ज़िक्र जब भी करोगे अपनी बेबसी का ग़ैरों से, लोग बेवजह अफ़साने बनाएंगे, तुम क्या समझते हो कि ये दुनियां वाले जज़बा-ए-हमदर्दी से पेश आएंगे, लोग तो महज़ तमाशबीन होते हैं, हर सू तलाश करते हैं मौका-ए-तानाज़नी - तवक्को इनसे खैरख्वाही की फ़िज़ूल है, ये तो तुम पर ही उंगलियां उठाएंगे। मर जाओगे, मिट जाओगे रहनुमाई करते करते, इल्ज़ाम ये तुम्ही पर लगाएंगे, बिक जाओगे, मुफ़लिसी ज़ेवर बन जाएगी तुम्हारा, बेईमान ये तुम्हें बताएंगे, वक्त आने पर ये तो बापू को भी नहीं बख्शते, तुम्हारी तो बिसात ही कुछ नहीं है - जश्न-ए-जीत को मनाना तो इनकी जागीर है, हार में तुम्ही को दोषी ठहराएंगे। बच के निकल जाओ इनकी शतरंजी चालों से, ना जाने ये क्या कयामत बरपाएंगे, जीना तो एक तरफ़, मरना भी मुहाल होगा जब इनके ज़ुल्म-औ-सितम रूबरू आएंगे, तलवार की तो एक तरफ़ धार होती है, बेरहम दुनियां के दोनों तरफ़ धार होती है - बेरुखी इनकी है कहर के मानिंद, इनकी रहमतों में भी जाती मफ़ाद नज़र आएंगे।
Tuesday, February 19, 2013
नज़म - दोधारी तलवार
Labels: नज़म at 4:25:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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