जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है, तो पत्ता पत्ता लहलहा उठता है, हवा भी गुनगुनाने लगती है, वातावरण सुरमय हो जाता है, मधुर स्वर गूंजने लगते हैं - खामोशी भी खिलखिला देती है एवं ठहाके लगाने लगती है। जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है, कंवल दिल के खिल उठते हैं, हवा खुशगवार सी लगने लगती है, संपूर्ण सृष्टि महक उठती है एवं हर तरफ़ एक जादू फैल जाता है - खामोशी भी खिलखिला देती है और ठहाके लगाने लगती है। जब मेरे नन्हे शौर्य के मुख पर प्यारी एक मुस्कान उभरती है, बेखुदी हद्द से गुज़र जाती है, आसपास की खबर नहीं रहती है, श्वास श्वास में एक अनोखा सा, अनूठा सा अनुभव होता है - खामोशी भी खिलखिला देती है और ठहाके लगाने लगती है।
Tuesday, May 14, 2013
कविता - मुस्कान मेरे नन्हे शौर्य की (Shaurya is my Grandson)
Labels: कविता at 5:54:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 1 comments
नजम - सवालिया निशान
खुदा है या नहीं, यह सवाल अक्सर हम उठाते हैं, बनाकर इस को मौज़ूं नित नई नशिस्त जमाते हैं, वोह है तो कायनात है, वोह नहीं तो कुछ भी नहीं - कम-ज़र्फ़ हैं वोह जो यह भी नहीं समझ पाते हैं। ये सवालिया निशान जो उसके वजूद पर लगाते हैं, ये सवालिया निशान लेकिन तब कहां चले जाते हैं, जब हर खुशी का सिला तो हम खुद को दे देते हैं - और हर हादसे को भगवान की रज़ा हम बताते हैं। मैंने यह किया, मैंने वोह किया, यही रट लगाते हैं, देके नाम अना का एहसास-ए-कमतरी को छुपाते हैं, उसकी बेआवाज़ लाठी बोलती है तो अना खो जाती है - फिर भागते हैं मंदिर और मस्जिद, रूठे रब्ब को मनाते हैं।
Labels: नजम at 5:48:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नजम - गीता ज्ञान - कर्म किए जाओ, फल मुझ पर छोड़ दो
मैं अपने हाथ में तकदीर द्वारा लिखित लकीरों का जायज़ा लगाता हूं, आज तक मैंने ज़िंदगी में क्या खोया, क्या पाया, बही खाता बनाता हूं, लोग कहते हैं जो तकदीरों में नहीं लिखा होता वोह तदबीरें दिला देती हैं - तकदीर की बंदिशों में बंधा रह के मैं अपनी तदबीरों में खो जाता हूं। तकदीर की लकीरों में मैं अपने पूर्व जन्म का बकाया लेके आता हूं, और तदबीरों की मार्फ़त कर्मभूमि में अपने दांव पेच मैं आजमाता हूं, यूं भी कहा गया है कि सब कुछ उसी की रज़ा से ही तो मिलता है - भगवान की रज़ा एवं अपनी कर्म शक्ति के तालमेल को आजमाता हूं। यह खेल तकदीरों का है या कि तदबीरों का, यहां मैं उलझ जाता हूं, उसकी रज़ा के मुकाबिले अपनी कार्मिक क्षमता को ना-माकूल पाता हूं, फिर मुझे रौशनी का एक जज़ीरा "गीता ज्ञान" के रूप में नज़र आता है - और मैं अपने कर्म क्षेत्र में जुटकर नतीजे को उसकी रज़ा पर छोड़ देता हूं।
Labels: नजम at 5:45:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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