लोग कुछ ग़लत करते हैं तो हम उन्हें कम-ज़र्फ़ बताते हैं, और अगर हम ग़लत करते हैं तो हालात अपने बुरे बताते हैं। जब कभी हम गिरते हैं और लोग हंस कर निकल जाते हैं, तो हम उनको उनके अख़लाक की दुहाई देने लग जाते हैं। पर उस वक्त हमारा अख़लाक आख़िर कहां खो जाता है, जब कोई और गिरता है और हम हंसकर निकल जाते हैं। फ़क्त औरों को छोटा कह देने से हम बड़े नहीं हो जाते हैं, दूसरों को छोटा बता के हम अपनी अना को जगाते हैं। किसी को कोई हर्फ़-ए-ग़लत कहना कोई दानिशमंदी नहीं है, इस तरह तो हम अपने एहसास-ए-कमतरी की मोहर लगाते हैं। ठीक-औ-ग़लत के फ़ैसले लेने की ज़र्ब-औ-तक्सीम ही मुख़्तलिफ़ है, किसी को ग़लत कह कर हम तो आल्लाह ज़र्फ़ नहीं हो जाते हैं। बहुत आसान होता है किसी की जानिब एक उंगली का उठा देना, उस वक्त देखें, इशारे तीन उंगलियों के खुद हमारी ओर हो जाते हैं। MEANINGS [कम-ज़र्फ़ = Lower Intellect] [अख़लाक = Sense of Responsibility] [हर्फ़-ए-ग़लत = Wrong word] [दानिशमंदी = Rationality] [एहसास-ए-कमतरी = Inferiority complex] [मोहर = Stamp] [ज़र्ब-औ-तक्सीम = Multiplication & Division] [मुख़्तलिफ़ = Different] [आल्लाहज़र्फ़ = Higher Intellect] [जानिब = Towards]
Tuesday, August 31, 2010
नज़म - हम और हमारा रव्वैया
Labels: नज़म at 12:23:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
Wednesday, August 25, 2010
गज़ल - गज़ल
भले ही दिलेरी और बेबाकी के ज़राबख्तर को अपने साथ रखो, सादगी-औ-हया की अमूल्य पोशाक को भी तो अपने साथ रखो। मानाकि खुशियों का इक खज़ीना आप अपने साथ रखते हो, दूसरों में खुशियां बांटने के जज़्बे को भी तो अपने साथ रखो। मोहब्बत में लोग दिल की इक नवेकली सोच से काम लेते हैं, दिमाग़ी फ़ैसले और शाइस्ता सोच को भी तो अपने साथ रखो। उल्फ़त में तो यकीनन आदमी की सोच इक तरफ़ा हो जाती है, दो वक्त की रोटी के जुगाड़ की सोच को भी तो अपने साथ रखो। मैं तो बहुत रईस हूं और हर जानिब चर्चे हैं मेरे रईसी ठाठ के, दर पे आए हुए साइल की दी दुआ को भी तो अपने साथ रखो। ज़िंदगी में रोबिनसन करूसो बनके जीना भी कोई मुश्किल नहीं, लेकिन माशरे का इक फ़र्द होने का फ़र्ज़ भी तो अपने साथ रखो। ज़िंदगी जीते जीते हर आदमी दुनियां में इशरत-ज़दा हो जाता है, मौत का एहसास दिल में रखने का मादा भी तो अपने साथ रखो। नसीबा बन बन भटकने का प्रभु श्री राम ने अपने गले लगाया था, उनके ’मर्यादा पुरुषोत्तम’ होने के जज़्बे को भी तो अपने साथ रखो। कर्म करके फल की इच्छा को रखना सब के लिए लाज़मी होता है, श्रीकृष्ण के अर्जुन को ’गीता ज्ञान’ की याद भी तो अपने साथ रखो।
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Monday, August 23, 2010
गज़ल - गज़ल
साँसें अगर साथ निभाती रहें तो चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं, जो दग़ा दे जाएं साँसें, फिर कहां चिराग़-ए-ज़िंदगी रौशन रहते हैं। अक्सर फ़र्ज़ अंजाम देने को लोग आ तो जाते हैं मिजाज़पुर्सी को, पर दूसरों की तो सुनते नहीं, अपने ही अफ़साने बयान करते हैं। आते देख उनको चिराग़ों की आबरू रखने को बुझा देते हैं चिराग़, रू-ब-रू उनके रुख-ए-रौशन बेचारे ये चिराग़ रौशन कहां रहते हैं। इक इक अदा तो उनकी कातिल है एवं हमी पर वोह नाज़िल है, मुस्कुराकर ही ज़िंदगी देते हैं वोह और मुस्कुराकर कत्ल करते हैं। बकौल जनाब-ए-ग़ालिब राह-ए-उल्फ़त तो आग का एक दरिया है, यह राज़ समझ लो तो मंज़िल के मील पत्थर साथ साथ चलते हैं। हर बूंद का नसीब नहीं पर एक बूंद तो सीप में मोती हो जाती है, आदमी तो सभी होते हैं पर सभी आदमी इंसां तो नहीं हुआ करते हैं। मैखाने में लोगों को फ़क्त मय, जाम-औ-मीना से ही काम रहता है, विरले ही होते हैं वोह जो मैखाने से भी बिन पिए लौटा करते हैं।
Labels: ग़ज़ल at 10:47:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
Thursday, August 19, 2010
गज़ल - गज़ल
वोह जो कुछ भी कहते हैं सुन लेते हैं बिना हील-औ-हुज्जत के हम, कहने को अपने पास बहुत कुछ है, हमने कहा कहा, ना कहा ना कहा। दुनियां में कितने ही मुकाम हैं, ज़िंदगी तो कहीं भी बसर हो सकती है, रहने को तो बहुत जगह है इस जहां में, रहा रहा, ना रहा ना रहा। ज़िंदगी का क्या है, वोह तो ज़ुल्म-औ-सितम सह के भी गुज़र जाती है, तुम तो ज़ुल्म-औ-सितम जारी रखो, हमने सहा सहा, ना सहा ना सहा। काम दरिया का तो है चलते ही जाना, वोह तो चलने में ही मसरूफ़ है, रवानी-ए-दरिया पे मत जाओ, पानी उसमें बहा बहा, न बहा ना बहा। मोहब्बत में कई मुकाम होते हैं, लेकिन इज़हार-ए-मोहब्बत लाज़मी है, इज़हार-ए-इश्क हम तो करते रहे, तुमने सुना सुना, ना सुना ना सुना। आवागमन के इस मेले में हर खास-औ-आम इशरत-ए-जहां मांगता है, हम तो फ़कीर हैं, मग़र कुछ हमको मिला मिला, ना मिला ना मिला। इंतेहाई जुस्तजू-ए-अल्फ़ाज़ एवं दिमाग़ी जद्द-औ-जहद से गज़ल होती है, पर बात तो वहीं आके अटकी है, किसी ने पढ़ा पढ़ा, ना पढ़ा ना पढ़ा। तख़्लीक-ए-कायनात के वक्त यजदां ने बनाया तो सबको इंसान ही था, मिजाज़ तो हर किसी का जुदा था, वोह बना बना, ना बना ना बना।
Labels: ग़ज़ल at 9:44:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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