Followers

Thursday, March 7, 2013

नज़म - तक्मील-ए-ग़ज़ल

लाखों ग़मों को निचोड़कर जो एक लड़ी में पिरो दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
झूठ-औ-सच को समेटकर एक दिलनशीं अंदाज़ दे दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
चार दिन की ज़िंदगी हमें जो मिलती है, उसे कौन समझा है, कौन उसको जाना है -
गुनाह एवं सवाब को मानीखेज अल्फ़ाज़ में ढाल दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

शोख़ नज़रें जो मिल जाती हैं शोख़ नज़रों के संग तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
नज़रों के चार होने के बाद दो दिल मिलते हैं जब तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
पर दिल-ए-बेताब तड़प उठता है जब दर्द से तो बेनूर हो जाती हैं नूर से भरी आंखें -
दिल और आंखों में जब इस कदर तालमेल होता है तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

आंखों से टपके मोती जब रुख्सार पर आ जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
बिना टपके यही मोती जब कल्ब में पहुंच जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
कल्ब में पहुंचकर ये मोती अंगारे बन जाते हैं तो दिल बेचारा तो बिखर जाता है -
जज़्बात अल्फ़ाज़ बनकर कागज़ पे उतर जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

No comments: