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Wednesday, December 26, 2012

कविता - दामिनी के मुजरिमों की सज़ा

बलात्कार के अपराध के दोषियों लिए मात्र मौत की सज़ा ही उपयुक्त हो सकती है,
इतने जघन्य कृत्य के लिए इसके अतिरिक्त और कोई सज़ा भी क्या हो सकती है,
मग़र मैं एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर रहा हूं जिसपर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है -
इनकी तथाकथित मृत्यु के पश्चात इनकी अस्थियों की क्या नियति हो सकती है?

ये लोग जो कि पूर्णतयः दुष्चरित्र हैं इनकी अस्थियां भी तो पवित्र नहीं हो सकती हैं,
उन्हें समुद्र में प्रवाह करें तो भविष्य में वो सुनामी जैसी विपदा का रूप ले सकती हैं,
उन्हें ज़मीन में गाड़ें तो भविष्य में भूकंप जैसी परिस्थितियों का जन्म हो सकता हैं -
उन्हें वातावरण में विसर्जित करें तो वो सम्पूर्ण वातावरण को दूषित कर सकती हैं।

अगर ऐसा सब कुछ करने से ऐसी अमानवीय परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं,
ऐसी परिस्थितियां जो कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए हानिकारक हो सकती हैं,
तो उचित यही होगा कि मृत्युपरांत इनकी लाशें जंगली जानवरों को सौंप दी जाएं -
मनुष्य जाति की हानि भी ना हो और ये किसी के लिए लाभकारी भी हो सकती हैं।

Wednesday, December 19, 2012

नज़म - जज़्बा-ए-वफ़ा

दोस्ती नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
प्यार पैग़ाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर खुशी में जज़्ब है जज़्बा-ए-वफ़ा -
मोहब्बत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

खुशबू से नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
सतरंग से नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
सात सुरों का संगम है जज़्बा-ए-वफ़ा -
नाम है मौसीकी जज़्बा-ए-वफ़ा का।

ईमान नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
ऐतमाद नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
आदमी का वजूद है जज़्बा-ए-वफ़ा -
अख़्लाक नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

इन्सानियत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
रूहानियत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हकीकतन हर शै में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
कायनात है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

पाकीज़गी से है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
खुलूस से तो है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
पैदा करो तो सही अपने अंदर जज़्बा-ए-वफ़ा -
एहसास से ही तो नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

इनायत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
करम नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर फ़ल्सफ़े का निचोड़ है जज़्बा-ए-वफ़ा -
अकीदत नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

रिज़्क नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बरकत में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर एक नायाब शै में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
शान-औ-शौकत में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

गुरूग्रंथ-औ-गीता में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बाइबल नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर इल्म-औ-सुखन में है शुमार जज़्बा-ए-वफ़ा -
कुरान में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

पारसाई में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
राअनाई में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
बहुत ही बड़ी जागीर है जज़्बा-ए-वफ़ा -
खुदाई नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का।

राम और रहीम नाम है जज़्बा-ए-वफ़ा का,
नानक एवं ईसा में है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का,
हर पयम्बर के पैग़ाम में है जज़्बा-ए-वफ़ा -
रब्ब में मौजूद है नाम जज़्बा-ए-वफ़ा का।

Saturday, December 15, 2012

नज़म - माथे पे त्योरी

जनाब-ए-वाला, आपसे इश्क ही तो किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो,
जनाब-ए-वाला, कोई गुनाह तो नहीं किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

इश्क हो जाए किसी को किसी से, क्या यह कहीं किसी के बस में हुआ करता है,
हमारे भी बस से बाहर था जो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

कौन किसी के काबिल है और कौन किसी के काबिल नहीं है, खुदाई देन है इश्क,
यह खुदाई देन हमें मिली है तो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

इश्क रुतबा, मयार, मज़हब और ज़ातपात कभी नहीं पूछा करता, सिर्फ़ हो जाता है,
हमें भी बस हो गया है इश्क तो हमने किया है, आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

लगता है कि हमारी बातों से आप मुतमइन हो गए हो जो मंद मंद मुस्कुरा रहे हो,
हमने आपको मुतमइन कर ही दिया है तो फिर आप माथे पे त्योरी चढ़ाते क्यों हो।

नज़म - खून का रिश्ता

कल रास्ते में फ़रीद साहब मिल गए, मिलकर उनको तो मन मेरा हर्षाया,   
मेरे एक दोस्त मेरे साथ थे, उनसे फ़रीद साहब का मैंने मिलाप करवाया,
मैंने दोस्त को बताया कि फ़रीद साहब के साथ तो खून का रिश्ता है मेरा -
मेरे दोस्त हैरान थे कि फ़रीद साहब से खून का रिश्ता मेरा कैसे हो पाया।

मैंने कहा कि ज़माने की रस्मों ने मुझे हिंदु और उन्हें मुसलमां बनाया,
लेकिन उनके इंसानी अख़्लाक ने उनके साथ मेरा खून का रिश्ता बनाया,
कल हस्पताल में जब मैं ज़िंदगी-औ-मौत की जद्द-औ-जहद कर रहा था -
तो फ़रीद साहब ने अपना खून देकर मेरी ज़िंदगी को नया जामा दिलाया।

तख़्लीक-ए-कायनात के दौरान यजदां ने तो सबको फ़क्त इन्सां बनाया,
लेकिन दुन्यावी रिवायतों ने उन्हें हिंदु, सिख, इसाई-औ-मुसलमां बनाया,
तोड़ दो इन मज़हबी दीवारों को और कायम करो सबसे ऐसा एक रिश्ता -
जो परे हो इन रिवायतों-औ-दीवारों से जैसे सहरा में हो इक ग़ुल खिलाया।

Saturday, December 8, 2012

नज़म - मेरी कलम

बहुत रोका, बहुत टोका मैंने अपनी कलम को पर वोह अपनी करनी से बाज़ नहीं आई,
किस्सा-ए-हकीक़त-ए-हाज़िरा को ज़माने में आम करने में उस ने ज़रा भी देर नहीं लगाई,
पूरे का पूरा हर्फ़-ए-अमल वोह फ़र्राटे से लिखती आई और ज़रा भी बुज़दिली नहीं दिखाई,
पर ज़माने मे चोरी, लूट, खसोट, बदमाशी, गुंडागर्दी व दहशतगर्दी मे कोई कमी नहीं आई।

चोर हो, भाई हो या नेता, आपस में सभी एक हैं, यह लिखने में वोह ज़रा भी नहीं घबराई,
इस ज़माने में कोई भी इदारा ले लो, इन सभी कुकृत्यों से अछूता वोह ज़रा भी नहीं पाई,
ज़माने की जुबान पर ताले लगे हैं तो क्या, कलम नें अपनी कथनी में कमी नहीं दिखाई,
जो चोर और पोलीस आपस में हैं भाई भाई, नेता व भाई के रिश्ते में भी कमी नहीं आई।

सुनो, कान खोलकर, सुनो, यह आवाम की ही पुरज़ोर आवाज़ है जो कलम नें है यहीं उठाई,
देखो, आंखें खोलकर, देखो, शीशे में तुम्हारी अपनी ही सूरत है जो कलम नें है यहीं दिखाई,
बोलो, मुहं खोलकर, बोलो, यही तो हकीकत-ए-हाज़िरा है जो कलम नें तुम्हें है यहीं समझाई,
बापू के तीन बंदर ही बनकर मत रह जाओ वरना कहोगे कि तुमने है मुंह की यहीं खाई।

नज़म - आप मिलो तो सही

साथ आपका अगर रहे तो दोंनों जहां हम भुला देंगे, आप मिलो तो सही,
इस जहां के अंदर ही इक नया जहां हम बसा लेंगे, आप मिलो तो सही।

ज़िंदगी के सफ़र में एक हमसफ़र का साथ होना निहायत ही लाज़मी है,
हमसफ़र बन जाओ, आपको दिल में हम सजा लेंगे, आप मिलो तो सही।

आप अगर साथ देने का वादा करो तो फिर इस ज़माने का हमें क्या डर,
तमाम दुनियां की मुखालफ़त झेलकर हम भुला देंगे, आप मिलो तो सही।

वफ़ा परस्ती हमारा शोबा और इकरार-ए-वफ़ा शौक़ आपका तो क्या ग़म,
ग़ैरों से हमें मतलब क्या, एक दूजे से हम निभा लेंगे, आप मिलो तो सही।

सादादिली हमारी तो जगज़ाहिर है, यह एक ही नज़र में आप जान जाओगे, 
आंखों ही आंखों में बात दिल की आपको हम बता देंगे, आप मिलो तो सही।

एक बहुत ही मशहूर कहावत है जग में कि एक हाथ दूसरे हाथ को धोता है,
आप और हम दोनों मिल जाएं तो सब ग़म मिटा देंगे, आप मिलो तो सही।

लबों पर हो आराइश हंसी की और फूलों की मानिंद मुस्कुराहट हो चेहरे पर,
फिर देखो, आपकी खातिर जान तक भी हम लुटा देंगे, आप मिलो तो सही।

नज़म - ईमानदारी के जरासीम

कल एक पुराने दोस्त मिल गए, बेचारे बहुत ही खस्ता हाल में नज़र आते हैं,
हालांकि यह महाशय आयकर कार्यालय में इंस्पैक्टर के ओहदे से जाने जाते हैं,
मैंने कुरेदा, "अरे भाई, यह क्या हालत बना रखी है, आप कुछ लेते क्यों नहीं -
आपके कार्यालय में तो सभी लेते हैं और दोनों हाथों से दौलत समेटे जाते हैं"।

कहने लगे, "बात तो आपकी ठीक है, ये वोह अपनी मजबूरी में करते जाते हैं,
और मैं मजबूर हूं आप अपनी मजबूरी से, मेरे हालात उनसे अलग हो जाते हैं",
मैंने कहा, "तुम्हारे हालात उनसे अलग हो जाते हैं, यह बात कुछ समझा नहीं" -
बोले, "लेने-देने की बात होती है तो मां-बाप द्वारा दिए संस्कार आढ़े आ जाते हैं"।

मैंने कहा, "यह क्या कहते हैं आप? मां-बाप द्वारा दिए संस्कार आढ़े आ जाते हैं,
अरे दोस्त, आयकर कार्यालय में कार्यरत होकर संस्कार आपके आढ़े आ जाते हैं,
आप तो एक अजूबा हो, भाई, आपको देखने के लिए तो टिकट ही लगानी पड़ेगी" -
हंसकर बोले,"मैं क्या करूं, दोस्त, मेरे अंदर ईमानदारी के जरासीम घुस जाते हैं"।

नज़म - रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल

मुद्दतों दुनियां वाले अपने ग़मों को हमारे दिल की पनाह में लाने आए,
देख कर यह कैफियत हमारे अपने भी हम पर अपना हक जमाने आए, 
और जब कभी भी हमने खोल कर रख डाली फ़ैहरिस्त अपने ग़मों की -
तो ग़ैर तो ग़ैर ही रहे, हमारे अपनों के लबों पर भी सौ सौ बहाने आए।

दर्द जब कभी भी हद्द से गुज़र गया, दुनियां वाले हमें और सताने आए,
ताज़ा ज़ख्मों पर मरहम तो छोड़ो, पुराने ज़ख्मों पर नमक लगाने आए,
अपने कातिल की तो इक इक अदा पर कुर्बान जाने को दिल चाहता है –
जो कि खुद ही क़त्ल करके खुद ही रूबरू-ए-ज़माना आंसू बहाने आए। 

जब कभी ज़माने के रूबरू अपनी रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल हम सुनाने आए,
तो हर किसी की जुबां पर फ़क्त अपने ही रंज-औ-ग़म के अफ़साने आए,
यह तो तुम ही एक महरम हो हमारे जो कि हमारे दर्द को बांट लेते हो -
वरना ये ज़माने के लोग तो मौका ब मौका हमारे गम को बढ़ाने आए।