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Tuesday, May 14, 2013

नजम - सवालिया निशान

खुदा है या नहीं, यह सवाल अक्सर हम उठाते हैं,
बनाकर इस को मौज़ूं नित नई नशिस्त जमाते हैं,
वोह है तो कायनात है, वोह नहीं तो कुछ भी नहीं -
कम-ज़र्फ़ हैं वोह जो यह भी नहीं समझ पाते हैं।

ये सवालिया निशान जो उसके वजूद पर लगाते हैं,
ये सवालिया निशान लेकिन तब कहां चले जाते हैं,
जब हर खुशी का सिला तो हम खुद को दे देते हैं -
और हर हादसे को भगवान की रज़ा हम बताते हैं।

मैंने यह किया, मैंने वोह किया, यही रट लगाते हैं,
देके नाम अना का एहसास-ए-कमतरी को छुपाते हैं,
उसकी बेआवाज़ लाठी बोलती है तो अना खो जाती है -
फिर भागते हैं मंदिर और मस्जिद, रूठे रब्ब को मनाते हैं।

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