यह खेल तदबीरों का है या कि मेरे हाथों की लकीरें रंग दिखाती हैं, रास्ते सभी सहज लगते हैं और मंज़िलें ठीक सामने नज़र आती हैं, पर कभी कभी मंज़िल तक आके भी हाथ से बाज़ी निकल जाए है - मज़िलों के मील पत्थर तक पहुंचने में मंज़िलें आगे खिसक जाती हैं। हसरतें दिल की हसीन नज़ारे उनकी निगाहों से चुराने को जाती हैं, जैसे ही नज़रें मिलने को होती हैं तो उनकी नज़रें नीची हो जाती हैं, ये उनके अंदाज़-ए-शर्म-औ-हया हैं या ज़ुल्म-औ-सितम की कोई अदा - कुछ भी हो हसरतें अपने दिल की तो दिल में ही दफ़न हो जाती हैं। सवाल किया जब हमने उनसे यही तो लज्जा से वोह नज़रें फेर जाती हैं, सिर को झुका लेती हैं और ज़ुबान अपनी से कुछ भी नहीं बोल पाती हैं, ज़ुबान से चाहे वोह कुछ भी ना कहें पर निगाहें सब साफ़ कह देती हैं - और हम सब समझ जाते हैं, अनकही बातें सब खुद ही बयां हो जाती हैं।
Thursday, March 7, 2013
नज़म - शर्म-औ-हया
Labels: नज़म at 4:49:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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