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Tuesday, June 21, 2011

गज़ल - गज़ल

नींद छीन लेते हो आंखों से और फिर तुम ख्वाबों की बात करते हो,
एक बूंद भी मय की मयस्सर नहीं, तुम शराबों की बात करते हो,
निभाना दस्तूर-ए-दुनियां को भी शामिल कर लो अपनी ज़िंदगी में -
हस्बा-ए-मामूल है आपसी मिलना, तुम हिजाबों की बात करते हो।

एक ही आफ़ताब से रौशनी है, तुम किन आफ़ताबों की बात करते हो, 
महताब इक मेरे घर में भी है, तुम कौन से महताबों की बात करते हो,
अपने बुज़ुर्गों की हर रिवायत जज़्ब है मेरे खून के इक इक कतरे में -
यह आज तुम किन अलहदा रिवायतों वाली किताबों की बात करते हो।

उनके इंकार में इकरार भी शामिल है, क्यों फिर जवाबों की बात करते हो,
हकीकत-ए-ज़माना को दरगुज़र कर के क्यों तुम निसाबों की बात करते हो,
मौजूद है ज़माने भर की तमाम खुशियां जब तुम्हारे मौजूदा मुकाम में ही -
हर शय हसीन है तुम्हारे इर्द गिर्द ही क्यों फिर सराबों की बात करते हो।

[मयस्सर = Available] हस्बा-ए-मामूल = Day to day routine] [हिजाब = Veil] 
[ज़र्रा = Sand particles] [आफ़ताब = Sun] [महताब = Moon]  [रिवायत = Rituals]
[दरगुज़र = Forget] [निसाब = History] [सराब = Mirage]

Saturday, June 11, 2011

नज़म - मुम्बई ब्लास्ट्स

कल यहां ऐसा एक कोहराम मचा कि हवाएं बिलखने लगी,
मौत ने ऐसा किया कुछ तांडव कि ज़िंदगी सिसकने लगी,
लाशों के टुकड़े उड़े और उड़कर यूं बिखरे इस फ़ज़ा में कि -
माहौल रोया खून के आंसु और इंसानियत तड़पने लगी।

मुल्क को क्या तुमसे यही तव्वको है कि वहशत नाचने लगे,
मुल्क ने क्या तुमको यही दिया है कि हैवानियत हंसने लगे,
जाहिलो, जिस थाली में तुम खाते हो, उसी में छेद करते हो -
मुल्क का मुस्तकबिल क्या होगा जो जूतियों में दाल बंटने लगे।

उठो ग़ैरतमंद इंसानो, जवाब दो कि हैवानियत तड़पने लगे,
उठो नौजवानों, मुकाबिला करो डटकर कि वहशत सिसकने लगे,
कह दो इन दरिंदों को कि खुद भी जिएं औरों को भी जीने दें -
वगरना यूं मुंह की खाएंगे ये कि इनकी रूह भी कांपने लगे।

नज़म - साकी-औ-रिंद

साक़िया, मैकदे के एक पहुंचे हुए रिंद का तूने तो ग़ुरूर ही तोड़ दिया,
बेसुध होकर कहीं गिर ना जाए, तूने उसका जाम खाली ही छोड़ दिया।

इस ज़माने में पैमां टूटते हुए तो हम रोज़ाना ही देखते आए हैं लेकिन,
आज तो, यकीनन, तूने हद्द ही मुका दी, उसका पैमाना ही तोड़ दिया।

तुझे इससे फर्क भी क्या पड़ता है, चार जाएंगे, चार और चले आएंगे,
तेरी महफ़िल तो सूनी ना होगी मग़र तूने तो उससे मुहं ही मोड़ लिया। 

कितना ग़लत ग़ुमान रखता आया था, साक़िया, तुझपर तेरा यह रिंद,
चश्म-ए-साक़ी से ही पीता रहा था, तूने तो उसका दिल ही तोड़ दिया।

किस किस की बातें सुनता और किस किस की जुबां पर ताले लगाता,
कल तक जो जाता था तेरी बजम से, आज उसने जहां ही छोड़ दिया।

कविता - गुनाह-औ-सवाब

आते हैं गुलज़ार में और ढूंढ़ते लगते हैं वोह मुझे ख़ार में औ गुलाब में,
नासमझ हैं, एक बार झांक कर देख तो लेते अपने दिल की किताब में।

दर हक़ीक़त मैं भी एक बंदा हूं खुदा का, उसका कोई मोजज़ा नहीं हूं मैं,  
जाते हैं सहरा में और ढूंढ़ने लगते हैं वोह मुझे सेहरा के फ़रेबी सराब में।

सोते सोते भीनि भीनि सी एक मुस्कान उभर ही आती है उनके लबों पर,
हाल-ए-दिल लाख छुपाएं मग़र हक़ीक़त खुल ही जाती है उनके ख्वाब में।

हकीकत-ए-हाल-औ-दिल-ए-मुज़्तरिबी अपनी जब बयां करता हूं मैं उनसे,
वोह चाहे कुछ ना कहें, उनकी खामोशी चुगलखोर बन जाती है जवाब में।

खुदा की गफ़्फ़ारी पे यकीन है पर उनको चाहने का गुनाह कर ही लेता हूं,
पर लज्ज़त-ए-गुनाह में वोह जन्नती मज़ा कहां नसीब है जो है सवाब में।

क़यामत का तो एक दिन मुअय्यन है रोज़-ए-जज़ा में देखो क्या मिलता हैं,
मानाकि गुनाहों की फ़ैहरिस्त लम्बी है पर कुछ तो सवाब भी हैं हिसाब में।