तमन्ना यही है दिल में अपने कि उतार लाएं ज़मीन पे फ़िरदौस एक, चार सू खुशियों का आलम हो और बन जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। नज़र-ए-इनायत हो उसकी और हर नियामत मयस्सर हो यहीं पर, इंसां रहे पल पल उसी की बंदगी में पा जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। ना हों बंदिशें मज़हब की और ना ही हों मसाइल दुन्यावी रिवायतों के, फ़रिश्ते खुद उतरें अर्श से और देखने आएं ज़मीन पे फ़िरदौस एक। खुलासा जन्नत का फ़क्त दो अलफ़ाज़ में ही बयां करना हो मुमकिन, "आपसी मेल-जोल" कायम रहे और बन जाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। मौजूद हो इस ज़िंदगी में फ़क्त "जियो और जीने दो" का फ़ल्सफ़ा, यही अगर लोग समझ जाएं तो उतर आए ज़मीन पे फ़िरदौस एक। आसमान से खुद खुदा देखे अपनी कायनात पर जन्नत के नज़ारे, करके बारिश अपनी रहमतों की दिखाए ज़मीन पे फ़िरदौस एक।
Sunday, February 13, 2011
नज़म - ज़मीन पे फ़िरदौस
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Tuesday, February 8, 2011
कविता - काला चश्मा
देश की राजधानी में बाँब ब्लास्ट, इतने मरे, इतने घायल, ऐसा तो होता ही रहेगा, किसी डिज़ास्टर पंडित ने कहा था। "मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे बसंती चोला", क्या यह वही देश है जिसके लिए भगत ने कहा था। "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, दिल में है", क्या यह वही देश है जिसके लिए भगत ने कहा था। "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती", क्या यह वही देश है जिसके लिए भारत ने कहा था। "है प्रीत जहां की रीत सदा मैं गीत वहां के गाता हूं", क्या यह वही देश है जिसके लिए भारत ने कहा था। हां, यह वही देश है, तोड़ दो इन दरिंदों के काले चश्मे को, फिर खुद कहोगे जो भगत ने कहा था और भारत ने कहा था।
Labels: कविता at 12:01:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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