैं ज़िंदगी के दोहरे रुख, इसलिए मैं हसीन यादों की तिजोरी में तल्खियां भी जमा के रखता हूं।
Labels: नज़म at 12:13:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - मकसद
हम नहीं हैं वोह जो खुद भी हवाओं के रुख को साथ ले चल पड़ें, हम तो वोह हैं जो हवाओं के रुख को ही मोड़ने के लिए चल पड़ें। पहले हम अपने ही घर में खुद को अजनबी सा पाते थे मग़र अब, ग़ैरों में भी सब अपने से लगते हैं जब उन्हें अपना बनाने चल पडें। आज का चलन यह है कि एक भाई दूसरे भाई की जान के पीछे है, ज़रूरी है कि हम लोगों में भाईचारा बढ़ाने के मकसद से चल पड़ें। कौन अपना है और कौन बेगाना, नादान हैं जो यह सवाल उठाते हैं, ज़रूरी है कि हम ऐसे लोगों के इन सवालों के जवाब देने चल पडें। जहां में आकर फ़क्त एक मुसाफ़िर के मानिंद जीना काफ़ी नहीं है, ज़रूरी है कि हम हर फ़र्द के वक्त-ए-ज़रूरत साथ उसके चल पडें।
Labels: नज़म at 12:11:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - रहमत-ए-खुदा
धड़कन-ए-दिल थमने को हो लेती हैं जब मुद्दतों उनसे मुलाकात नहीं होती, जब होती है निगाहें जमने लगती हैं और लब सिल जाते हैं, बात नहीं होती। ताज का साथ हो और रू-ब-रू चांद हो तो जवानी मदमस्त हो जाती है, रहमत खुदा की अपने संग होती है, चांदनी रात में बरसात नहीं होती। मुश्तहिर कर दो इन सब दानिशवरों में कि आज आ जाएं हमारे मुकाबिल, इश्क-औ-मोहब्बत हैं अपने मज़हब, अपने दिन तो होते हैं रात नहीं होती। कायम करो दिल में कयाम-ए-मोहब्बत और जीत लो नेमतें दोनों जहां की, ऐतमाद, अख़लाक, खुलूस, इल्म-औ-सुखन से बढ़कर कोई सौगात नहीं होती।
Labels: नज़म at 12:08:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - मुख़्तसर सा सफ़र ज़िन्दगी का
जब कभी भी किसी भी जगह पर अज़ान पढ़ने की रसम होती है, बतौर-ए-दस्तूर उस जगह पर नमाज़ पढ़ने की भी रसम होती है। फ़ज्र, ज़ोहर, असर, मग़रिब या इशा, नमाज़ भले ही कोई भी रहे, हर वक्त की नमाज़ से पहले अज़ान के पढ़ने की भी रसम होती है। एक दस्तूर है नए जन्मे बच्चे के कान में अज़ान को पढ़े जाने का, लेकिन एक इसी अज़ान के बाद नमाज़ ना पढ़ने की रसम होती है। वक्त-ए-रुखसत नमाज़-ए-जनाज़ा को पढ़ना तो लाज़मी होता ही है, मग़र इस एक नमाज़ से पहले अज़ान ना पढ़ने की रसम होती है। अज़ान से लेकर नमाज़ तक मुख़्तसर सा सफ़र है ज़िन्दगी का, शुरू में अज़ान एवं आखिरी वक्त नमाज़ पढ़ने की रसम होती है।
Labels: नज़म at 12:03:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - दोस्त और उनकी दोस्ती
दोस्तों का हर सितम हम गवारा कर ही लेंगे, जो बर्दाश्त के काबिल ना होगा तो सह ही लेंगे। दोस्त बेवफ़ाई पर ही उतर आएं तो क्या हासिल, दोस्ती निबाही है तो बेवफ़ाई भी निभा ही लेंगे। उम्र भर निबाहने का दम भरने वाले ये दोस्त, ज़हर जो पिलाने आए हैं तो वोह भी पी ही लेंगे। दोस्तों की दोस्ती के बिना जीना मुश्किल होगा, अगर यूं भी जीना पड़ेगा तो हम जी ही लेंगे। मेरे मौला दोस्तों की दुशमनी से हमें बचाओ, दुशमनों को दोस्त बनाकर हम निभा ही लेंगे।
Labels: नज़म at 12:01:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - दिल-औ-दिमाग़
दिल-औ-दिमाग़ में जब कभी भी किसी मुद्दे पर जद्द-औ-जहद होती है, दिमाग़ क्योंकि माहिर है अय्यारी में, हर नुक्ते पर नज़र उसकी होती है। लेकिन दिल तो सिर्फ़ एक खुशगवार नतीजे का ही ख्वाहिशमंद होता है, अब इसे सही कहो या ग़लत, उसकी सोच तो बस एक तरफ़ा ही होती है। सब ज़र्ब और तक्सीम दिमाग़ की दिल को नागवार गुज़रने लगती है, लिहाज़ा दिमाग़ के हाथ खड़े हो जाते हैं और जीत तो दिल की होती है। लेकिन कभी कभी हालात काबू से कुछ इस तरह बाहर हो जाते हैं, दिल तो बेबस होता ही है, दिमाग़ की सोच भी नाकाम ही होती है। माना कि हर वक्त-ए-सहर-औ-शाम दिल तो सब्ज़ बाग दिखाए है, फ़तह तो दिमाग़ की शाइस्ता सोच को अहमियत देने से ही होती है।
Labels: नज़म at 11:55:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - ज़ख्म
ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की आदमी को रुला देती है, ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, तकलीफ़ उन की ज़िंदगी को घुला देती है। ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, शराब निहायत ही मुफ़ीद साबित होती है, बाहरी ज़ख्मों को शराब सुखा देती है और अंदरूनी हों तो भुला देती है। ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, हल्दी भी उतनी ही मुफ़ीद साबित होती है, बाहरी ज़ख्मों को हल्दी भी सुखा देती है, अंदरूनी हों तो भुला देती है। ज़ख्म बाहरी हों या अंदरूनी, शराब-औ-हल्दी दोनों ही अग़र मुफ़ीद हैं, तो शराब का ही सहारा क्यों लें जो ज़ख्मों को हल्दी भी सुला देती है।
Labels: नज़म at 11:51:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments